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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 124/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः औशिजः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒षा उ॒च्छन्ती॑ समिधा॒ने अ॒ग्ना उ॒द्यन्त्सूर्य॑ उर्वि॒या ज्योति॑रश्रेत्। दे॒वो नो॒ अत्र॑ सवि॒ता न्वर्थं॒ प्रासा॑वीद्द्वि॒पत्प्र चतु॑ष्पदि॒त्यै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒षाः । उ॒च्छन्ती॑ । स॒म्ऽइध॒ा॒ने । अ॒ग्नौ । उ॒त्ऽयन् । सूर्यः॑ । उ॒र्वि॒या । ज्योतिः॑ । अ॒श्रे॒त् । दे॒वः । नः॒ । अत्र॑ । स॒वि॒ता । नु । अर्थ॑म् । प्र । अ॒सा॒वी॒त् । द्वि॒ऽपत् । प्र । चतुः॑ऽपत् । इ॒त्यै ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषा उच्छन्ती समिधाने अग्ना उद्यन्त्सूर्य उर्विया ज्योतिरश्रेत्। देवो नो अत्र सविता न्वर्थं प्रासावीद्द्विपत्प्र चतुष्पदित्यै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषाः। उच्छन्ती। सम्ऽइधाने। अग्नौ। उत्ऽयन्। सूर्यः। उर्विया। ज्योतिः। अश्रेत्। देवः। नः। अत्र। सविता। नु। अर्थम्। प्र। असावीत्। द्विऽपत्। प्र। चतुःऽपत्। इत्यै ॥ १.१२४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 124; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यलोकविषयमाह ।

    अन्वयः

    यदा समिधानेऽग्नौ सूर्य्य उद्यन्सन्नुर्विया सह ज्योतिरश्रेत्तदोच्छन्त्युषा जायते। एवमत्र सविता देवो नोऽर्थमित्यै प्रासावीत् द्विपच्चतुष्पच्च नु प्रासावीत् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (उषाः) (उच्छन्ती) अन्धकारं निस्सारयन्ती (समिधाने) प्रदीप्ते (अग्नौ) पावके (उद्यन्) उदयं प्राप्नुवत् (सूर्य्यः) सविता (उर्विया) पृथिव्या। उर्वीति पृथिवीना०। निघं० १। १। (ज्योतिः) प्रकाशः (अश्रेत्) श्रयति (देवः) दिव्यप्रकाशः (नः) अस्माकम् (अत्र) जगति (सविता) कर्म्मसु प्रेरकः (नु) शीघ्रम् (अर्थम्) प्रयोजनम् (प्र) (असावीत्) सुनोति (द्विपत्) द्वौ पादौ यस्य तत् (प्र) (चतुष्पत्) (इत्यै) प्रापयितुम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    पृथिव्या सूर्य्यकिरणैः सह संयोगो जायते स एव तिर्य्यग्गतः सन्नुषसः कारणं भवति यदि सूर्य्यो न स्यात्तर्हि विविधरूपाणि द्रव्याणि पृथक् पृथक् द्रष्टुमशक्यानि स्युः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तेरह ऋचावाले एकसौ चौबीसवें १२४ सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्यलोक के विषय का वर्णन किया है ।

    पदार्थ

    जब (समिधाने) जलते हुए (अग्नौ) अग्नि का निमित्त (सूर्यः) सूर्यमण्डल (उद्यत्) उदय होता हुआ (उर्विया) पृथिवी के साथ (ज्योतिः) प्रकाश को (अश्रेत्) मिलाता तब (उच्छन्ती) अन्धकार को निकालती हुई (उषाः) प्रातःकाल की वेला उत्पन्न होती है। ऐसे (अत्र) इस संसार में (सविता) कामों में प्रेरणा देनेवाला (देवः) उत्तम प्रकाशयुक्त उक्त सूर्यमण्डल (नः) हम लोगों को (अर्थम्) प्रयोजन को (इत्यै) प्राप्त कराने के लिये (प्रासावीत्) सारांश को उत्पन्न करता तथा (द्विपत्) दो पगवाले मनुष्य आदि वा (चतुष्पत्) चार पगवाले चौपाये पशु आदि प्राणियों को (नु) शीघ्र (प्र) उत्तमता से उत्पन्न करता है ॥ १ ॥

    भावार्थ

    पृथिवी का सूर्य की किरणों के साथ संयोग होता है, वही संयोग तिरछा जाता हुआ प्रभात समय के होने का कारण होता है, जो सूर्य न हो तो अनेक प्रकार के पदार्थ अलग-अलग देखे नहीं जा सकते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    क्रियाशीलता

    पदार्थ

    १. (उषा उच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती हुई उषा (नु) = अब (अग्नौ समिधाने) = अग्नियों के समिद्ध किये जाने पर, अर्थात् सज्जनों के अग्निहोत्रादि क्रियाओं में प्रवृत्त होने पर (उद्यन् सूर्यः) = उदय होता हुआ यह सूर्य उर्विया अत्यन्त विस्तार के साथ (ज्योतिः अश्रेत्) = प्रकाश का आश्रय करता है, चारों और ज्योति-ही-ज्योति का प्रसार हो जाता है । २. यह उदित हुआ हुआ (सविता देवः) = सबको कर्मों में प्रेरित करनेवाला दीप्यमान सूर्य (नः) = हमारे लिए (अत्र) = इस जीवन में अर्थ (प्रासावीत्) = धन उत्पन्न करे । अपनी प्रेरणा से हमें कर्मों में प्रवृत्त करके सब वाञ्छनीय वस्तुओं का [अर्थम्] देनेवाला हो । ३. इस सूर्य के उदित होने पर (द्विपत् चतुष्पत्) = सब पक्षी व पशु (प्र इत्यै) = प्रकर्षेण गति के लिए होते हैं । प्रभु - प्रदत्त वासना के अनुसार ये सूर्यप्रकाश में सदा गतिमय बने रहते हैं । सूर्य निकला और ये कर्मों में प्रवृत्त हुए । इसी प्रकार हमें भी सूर्योदय के साथ ही कर्मों में प्रवृत्त हो जाना चाहिए और पुरुषार्थ के द्वारा अर्थों का उत्पादन करना चाहिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्योदय के साथ ही हम क्रियाशील बनें और अर्थों को सिद्ध करनेवाले हों ।

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से युवती कन्या तथा युवा पुरुष को गृहस्थ प्रवेश का उपदेश, और उनके गृहस्थोचित कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( उच्छन्ती उषा ) अन्धकार दूर करती हुईं उषा, प्रभातवेला ( अग्नौ समिधाने ) अतिप्रदीप्त होते हुए सूर्यरूप अग्नि के आश्रम पर ( उर्विया ज्योतिः अत् ) बहुत अधिक प्रकाश को प्राप्त करती है, या महान् ज्योतिर्मय सूर्य का आश्रय लेती है । और ( उद् यन् ) उदय को प्राप्त होता हुआ ( सूर्यः ) सबका प्रेरक और प्रकाशक सूर्य भी ( उर्विया ) उस विशाल पृथ्वी, या अपने, या उषाके साथ ही ( ज्योतिः अश्रेत् ) परम तेज को प्राप्त करता है । उसी प्रकार ( समिधाने अग्नौ ) अग्नि के प्रदीप्त होने पर ( उषा ) पतिकी कामना करने हारी, कान्तिमती कन्या ( उच्छन्ती ) अपने गुणों का प्रकाश करती हुई ( उर्विया ज्योतिः अश्रेत् ) बड़े भारी ज्योति, प्रकाश या शोभा, या ज्ञानवान् पुरुष का आश्रय ले। और इसी प्रकार ( उद् यन् सूर्यः ) उदित होते हुए सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ( उर्विया ज्योतिः अश्रेत् ) ज्ञानाग्नि के प्रदीप्त होने पर बड़ी कान्तिमती पृथ्वीरूप स्त्रीका आश्रय ले । ( अत्र ) इसी गृहस्थाश्रम कार्य में ( सविता देवः ) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक परमेश्वर ( नु ) शीघ्र ( नः अर्थं ) हमें इष्ट प्रयोजन और ( इत्यै ) इष्ट प्राप्ति या जाने आने के लिये ( द्विपत् चतुष्पत् ) दोपाये, चौपाये, भृत्यादि और पशु धन को भी ( प्र असावीत् ) प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ उषो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७, ११ त्रिष्टुप् । १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ पङ्क्तिः । ८ विराट् पङ्क्तिश्च ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात उषेच्या दृष्टान्ताद्वारे स्त्रियांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    पृथ्वीचा सूर्याच्या किरणांबरोबर संयोग होतो. तोच संयोग वक्र होत प्रभात वेळ होण्याचे कारण असते. जर सूर्य नसता तर अनेक प्रकारचे पदार्थ वेगवेगळे पाहता आले नसते. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The dawn is breaking, the fire is burning, the sun is rising, and light is radiating over heaven and earth. May Savita, lord giver of light and life, inspire the humans and animals to move to activity and create new wealth and new meaning and purpose in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the solar world are taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When the sun rising up gives light, coming in contact with the earth while the fire is kindled, then the Usha ( Dawn ) is born, dispersing darkness. Then the Sun that is the impeller of good acts and possessor of divine light enables all bipeds and quadrupeds to accomplish their various tasks in the light of the day.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उच्छन्ती) प्रन्धकारं निस्सारयन्ती Dispersing all darkness. (उविया) पृथिव्या | उर्वोति पृथिवीनाम (निघ० १.१ ) With the earth. ( सविता) कर्मसु प्रेरकः ( अर्थम्) Purpose. Impeller of works. ( इत्ये) प्रापयितुम् = To obtain or accomplish.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The contact of the rays of the sun with the earth is the cause of the Ushas or Dawn. If there was no sun, the objects of various forms.

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