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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 119/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अग॑च्छतं॒ कृप॑माणं परा॒वति॑ पि॒तुः स्वस्य॒ त्यज॑सा॒ निबा॑धितम्। स्व॑र्वतीरि॒त ऊ॒तीर्यु॒वोरह॑ चि॒त्रा अ॒भीके॑ अभवन्न॒भिष्ट॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग॑च्छतम् । कृप॑माणम् । प॒रा॒ऽवति॑ । पि॒तुः । स्वस्य॑ । त्यज॑सा । निऽबा॑धितम् । स्वः॑ऽवतीः । इ॒तः । ऊ॒तीः । यु॒वोः । अह॑ । चि॒त्राः । अ॒भीके॑ । अ॒भ॒व॒न् । अ॒भिष्ट॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अगच्छतं कृपमाणं परावति पितुः स्वस्य त्यजसा निबाधितम्। स्वर्वतीरित ऊतीर्युवोरह चित्रा अभीके अभवन्नभिष्टयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अगच्छतम्। कृपमाणम्। पराऽवति। पितुः। स्वस्य। त्यजसा। निऽबाधितम्। स्वःऽवतीः। इतः। ऊतीः। युवोः। अह। चित्राः। अभीके। अभवन्। अभिष्टयः ॥ १.११९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 119; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विनौ स्त्रीपुरुषौ भवन्तौ स्वस्य पितुः परावति स्थितं त्यजसा निबाधितं कृपमाणं परिव्राजं नित्यमगच्छतम्। इत एव युवोरभीकेऽह चित्रा अभिष्टयः स्वर्वतीरूतिरभवन् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (अगच्छतम्) प्राप्नुताम् (कृपमाणम्) कृपां कर्त्तुं शीलम् (परावति) दूरेदेशेऽपि स्थितम् (पितुः) जनकवद्वर्त्तमानस्याध्यापकस्य सकाशात् (स्वस्य) स्वकीयस्य (त्यजसा) संसारसुखत्यागेन (निबाधितम्) पीडितं संन्यासिनम् (स्वर्वतीः) स्वः प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यासु ताः (इतः) अस्माद्वर्तमानाद्यतेः (ऊतीः) रक्षणाद्याः (युवोः) युवयोः (अह) निश्चये (चित्राः) अद्भुताः (अभीके) समीपे (अभवन्) भवन्तु (अभिष्टयः) अभीप्सिताः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    सर्वे मनुष्या पूर्णविद्यमाप्तं रागद्वेषपक्षपातरहितं सर्वेषामुपरि कृपां कुर्वन्तं सर्वथासत्ययुक्तमसत्यत्यागिनं जितेन्द्रियं प्राप्तयोगसिद्धान्तं परावरज्ञं जीवन्मुक्तं संन्यासाश्रमे स्थितमुपदेशाय नित्यं भ्रमन्तं वेदविदं जनं प्राप्य धर्मार्थकाममोक्षाणां सविधानाः सिद्धिः प्राप्नुवन्तु न खल्वीदृग्जनसङ्गोपदेशश्रवणाभ्यां विना कश्चिदपि यथार्थबोधमाप्तुं शक्नोति ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्या के विचार में रमे हुए स्त्री-पुरुषो ! आप (स्वस्य) अपने (पितुः) पिता के समान वर्त्तमान पढ़ानेवाले से (परावति) दूर देश में भी ठहरे और (त्यजसा) संसार के सुख को छोड़ने से (निबाधितम्) कष्ट पाते हुए (कृपमाणम्) कृपा करने के शीलवाले संन्यासी को नित्य (अगच्छतम्) प्राप्त होओ (इतः) इसी यति से (युवोः) तुम दोनों के (अभीके) समीप में (अह) निश्चय से (चित्राः) अद्भुत (अभिष्टयः) चाही हुई (स्वर्वतीः) जिनमें प्रशंसित सुख विद्यमान हैं (ऊतीः) वे रक्षा आदि कामना (अभवन्) सिद्ध हों ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य पूरी विद्या जानने और शास्त्रसिद्धान्त में रमनेवाले राग-द्वेष और पक्षपातरहित सबके ऊपर कृपा करते सर्वथा सत्ययुक्त असत्य को छोड़े, इन्द्रियों को जीते और योग के सिद्धान्त को पाये हुए अगले-पिछले व्यवहार को जाननेवाले जीवन्मुक्त संन्यास के आश्रम में स्थित संसार में उपदेश करने के लिये नित्य भ्रमते हुए वेदविद्या के जाननेवाले संन्यासीजन को पाकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षों की सिद्धियों को विधान के साथ पावें। ऐसे संन्यासी आदि उत्तम विद्वान् के सङ्ग और उपदेश के सुने विना कोई भी मनुष्य यथार्थ बोध को नहीं पा सकता ॥ ८ ॥

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    विषय

    फिर पिता के पास

    पदार्थ

    १. जब मनुष्य अपने पिता प्रभु को छोड़कर भटकता हुआ सुदूर विषय - समुद्र में पहुँचता है तो समयप्रवाह में , थोड़ी - सी चमक व चहल - पहल के बाद रोगादि से पीड़ित होकर परेशानी में हो जाता है । अब उसे अपने पिता का स्मरण होता है और यह प्रभुस्तवन की ओर झुकता है । उस समय ये प्राणापान उसके सहायक बनते हैं । प्राणसाधना से उसे फिर से प्रकाश प्राप्त होता है , रोगादि से मुक्ति मिलती है और यह पुनः अपने पिता के समीप पहुँचनेवाला बनता है । २. हे प्राणापानो ! (स्वस्य) = अपने (पितुः) = रक्षक पिता परमात्मा के (त्यजसा) = त्याग से (परावति) = सुदूर विषय - समुद्र में (निबाधितम्) = पीड़ित हुए - हुए और अतएव (कृपमाणम्) = [कृपतिः स्तुतिकर्मा तौदादिकः] पुनः प्रभुस्तवन में प्रवृत्त हुए - हुए को (आगच्छतम्) = प्राप्त होते हो । मनुष्य कुछ देर विषय - समुद्र में भटककर पीड़ित होने पर फिर प्रभु की ओर लौटता है । प्राणापान उसके लिए सहायक बनते हैं । हे प्राणापानो ! (युवोः) = आपके (अभिष्टयः) = रोगादि पर होनेवाले आक्रमण (अह) = निश्चय से (स्वर्वतीः) = प्रकाश व सुखवाले होते हैं , (इतः ऊतीः) = इधर से - विषय - समुद्र से रक्षित करनेवाले होते हैं , (चित्राः) = अद्भुत होते हैं , और (अभीके अभवन्) = प्रभु के समीप पहुँचानेवाले होते हैं [अभीके = समीप] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से मलों व आवरणों का विक्षेप होकर जीवन प्रकाशमय बनता है । हम विषय - समुद्र में डूबने से बचते हैं और अन्त में प्रभु के समीप पहुँचनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( स्वस्य पितुः ) अपने पालक माता पिता के ( त्यजसा ) त्याग से ( निबाधितम् ) खिन्न एवं ( कृपमाणं ) आप दोनों की स्तुति या विद्याध्ययन करते हुए बालक या शिष्य को प्राप्त करें । अथवा—हे राज प्रजावर्गो ! ( स्वस्य पितुः सकाशात् परावति कृपमाणम् ) अपने पालक जन गुरु आदि से विद्या प्राप्त करके दूर देश में स्थित कृपाशील, ( त्यजसा ) सर्व सुखों के त्याग द्वारा ( नि बाधितम् ) पीड़ित, तपस्वी पुरुष को ( अगच्छतम् ) प्राप्त होओ। ( इतः ) इस विद्वान् तपस्वी पुरुष से ही ( अह ) निश्चय से ( युवोः ) तुम दोनों को ( स्वः वतीः ) सुखदायिनी ( चित्राः) आश्चर्यजनक (ऊतीः) ज्ञान, उपाय और ( अभीष्टयः ) अभीष्ट सिद्धियें भी ( अभीके अभवन् ) प्राप्त हों। यदि स्त्री पुरुषों को पुत्र न प्राप्त होता हो तो वे किसी ऐसे बालक को जिसको उसके मां बाप छोड़ चुके हों और आश्रय चाहता हो अपना पुत्र बना लें और उससे ही उन के सब अभीष्ट मनोरथ सिद्ध हो सकते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ६ निचृज्जगती । ३,७, १७ जगती । ८ विराड् जगती । २, ५, ९ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी पूर्ण विद्या जाणून व शास्त्रसिद्धांतात रमून रागद्वेष व भेदभावरहित होऊन सर्वांवर कृपा करणाऱ्या व सर्वस्वी असत्य सोडून इंद्रियांना जिंकणाऱ्या, योगसिद्धांताला प्राप्त करणाऱ्या, पुढचा मागचा व्यवहार जाणणाऱ्या, जीवन्मुक्त संन्यासाश्रमात स्थित राहून जगाला उपदेश करण्यासाठी नित्य भ्रमण करीत वेदविद्या जाणणाऱ्या संन्यासी लोकांकडून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्धींना नियमपूर्वक प्राप्त करावे. अशा संन्यासी इत्यादींचा उत्तम सहवास व उपदेश ऐकल्याशिवाय कोणत्याही माणसाला यथायोग्य बोध होऊ शकत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You go far to the person afflicted by separation and alienation from his or her own parents and praying for succour. Surely blessed and brilliant are your protections, wonderful and cherished, and instant and close at hand.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men and women, you should go to a kind Sanyasi who has given up worldly happiness and is leading a life of austerity, far away from his own father or teacher in order to preach truth everywhere. By his association and teaching, your noble desires will be fulfilled and you will get wonderful protections leading you to happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्यजसा) संसारसुखत्यागेन । = By the renouncement of worldly happiness. (इत:) अस्माद् वर्तमानाद्यते: = From this Sanyasi.(अभीके) समीपे

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all to achieve the accomplishment of Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires and Moksha emancipation) by approaching a great sanyasi who is highly learned, free from all attachment and jealousy, showing kindness to all, absolutely truthful and renouncer of all falsehood, self-controlled, a great Yogi knowing the reality and liberated while in this life itself, wandering all over the world for preaching truth. No one can acquire true knowledge without association with and listening sermons of such a truly great man.

    Translator's Notes

    (अभीके उत्तराणिपदानि (निघ० ३.२९) (पद-गतौ) गतेस्त्रयोअर्थाः ज्ञानं गमनं प्रप्तिश्च Here by taking the third meaning off or appraachment, the idea of nearness is clear. In this Mantra, there is clear reference to the duties of Sanyasi. It is wrong therefore to say that the Vedas do not sanction the fourth or the Sanyasa Ashrama as some modern Scholars maintain..

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