ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 1
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
कदि॒त्था नॄँ: पात्रं॑ देवय॒तां श्रव॒द्गिरो॒ अङ्गि॑रसां तुर॒ण्यन्। प्र यदान॒ड्विश॒ आ ह॒र्म्यस्यो॒रु क्रं॑सते अध्व॒रे यज॑त्रः ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । इ॒त्था । नॄन् । पात्र॑म् । दे॒व॒ऽय॒ताम् । श्रव॑त् । गिरः॑ । अङ्गि॑रसाम् । तु॒र॒ण्यन् । प्र । यत् । आन॑ट् । विशः॑ । आ । ह॒र्म्यस॑ । उ॒रु । क्रं॒स॒ते॒ । अ॒ध्व॒रे । यज॑त्रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदित्था नॄँ: पात्रं देवयतां श्रवद्गिरो अङ्गिरसां तुरण्यन्। प्र यदानड्विश आ हर्म्यस्योरु क्रंसते अध्वरे यजत्रः ॥
स्वर रहित पद पाठकत्। इत्था। नॄन्। पात्रम्। देवऽयताम्। श्रवत्। गिरः। अङ्गिरसाम्। तुरण्यन्। प्र। यत्। आनट्। विशः। आ। हर्म्यस्य। उरु। क्रंसते। अध्वरे। यजत्रः ॥ १.१२१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ स्त्रीपुरुषाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे पुरुष त्वमध्वरे यजत्रस्तुरण्यन् सन् यथा जिज्ञासुर्नॄन् पात्रं कुर्याद् देवयतामङ्गिरसां यद्या गिरः श्रवत्ताइत्था कच्छ्रोष्यसि। यथा च धार्मिको राजा हर्म्यस्य मध्ये वर्त्तमानः सन् विनयेन विशः प्रानडुर्वाक्रंसत इत्था कद्भविष्यसि ॥ १ ॥
पदार्थः
(कत्) कदा। छान्दसो वर्णलोपो वेत्याकारलोपः। (इत्था) अनेन प्रकारेण (नॄन्) प्राप्तव्यशिक्षान् (पात्रम्) पालनम् (देवयताम्) कामयमानानाम् (श्रवत्) शृणुयात् (गिरः) वेदविद्याशिक्षिता वाचः (अङ्गिरसाम्) प्राप्तविद्यासिद्धान्तरसानाम् (तुरण्यन्) त्वरन् (प्र) (यत्) याः (आनट्) अश्नुवीत। व्यत्ययेन श्नम् परस्मैपदं च। (विशः) प्रजाः (आ) (हर्म्यस्य) न्यायगृहस्य मध्ये (उरु) बहु (क्रंसते) क्रमेत (अध्वरे) अहिंसनीये प्रजापालनाख्ये व्यवहारे (यजत्रः) संगमकर्त्ता ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रीपुरुषा यथा आप्ताः सर्वान् मनुष्यादीन् सत्यं बोधयन्तोऽसत्यान्निवारयन्तः सुशिक्षन्ते तथा स्वापत्यादीन् भवन्तः सततं सुशिक्षन्ताम्। यतो युष्माकं कुलेऽयोग्याः सन्तानाः कदाचिन्न जायेरन् ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब १५ ऋचावाले एकसौ इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में स्त्री-पुरुष कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, यह उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे पुरुष ! तूँ(अध्वरे) न विनाश करने योग्य प्रजापालन रूप व्यवहार में (यजत्रः) सङ्ग करनेवाला (तुरण्यन्) शीघ्रता करता हुआ जैसे ज्ञान चाहनेहारा (नॄन्) सिखाने योग्य बालक वा मनुष्यों की (पात्रम्) पालना करे तथा (देवयताम्) चाहते (अङ्गिरसाम्) और विद्या के सिद्धान्त रस को पाये हुए विद्वानों की (यत्) जिन (गिरः) वेदविद्या की शिक्षारूप वाणियों को (श्रवत्) सुने, उनको (इत्था) इस प्रकार से (कत्) कब सुनेगा और जैसे धर्मात्मा राजा (हर्म्यस्य) न्यायघर के बीच वर्त्तमान हुआ विनय से (विशः) प्रजाजनों को (प्रानट्) प्राप्त होवे (उरु) और बहुत (आ, क्रंसते) आक्रमण करे अर्थात् उनके व्यवहारों में बुद्धि को दौड़ावे, इस प्रकार का कब होगा ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्री पुरुषो ! जैसे शास्त्रवेत्ता विद्वान् सब मनुष्यादि को सत्य बोध कराते और झूठ से रोकते हुए उत्तम शिक्षा देते हैं, वैसे अपने सन्तान आदि को आप निरन्तर अच्छी शिक्षा देओ, जिससे तुम्हारे कुल में अयोग्य सन्तान कभी न उत्पन्न हों ॥ १ ॥
विषय
ज्ञान की वाणियों को किसने सना ?
पदार्थ
१. (तुरण्यन्) = जीवन - यात्रा को शीघ्रता से पूर्ण करने की कामनावाला (कत्) = कब (इत्था) = सचमुच (नॄँः पात्रम्) = मनुष्यों के पालन की (देवयताम्) = [कामयमानानाम् - द० दिव् - कान्ति] कामनावाले (अङ्गिरसाम्) = अङ्ग - प्रत्यङ्ग में रसवाले ज्ञानी पुरुषों की (गिरः) वाणियों को (श्रवत्) = सुनता है । ज्ञानी पुरुषों के लिए यहाँ स्पष्ट संकेत है कि वे [क] लोकहित की कामनावाले हों और [ख] पूर्ण स्वस्थ हों । एक व्यक्ति जो इस प्रकार के ज्ञानी पुरुषों की वाणियों को नियम से सुनता हो तो उसके जीवन में भी एक आवश्यक परिवर्तन आना ही चाहिए । यदि वह परिवर्तन न हो तो यही कहा जाएगा कि इसने उनके ज्ञानोपदेश को खाक सुना है ! अतः यहाँ यह प्रश्न करते हैं कि यह कब कहा जाए कि उसने इन ज्ञानोपदेशों को सुना है? २. उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (यत्) = जब (विशः) प्रजाओं को (प्र+आनट्) = यह प्रकर्षेण प्राप्त होता है, अर्थात् यह । स्वार्थमय जीवन न बिताता हुआ लोकहित के कर्मों में प्रवृत्त होता है और [ख] (हर्म्यस्य) = घर का (उरु) = खब ही (आक्रंसते) = आक्रमण करता है, अर्थात् अन्यत्र भटकने की अपेक्षा अपने शरीररूप घर में ही विचरता है । अपने ही आलोचन में लगा हुआ अपने दोषों को देखता है और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है । ३. (अध्वरे यजत्रः) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों में अपना सम्बन्ध करनेवाला होता है, सदा इन उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहता है । जिस व्यक्ति के जीवन में ये तीन बातें आ जाती है, वस्तुतः उसी ने ज्ञानियों की वाणियों को सुना है ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष लोकहित की कामनावाले व स्वस्थ बनकर ज्ञान का प्रसार करते हैं । इनके उपदेशों को ग्रहण करनेवाले [क] स्वार्थ से ऊपर उठते हैं, [ख] आत्मलोचन की प्रवृत्तिवाले होते हैं और [ग] यज्ञिय कर्मों से अपने को सम्बद्ध करते हैं ।
विषय
राजा का कर्तव्य ।
भावार्थ
( नॄन ) समस्त मनुष्यों और नायकों का ( पात्रम् ) पालक राजा ( तुरण्यन् ) त्वरावान् उत्सुक होकर ( देवयतां अङ्गिरसाम् ) उत्तम राजा को हृदय से चाहने वाले, तेजस्वी विद्वान् पुरुषों की ( गिरः ) वाणियों और उपदेशों को (इत्था) इस प्रकार से ( कत् ) कब श्रवण करे ? [उत्तर] ( यत् ) जब ( यजत्रः ) सत्संग करने वाला स्वामी ( हर्म्यस्य इव ) बड़े महल या अन्तः पुर के समान ( विशः ) प्रजाओं के ( अध्वरे ) पालन रूप उत्तम कार्य में ( प्र आनड् ) प्रतिष्ठा प्राप्त करे और ( ऊरु क्रंसते ) बहुत अधिक ऊंचे पद पर क़दम बढ़ावें। प्रायः ऊंचे राज्यादि पद को पाकर, पुरुष गर्वी होकर विद्वानों का वचन नहीं सुनता, परन्तु उसी अवसर पर उसे विद्वानों का वचन उत्सुक होकर श्रवण करना चाहिये । (२) अध्यात्म में—( यजत्रः ) परमेश्वर से संग करने वाला मुमुक्ष जब (विशः) अपने प्रवेश योग्य प्राणों पर ( प्र आनाड् ) वश प्राप्त करले और ( हर्म्यस्येव ) महल के ऊंचे अखण्ड्य रक्षा स्थान के समान ( अध्वरे ) उस अविनाशी, पालक, परमेश्वर तक पहुंचता है तब भी ( नॄः पात्रम् ) प्राणों का पालक जितेन्द्रिय होकर वह ( अंगिरसां देवयतां गिरः तुरण्यन् श्रवद् ) ज्ञानवान् ईश्वरभक्तों की वाणियों का श्रवण किया करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात स्त्री-पुरुष व राजा, प्रजा इत्यादींच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर या अर्थाची संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. हे स्त्री-पुरुषांनो ! जसे शास्त्रवेत्ते विद्वान सर्व माणसांना सत्याचा बोध करवितात व असत्य रोखून उत्तम शिक्षण देतात तसे आपल्या संतानांना तुम्ही निरंतर चांगले शिक्षण द्या. ज्यामुळे तुमच्या कुळात कधी अयोग्य संतान निर्माण होणार नाही. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O man, when would you be like Indra, a protector, ruler, saviour and friend of the people? When, in order to help and protect the people, you would hear the voices of the lovers of light and knowledge who are keen to rise to divinity, when running to join the people you would reach their homes over the wide earth, and when you would raise your voice and inspire them in their yajnic task of love, cooperation and creation as the performer of yajna yourself.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men and women behave is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man, when wilt thou listen to the true words being active and unifier in the inviolable dealings of the protection of the people like a seeker after truth who protects men desirous of learning and listens to the refined and cultured Vedic Speech of those who have taken the juice of the principles of knowledge and wisdoms? When wilt thou be like a righteous king who dwelling in his mansion of justice, pervades (attracts) the people with humility.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[देवयताम्] = Of those who desire. [दिवु-क्रीडा विजिगीषु - कान्ति गतिषु ] = Here the meaning of if or desire has been taken. [अंगिरसाम् ] प्राप्तविद्यासिद्धान्तरसानाम् = Of wise men who have taken the juice of the principles of knowledge and wisdom. [हर्म्यस्य] न्याय-गृहस्य मध्ये = In the house of justice. [अध्वरे] अहिंसनीये प्रजापालनाख्ये व्यवहारे = In the inviolable dealing of the protection of the subjects. [यजत्रः] संगमकर्ता = Unifier.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is implied simile used in the Mantra. O husbands and wives! as absolutely truthful learned persons train all people well, teaching truth and keeping them away from falsehood, in the same manner, you should give good education to your own children and others, so that there may not remain any unworthy children in your family.
Translator's Notes
अंगिरसः इति पदनाम [निघ० ५.५] पद- गतौ गतेस्त्रयोऽर्थां: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Therefore Rishi Dayananda has interpreted it here as प्राप्त विद्यासिद्धान्त रसा: अगि-गतौ and following the Vedic Lexion Nighantu 5.5. हर्म्यम् इति गृहनाम [निध० ३-४] अत्र न्यायगृहस्य ग्रहणम् अध्वर is derived from ध्वरतिहिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः (निरुक्ते ७) so it has been taken here in the wide sense of inviolable dealing in the form of the protection of the people.
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