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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ वां॒ रथो॑ अश्विना श्ये॒नप॑त्वा सुमृळी॒कः स्ववाँ॑ यात्व॒र्वाङ्। यो मर्त्य॑स्य॒ मन॑सो॒ जवी॑यान्त्रिबन्धु॒रो वृ॑षणा॒ वात॑रंहाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । रथः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । श्ये॒नऽप॑त्वा । सु॒ऽमृ॒ळी॒कः । स्वऽवा॑न् । या॒तु॒ । अ॒र्वाङ् । यः । मर्त्य॑स्य । मन॑सः । जवी॑यान् । त्रि॒ऽव॒न्धु॒रः । वृ॒ष॒णा॒ । वात॑ऽरंहाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां रथो अश्विना श्येनपत्वा सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ्। यो मर्त्यस्य मनसो जवीयान्त्रिबन्धुरो वृषणा वातरंहाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। रथः। अश्विना। श्येनऽपत्वा। सुऽमृळीकः। स्वऽवान्। यातु। अर्वाङ्। यः। मर्त्यस्य। मनसः। जवीयान्। त्रिऽबन्धुरः। वृषणा। वातऽरंहाः ॥ १.११८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्यादौ विद्वत्स्त्रीपुरुषौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे वृषणाऽश्विना वां यस्त्रिबन्धुरः श्येनपत्वा वातरंहा मर्त्यस्य मनसो जवीयान् सुमृडीकः स्ववान् रथोऽस्ति सोऽर्वाङ्ङायातु ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः (रथः) (अश्विना) शिल्पविदौ दम्पती (श्येनपत्वा) श्येनइव पतति। अत्र पतधातोरन्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति वनिप्। (सुमृडीकः) सुष्ठुसुखयिता (स्ववान्) प्रशस्ताः स्वे भृत्याः पदार्था वा विद्यन्ते यस्मिन् (यातु) गच्छतु (अर्वाङ्) अधः (यः) (मर्त्यस्य) (मनसः) (जवीयान्) (त्रिबन्धुरः) त्रयो बन्धुरा अधोमध्योर्ध्वं बन्धा यस्मिन् (वृषणा) बलिष्ठौ (वातरंहाः) वात इव रंहो गमनं यस्य ॥ १ ॥

    भावार्थः

    स्त्रीपुरुषौ यदेदृशे यानं निर्मायोपयुञ्जीयातां तदा किं तत्सुखं यत्साद्धुं न शक्नुयाताम् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ११ ऋचावाले एकसौ अठारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् स्त्री-पुरुष क्या करें, यह विषय कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वृषणा) बलवान् (अश्विना) शिल्प कामों के जाननेवाले स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों को (यः) जो (त्रिबन्धुरः) त्रिबन्धुर अर्थात् जिसमें नीचे, बीच में और ऊपर बन्धन हों (श्येनपत्वा) वाज पखेरू के समान जानेवाला (वातरंहाः) जिसका पवन समान वेग (मर्त्यस्य) मनुष्य के (मनसः) मन से भी (जवीयान्) अत्यन्त धावने और (सुमृडीकः) उत्तम सुख देनेवाला (स्ववान्) जिसमें प्रशंसित भृत्य वा अपने पदार्थ विद्यमान हैं, ऐसा (रथः) रथ है, वह (अर्वाङ्) नीचे (आ, यातु) आवे ॥ १ ॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष जब ऐसे यान को उत्पन्न कर उपयोग में लावें तब ऐसा कौन सुख है, जिसको वे सिद्ध नहीं कर सकें ॥ १ ॥

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    विषय

    ‘श्येनपत्वी’ रथः

    पदार्थ

    १. जब हम प्राणसाधना में चलते हैं तब हमारा यह शरीर प्राणापान का ही हो जाता है तब यह अश्विनीदेवों का रथ कहलाता है । हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वां रथः) = आपका यह शरीररूप रथ (अर्वाङ् आयातु) = हमारे अभिमुख आनेवाला हो , हमें प्राप्त हो । २. कैसा रथ ? [क] (श्येनपत्वा) = शंसनीय गतिवाला , जिसके द्वारा सब कर्म प्रशंसनीय ही होते हैं , [ख] (सुमृडीकः) = प्रशंसनीय गतियों के कारण जो उत्तम सुखों को देनेवाला है , तथा [ग] (स्ववान्) = उत्तम धनैश्वर्योंवाला है । ३.हे (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्राणापानो ! वह रथ हमें प्राप्त हो (यः) = जो (मर्त्यस्य मनसः) = मनुष्य के मन से भी (जवीयान्) = अधिक वेगवान है , (वातरंहाः) = वायु के समान वेगवाला है और (त्रिवन्धुरः) = इन्द्रिय , मन व बुद्धिरूप तीन अधिष्ठानोंवाला है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से शरीररथ वेगवाला - शंसनीय गतिवाला व उत्तम ऐश्वर्योंवाला बनता है । इसमें इन्द्रियाँ , मन व बुद्धि तीनों ही बड़े सुन्दर होते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना ) हे राज प्रजा के प्रमुख पुरुषो ! ( वां ) आप दोनों का वह ( रथः ) रथ ( श्येनपत्वा ) बाज के समान वेग से जाने हारा, ( स्ववान् ) अपने भृत्यों से युक्त, ( सुमृडीकः ) उत्तम रीति से सुखप्रद होकर ( अर्वाङ् आयातु ) सदा हमारे प्रति आवे और जावे । ( यः ) जो ( त्रिबन्धुरः ) तीन स्थानों पर बन्धा हुआ, ( वातरंहाः ) वायु के वेग से जाने हारा होकर ( मर्त्यस्य मनसः जवीयान् ) मनुष्य के मन से भी अधिक वेग से जाने हारा है। [ २ ] अध्यात्म में—हे प्राण और अपान ! बुद्धि और आत्मन् ! (वांरथः) तुम दोनों का यह रमण साधन रथ देह ‘श्येन’ अर्थात् चेतन ज्ञानवान् आत्मा के कारण चेतन, ज्ञानकर्ता और गतिमान् होने से ‘श्येनपत्वा’ है । सुखदायी होनेसे ‘सुमृडीक’ है । और आत्मा अपने ही प्राणों से युक्त होने और स्वप्रकाश होने से ‘स्ववान्’ है । वह प्रत्यक्ष होता है। प्राण उदान और व्यान में या शिर, छाती और नाभि में बंधा होने से ‘त्रिबन्धुर’ है । प्राणों या मरुत् ( Metobolic Force ) के वेग से गतिमान् होने से ‘वातरंहा’ है मन के बल से ही यह वेगवान् है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात स्त्री-पुरुष व राजा प्रजेच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष जेव्हा यान निर्माण करून उपयोगात आणतील तेव्हा असे कोणते सुख आहे जे ते सिद्ध करू शकत नाहीत? ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, masters of nature’s energy and natural resources, let your chariot flying as the eagle, luxuriously comfortable, automotive, come here, chariot faster than the mind of man, three staged and tempestuous in power as the wind.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should learned men and women do is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty Ashvinau (husband and wife, experts in arts and industries) let your wonderful car in the form of an aircraft, which flies in sky like the hawk, is swift like the mind of the man, having three ligatures or bonds up, below and middle, containing servants and necessary articles, going up like the mind, giver of abundant and good delight come down.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अश्विना) शिल्पविदौ दम्पती = Husband and wife - knowers of arts and industries. (त्रिबन्धुरः) त्रयः बन्धुरा:- अधोमध्योर्ध्वबन्धा: यस्मिन् = Containing three bonds or ligatures.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When men and women manufacture such wonderful vehicles like the aero-plane, what happiness is there which they may not be able to accomplish.

    Translator's Notes

    अश्विनौ has been explained variously in the Nirukta (2.1.1) as द्यावापृथिव्यौ, सूर्याचन्द्रमसौ, अहोरात्री, देवानां भिषजौ (निरु. १२.१.१) The husband and wife have been compared in the Vedas themselves to the sun and the earth द्यौरहं पृथिवी त्वम् (अथर्व १४.२७१ ) so it is clear that the word Ashvinau can very well be used for husband and wife who are like the sky and the earth or like the sun and the moon. The adjectives श्येनपत्वा मर्त्यस्य मनसो जवीयान् वातरंहा: clearly denote that the. रथ or car referred to is not ordinary chariot, but one like the aircraft, swift like the mind of a man, swift like the wind. Prof. Wilson has translated श्येनपत्वा as Swift as a hawk मर्त्यस्य मनसो जवीयान् is translated by Prof. Wilson as "As quick as the mind of man' and by Griffith as 'Swifter than the mind of mortal वातरंहा: has been translated as 'rapid as the wind by Prof. Wilson and by Griffith "fleet as the wind त्निबन्धुर: has been rendered into English by Griffith as "Three-seated. These adjectives justify Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation as given above, though some Western Scholars may not understand or admit it. Even Sayanacharya has given the alternative meaning of श्येन as पक्षी or bird.

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