ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पृ॒थू रथो॒ दक्षि॑णाया अयो॒ज्यैनं॑ दे॒वासो॑ अ॒मृता॑सो अस्थुः। कृ॒ष्णादुद॑स्थाद॒र्या॒३॒॑ विहा॑या॒श्चिकि॑त्सन्ती॒ मानु॑षाय॒ क्षया॑य ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थुः । रथः॑ । दक्षि॑णायाः । अ॒यो॒जि॒ । आ । एन॑म् । दे॒वासः॑ । अ॒मृता॑सः । अ॒स्थुः॒ । कृ॒ष्णात् । उत् । अ॒स्था॒त् । अ॒र्या॑ । विऽहा॑याः । चिकि॑त्सन्ती । मानु॑षाय । क्षया॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथू रथो दक्षिणाया अयोज्यैनं देवासो अमृतासो अस्थुः। कृष्णादुदस्थादर्या३ विहायाश्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय ॥
स्वर रहित पद पाठपृथुः। रथः। दक्षिणायाः। अयोजि। आ। एनम्। देवासः। अमृतासः। अस्थुः। कृष्णात्। उत्। अस्थात्। अर्या। विऽहायाः। चिकित्सन्ती। मानुषाय। क्षयाय ॥ १.१२३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ दम्पत्योर्विषयमाह ।
अन्वयः
या मानुषाय क्षयाय चिकित्सन्ती विहाया अर्या उषाः कृष्णादुदस्थादिव विदुषाऽयोजि सा चैनं पतिं च युनक्ति ययोर्दक्षिणायाः पृथूरथश्चरति तावमृतासो देवास आऽस्थुः ॥ १ ॥
पदार्थः
(पृथुः) विस्तीर्णः (रथः) वाहनम् (दक्षिणायाः) दिशः (अयोजि) युज्यते (आ) (एनम्) (देवासः) दिव्यगुणाः (अमृतासः) मरणधर्मरहिताः (अस्थुः) तिष्ठन्तु (कृष्णात्) अन्धकारात् (उत्) (अस्थात्) ऊर्ध्वमुदेति (अर्या) वैश्यकन्या (विहायाः) महती (चिकित्सन्ती) चिकित्सां कुर्वती (मानुषाय) मनुष्याणामस्मै (क्षयाय) गृहाय ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या उषर्गुणा स्त्री चन्द्रगुणश्च पुमान् भवेत् तयोर्विवाहे जाते सततं सुखं भवति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब १२३ एकसौ तेईसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में स्त्री-पुरुष के विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
जो (मानुषाय) मनुष्यों के इस (क्षयाय) घर के लिए (चिकित्सन्ती) रोगों को दूर करती हुई (विहायः) बड़ी प्रशंसित (अर्या) वैश्य की कन्या जैसे प्रातःकाल की वेला (कृष्णात्) अंधेरे से (उदस्थात्) ऊपर को उठती उदय करती है, वैसे विद्वान् ने (अयोजि) संयुक्त की अर्थात् अपने सङ्ग ली और वह (एनम्) इस विद्वान् को पतिभाव से युक्त करती अपना पति मानती तथा जिन स्त्री- पुरुषों का (दक्षिणायाः) दक्षिण दिशा से (पृथुः) विस्तारयुक्त (रथः) रथ चलता है, उनको (अमृतासः) विनाशरहित (देवासः) अच्छे-अच्छे गुण (आ, अस्थुः) उपस्थित होते हैं ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रातःसमय की वेला के गुणयुक्त अर्थात् शीतल स्वभाववाली स्त्री और चन्द्रमा के समान शीतल गुणवाला पुरुष हो, उनका परस्पर विवाह हो तो निरन्तर सुख होता है ॥ १ ॥
विषय
१. (दक्षिणायाः) = दोषों के दहनरूप अपने व्यापार में कुशल अथवा [दक्ष - to grow] उन्नति की कारणभूत उषा का (पृथुः) = विस्तृत (रथः) = रथ (अयोजि) = जोता गया है । (एनम्) = इस रथ पर (देवासः) = देव व (अमृतासः) = अमृत पुरुष (आ अस्थुः) = सब प्रकार से आरूढ़ होते हैं । इस रथ पर जो भी आरूढ़ होते हैं, वे देव व अमृत बनते हैं । मस्तिष्क में दीसिमय [दीपनात्] व मन में त्यागवृत्ति से युक्त [दानात्] पुरुष ही देव हैं । शरीर में रोगों से आक्रान्त न होनेवाले ही अमृत हैं । उषाकाल के आने से पूर्व ही जाग जानेवाले तथा उषाकाल के आने पर दैनिक कार्यक्रम के लिए समुद्यत हो जानेवाले पुरुष ही उषा के रथ पर आरूढ़ होते हैं । इस समय से पूर्व जाग जानेवाले ये पुरुष अपने शरीर - रथ को विस्तृत शक्तियोंवाला बना पाते हैं । २. यह (अर्या) = सब सुखों की स्वामिनी उषा (विहायाः) = विशिष्ट गतिवाली है अथवा महान् है [विहायः यहः महान्] (कृष्णात्) = कृष्ण वर्णवाले अन्धकार से (उद् अस्थात्) = ऊपर उठती है और (मानुषाय) = मनुष्य सम्बन्धी (क्षयाय) = [क्षि निवासगत्योः] उत्तम निवास व गति के लिए (चिकित्सन्ती) = सब रोगों व मलों का अपनयन करती है । उषाकाल में जागकर अपना शोधन, स्नान, सन्ध्या, हवन व स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति अपने जीवन को उत्तम बनाते हैं । उषा सब दोषों का दहन करके जीवन को सुन्दर बना देती है ।
पदार्थ
भावार्थ - उषाकाल से पूर्व ही जागनेवाले बनकर हम 'देव व अमृत' बनें ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू का आदर और उसके तथा गृहपत्नियों के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
(दक्षिणायाः) यज्ञ में दाये भाग में विराजने वाली वधू का ( पृथुः रथः ) विशाल रथ (अयोजि) जोड़ा जावे । और उसमें ( अमृतासः ) कभी नाश न होने वाले ( देवासः ) प्रकाशमान, दीप्तियुक्त रत्न ( अस्थुः ) लगाये जावें ( अर्या ) गृहकी स्वामिनी नव वधू (कृष्णात्) वियोग से शोकातुर होते हुए पितृगृह से ( मानुषाय क्षयाय ) अपने पतिसम्बन्धी ग्रहों के प्राप्त होने के लिये अपना मनोरथ करती हुई (विहायाः) विशेष आदर युक्त होकर (उत् अस्थात् ) उस रथ पर चढ़े ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात प्रभातवेळेच्या दृष्टान्ताबरोबर स्त्रियांच्या धर्माचे वर्णन करण्याने या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी प्रातःकाळच्या वेळेसारखी (उषेसारखी) अर्थात शीतल स्वभावाची स्त्री व चंद्रासारखा शीतल गुणाचा पुरुष असेल तर त्यांचा परस्पर विवाह झाला तर सदैव सुख मिळते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The great and wide chariot of the glorious dawn is ready, which the divine immortal powers of nature would ride. The great noble maiden is arisen from the dark, radiating health and freedom from disease for human settlements.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the husband and wife are told in the hymn.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A noble lady great on account of her virtues and healing the diseases and bringing health to human beings while living at home, queen of the house rises, above darkness (of ignorance) like the Dawn as yoked in the Chariot of the house hold life by her learned husband and she yokes him for co-operation. Her spacious chariot has been harnessed from the southern direction or right-side and great scholars who regard themselves, as immortal (owing to the immortality of their soul) and who are endowed with Divine virtues ascend it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विहायाः) महती = Great. (क्षयाय) गृहाय = For the home. (चिकित्सन्ती) चिकित्सां कुर्वती = Healing diseases and bringing health.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When a bride is like the Dawn and bride-groom is like the moon, their marriage brings about much happiness.
Translator's Notes
विहाया इति महन्नाम (निघ० ३.३ ) = Great. (क्षयाय) गृहाय-क्षि-निवासगत्योः अत्र निवासार्थग्र हणाद् गुहार्थ: चिकित्संती = Healing diseases and bringing health. While Rishi Dayananda Sarasvati takes it literally and interprets it merely as चिकित्सां कुर्वती meaning thereby that a learned lady must be well-versed in the science of healing, Shri Sanacharya takes it allegorically as चिकित्सन्ती-अन्धकार निवारणरूपां चिकित्सां कुर्वती-तमोनिवारयन्तीत्यर्थः = Dispelling darkness चिकित्सती is from कित-निवासे रोगापनयने च By the illustration of the Usha (Dawn) and moon, the marriage of the parties of suitable mild temperament is indicated as interpreted by Sayanacharya. The word दक्षिणा has been interpreted as प्रवृद्धा स्वव्यापार कुशला = Progressive and expert in her work. It is derived from दक्षा-वृद्धो शीघ्रार्थेव (भ्वा) |
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal