ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 1
प्र व॒: पान्तं॑ रघुमन्य॒वोऽन्धो॑ य॒ज्ञं रु॒द्राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ भरध्वम्। दि॒वो अ॑स्तो॒ष्यसु॑रस्य वी॒रैरि॑षु॒ध्येव॑ म॒रुतो॒ रोद॑स्योः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । पान्त॑म् । र॒घु॒ऽम॒न्य॒वः॒ । अन्धः॑ । य॒ज्ञम् । रु॒द्राय॑ । मी॒ळ्हुषे॑ । भ॒र॒ध्व॒म् । दि॒वः । अ॒स्तो॒षि॒ । असु॑रस्य । वी॒रैः । इ॒षु॒ध्याऽइ॑व । म॒रुतः॑ । रोद॑स्योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र व: पान्तं रघुमन्यवोऽन्धो यज्ञं रुद्राय मीळ्हुषे भरध्वम्। दिवो अस्तोष्यसुरस्य वीरैरिषुध्येव मरुतो रोदस्योः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। पान्तम्। रघुऽमन्यवः। अन्धः। यज्ञम्। रुद्राय। मीळ्हुषे। भरध्वम्। दिवः। अस्तोषि। असुरस्य। वीरैः। इषुध्याऽइव। मरुतः। रोदस्योः ॥ १.१२२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ सभापतिकार्यमुपदिश्यते ।
अन्वयः
हे रघुमन्यवो रोदस्योर्मरुतइव इषुध्येव वीरैः। सह वर्त्तमाना यूयं मीढुषे रुद्राय वः पान्तं यज्ञमन्धश्च दिवोऽसुरस्य सम्बन्धे वर्त्तमानान् यथा प्रभरध्वं तथाहमेतमस्तोषि ॥ १ ॥
पदार्थः
(प्र) प्रकृष्टे (वः) युष्मान् (पान्तम्) रक्षन्तम् (रघुमन्यवः) लघुक्रोधाः। अत्र वर्णव्यत्ययेन लस्य रः। (अन्धः) अन्नम् (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (रुद्राय) दुष्टानां रोदयित्रे (मीढुषे) सज्जनान् प्रति सुखसेचकाय (भरध्वम्) धरध्वम् (दिवः) विद्याप्रकाशान् (अस्तोषि) स्तौमि (असुरस्य) अविदुषः (वीरैः) (इषुध्येव) इषवो धीयन्ते यस्या तयेव (मरुतः) वायवः (रोदस्योः) भूमिसूर्ययोः ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यदा योग्यपुरुषैः सह प्रयत्यते तदा कठिनमपि कृत्यं सहजतया साद्धुं शक्यते ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब द्वितीय अष्टक के प्रथम अध्याय का आरम्भ है। उसमें एकसौ बाईसवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में सभापति के कार्य्य का उपदेश किया जाता है ।
पदार्थ
हे (रघुमन्यवः) थोड़े क्रोधवाले मनुष्यो ! (रोदस्योः) भूमि और सूर्य्यमण्डल में जैसे (मरुतः) पवन विद्यमान वैसे (इषुध्येव) जिसमें बाण धरे जाते उस धनुष से जैसे वैसे (वीरैः) वीर मनुष्यों के साथ वर्त्तमान तुम (मीढुषे) सज्जनों के प्रति सुखरूपी वृष्टि करने और (रुद्राय) दुष्टों को रुलानेहारे सभाध्यक्षादि के लिये (वः) तुम लोगों की (पान्तम्) रक्षा करते हुए (यज्ञम्) सङ्गम करने योग्य उत्तम व्यवहार और (अन्धः) अन्न को तथा (दिवः) विद्या प्रकाशों जो कि (असुरस्य) अविद्वान् के सम्बन्ध में वर्त्तमान उपदेश आदि उनको जैसे (प्र, भरध्वम्) धारण वा पुष्ट करो, वैसे मैं इस तुम्हारे व्यवहार की (अस्तोषि) स्तुति करता हूँ ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में पूर्णोपमा और वाचकलुप्तोपमा ये दोनों अलङ्कार हैं। जब मनुष्यों का योग्य पुरुषों के साथ अच्छा यत्न बनता है, तब कठिन भी काम सहज से सिद्ध कर सकते हैं ॥ १ ॥
विषय
रघुमन्यवः
पदार्थ
१. हे (रघुमन्यवः) = [रघु - रहतेर्गतिकर्मणः] गतिशील, खूब ही ज्ञान का व्यापन करनेवाली बुद्धिवालो ! अथवा [रघु - लघु, मन्यु - क्रोध] अल्पक्रोधवाले पुरुषो! [ज्ञानी क्रोध से ऊपर उठ ही जाता है] (वः पान्तम्) = तुम्हारा रक्षण करनेवाले (अन्धः) = सात्त्विक अन्न को तथा (यज्ञम्) = यज्ञ को (प्रभरध्वम्) = प्रकर्षेण अपने में भरनेवाले बनो । इस सात्त्विक अन्न व यज्ञशीलता को इसलिए अपने में धारण करो कि यह (रुद्राय) = रोगों को दूर करनेवाले उस प्रभु की प्राप्ति के लिए होंगे, जोकि (मीढुषे) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं । वस्तुतः 'रुद्र और मीठेवान्' शब्द सात्त्विक अन्न व यज्ञ के सेवन के लाभों का भी बड़े सुन्दर रूप में चित्रण कर रहे हैं । इनसे रोग दूर होते हैं और ये हम पर सुखों का वर्षण करते हैं । २. (वीरैः) - वीर पुरुषों से (इषुध्याः इव) = तरकश की भौति (दिवः) = ज्ञान का (असुरस्य) - प्राणशक्ति देनेवाले प्रभु का (मरुतः) = प्राणों का तथा (रोदस्योः) = द्यावापृथिवी का, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर का (अस्तोषि) = स्तवन किया जाता है । वीरों के लिए जो तरकश का महत्त्व है, वहीं इस अध्यात्म - साधना में ज्ञानादि का महत्त्व होता है । 'ज्ञान' वासना का विनाश करता है । प्रभु स्मरण कामदेव के भस्मीकरण के लिए आवश्यक है । प्राणसाधना से वासनाओं का विध्वंस उसी प्रकार होता है, जैसे कि पत्थर पर टकराकर मिट्टी के ढेले का । स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्कवाला पुरुष ही ठीक मार्ग पर चल पाता है, एवं ये सब हमारे लक्ष्य की प्राप्ति के साधन बनते हैं । हम प्रयत्न करके ज्ञानादि के आराधन में प्रवृत्त होंगे तो अवश्य विजयी बनेंगे । ज्ञानादि हमारे तीर होंगे जोकि निश्चितरूप से हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - हम रघुमन्यु बनकर सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए यज्ञशील बनें । हम वीर बनकर ज्ञान, उपासना व प्राणसाधना आदि को अपना तीर बनाकर वासनारूप शत्रुओं का विनाश करनेवाले हों ।
विषय
आचार्य का शिष्यों के प्रति कर्त्तव्य
भावार्थ
हे ( रघुमन्यवः ) स्वल्प क्रोधवालो, क्रोधरहित, या ज्ञान की तीव्र भावना वाले पुत्रो ! या शिष्यो ! ( वः ) तुम्हारे ( रुद्राय ) दुःखों दूर करने वाले (मीढुषे) और तुम पर सुखों की वर्षा करने वाले पिता या गुरु के प्रति, ( पान्तम् ) उनकी पालना करने वाले ( अन्धः ) अन्न आदि को तथा ( यज्ञम् ) उचित सत्कार को ( प्र भरध्वम् ) श्रद्धापूर्वक भेट रूप में लाया करो । ( रोदस्योः ) आकाश और पृथिवी के बीच ( असुरस्य ) सबको प्राण देने वाले ( दिवः ) सूर्य की ओर ( इषुध्या इव मरुतः ) जल वृष्टि धारक वायुओं के समान ( वीरैः ) वीर पुरुषों के साथ विद्यमान ( रोदस्योः ) विजिगीषु और शत्रु दोनों के बीच स्थित, ( असुरस्य ) वीर सेनापति के तुल्य माता पिता के बीच स्थित ( दिवः असुरस्य ) ज्ञान के देने वाले आचार्य के ( अस्तोष्यि ) गुणों का मैं वर्णन करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
राजा, प्रजा व साधारण माणसांच्या धर्माच्या वर्णनाने या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाबरोबर मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर साम्य आहे, हे जाणले पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात पूर्णोपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जेव्हा माणसांचा योग्य पुरुषांबरोबर चांगला जम बसतो तेव्हा कठीण कामही सहज सिद्ध होते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All ye men of high spirit, vibrant as the winds of earth and skies, along with the brave, ever ready like the archers of the bow and arrow, bear and offer nourishing holy food and yajna in honour of Rudra, generous lord of life and joy. Offer the light of knowledge to the ignorant suffering in the dark. And with you all I offer homage to the lord of heaven and earth and the skies.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the first Mantra, the duties of the President of the Assembly are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Mild tempered men, you who are like the winds between the sun and the earth, who are like the heroes with their shafts, present to the President of the Assembly who is giver of happiness to good persons and who causing the wicked to weep by meting out severe punishment and thus protects you, respect the food that is to be prepared by the Combination of various articles. Give light of knowledge to the ignorant. I also praise the virtuous President of the Assembly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रघुमन्यवः) लघुक्रोधा: = Men of little or no anger-Mild tempered. (अन्धः) ग्रन्नम् = Food. (यज्ञम्) संगतव्यम् = To be unified or prepared with the combination of. various articles. (दिव:) विद्याप्रकाशस्य = Of the light of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When with the help of able and competent persons, men attempt to do a thing, even the difficult task can be accomplished easily.
Translator's Notes
अन्ध इत्यन्ननाम (निघ० २.७) यज देव पूजा संगति करण दानेषु । दिवु -क्रीडा विजिगीषा व्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्न कान्ति गतिषु Here the meaning of द्युति or light has been taken.
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