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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 125 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - दम्पती छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रा॒ता रत्नं॑ प्रात॒रित्वा॑ दधाति॒ तं चि॑कि॒त्वान्प्र॑ति॒गृह्या॒ नि ध॑त्ते। तेन॑ प्र॒जां व॒र्धय॑मान॒ आयू॑ रा॒यस्पोषे॑ण सचते सु॒वीर॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒त्रिति॑ । रत्न॑म् । प्रा॒तः॒ऽइत्वा॑ । द॒धा॒ति॒ । तम् । चि॒कि॒त्वान् । प्र॒ति॒ऽगृह्य॑ । नि । ध॒त्ते॒ । तेन॑ । प्र॒जाम् । व॒र्धय॑मानः । आयुः॑ । रा॒यः । पोषे॑ण । स॒च॒ते॒ । सु॒ऽवीरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राता रत्नं प्रातरित्वा दधाति तं चिकित्वान्प्रतिगृह्या नि धत्ते। तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचते सुवीर: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातरिति। रत्नम्। प्रातःऽइत्वा। दधाति। तम्। चिकित्वान्। प्रतिऽगृह्य। नि। धत्ते। तेन। प्रजाम्। वर्धयमानः। आयुः। रायः। पोषेण। सचते। सुऽवीरः ॥ १.१२५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कोऽत्र धन्यवादार्हो भूत्वाऽखिलसुखानि प्राप्नुयादित्याह ।

    अन्वयः

    यश्चिकित्वान्प्रातरित्वा सुवीरो मनुष्यः प्राता रत्नं दधाति प्रतिगृह्य तं निधत्ते तेन रायस्पोषेण प्रजामायुश्च वर्द्धयमानः सचते स सततं सुखी भवति ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (प्रातः) प्रभाते (रत्नम्) रम्यानन्दं वस्तु (प्रातरित्वा) यः प्रातरेव जागरणमेति सः। अत्र प्रातरुपपदादिण् धातोः क्वनिप्। (दधाति) (तम्) (चिकित्वान्) विज्ञानवान् (प्रतिगृह्य) दत्वा गृहीत्वा च। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नि) (धत्ते) नित्यं धरति (तेन) (प्रजाम्) पुत्रपौत्रादिकाम् (वर्द्धयमानः) विद्यासुशिक्षयोन्नयमानः (आयुः) जीवनम् (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (सचते) समवैति (सुवीरः) शोभनश्चासौ वीरश्च सः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    य आलस्यं विहाय धर्म्येण व्यवहारेण धनं प्राप्य संरक्ष्य भुक्त्वा भोजयित्वा दत्वा गृहीत्वा च सततं प्रयतेत स सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयात् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सात ऋचावाले १२५ एकसौ पच्चीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार में कौन धन्यवाद के योग्य होकर सब सुखों को प्राप्त हो, इस विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    जो (चिकित्वान्) विशेष ज्ञानवान् (प्रातरित्वा) प्रातःकाल में जागनेवाला (सुवीरः) सुन्दर वीर मनुष्य (प्रातः रत्नम्) प्रभात समय में रमण करने योग्य आनन्दमय पदार्थ को (दधाति) धारण करता और (प्रतिगृह्य) दे, लेकर फिर (तम्) उसको (नि, धत्ते) नित्य धारण वा (तेन) उस (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि से (प्रजाम्) पुत्र-पौत्र आदि सन्तान और (आयुः) आयुर्दा को (वर्द्धयमानः) विद्या और उत्तम शिक्षा से बढ़ाता हुआ (सचते) उसका सम्बन्ध करता है, वह निरन्तर सुखी होता है ॥ १ ॥

    भावार्थ

    जो आलस्य को छोड़ धर्म सम्बन्धी व्यवहार से धन को पा उसकी रक्षा उसका स्वयं भोग कर दूसरों को भोग करा और दे-ले कर निरन्तर उत्तम यत्न करे, वह सब सुखों को प्राप्त होवे ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रातरित्वा

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत सूक्त का देवता 'दम्पती' पति - पत्नी हैं । जो भी पति - पत्नी (प्रातः इत्वा) = बहुत जल्दी उठकर क्रियाशील जीवन आरम्भ करते हैं, आलस्य को परे फेंककर अपने कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होते हैं, वे (प्रातः) = इस प्रातःकाल में (रत्नम्) = रमणीय वस्तुओं को (दधाति) = धारण करते हैं । २. (तं चिकित्वान्) = इन रमणीय वस्तुओं के महत्त्व को समझता हुआ व्यक्ति उन वस्तुओं को (आ प्रतिगृह्य) = एक-एक करके ग्रहण करता हुआ (निधत्ते) = अपने जीवन में पूर्णरूपेण स्थापित करता है । उषा के द्वारा प्राप्त कराये गये स्वास्थ्य को शरीर में धारण करता है तो प्रकाश को मस्तिष्क में । २. (तेन) = इन रमणीय वस्तुओं के द्वारा (प्रजां वर्धयमानः) = अपनी सन्तानों का भी बर्धन करता हुआ (आयुः) = अपने जीवन को (रायस्पोषेण सचते) = धन के पोषण से समवेत करता है और (सुवीरः) = उत्तम वीर बनता है । वीर बनकर ही तो वह प्रभु को प्राप्त करेगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रातः प्रबुद्ध होकर क्रियाशील रहनेवाला व्यक्ति स्वास्थ्य व ज्ञान के प्रकाशरूप रमणीय वस्तुओं को प्राप्त करता है । इससे जहाँ यह अपनी सन्तानों को उत्तम बना पाता है वहाँ दीर्घ जीवन व सम्पत्ति को प्राप्त करता हुआ वीर बनता है ।

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    विषय

    आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (प्रातर-इत्वा) प्रभात कालमें जागने वाले ( प्रातः ) प्रभातवेला में ही (रत्नम्) उत्तम रमण करने योग्य श्रेष्ठ पदार्थ को, धन ऐश्वर्य के रत्न के समान ( दधाति ) धारण करे । अर्थात्, जीवन के प्रारम्भ भाग, कौमार दश में ही गुरु के समीप आकर मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ काल २५ वर्ष तक न्यून से न्यून ( रत्नं ) जीवन में आनन्द देने, रमण करने योग्य बल वीर्य, और ज्ञान को धारण करे। उसको पुष्ट कर ब्रह्मचर्य का पालन करे। ( चिकित्वान् ) ज्ञानवान् विद्वान् होकर ( तं प्रतिगृह्य ) उसको ग्रहण करके ( निधत्ते ) निषेक द्वारा धारण करावे ( तेन ) उससे ही वह ( सुवीरः ) उत्तम वीर्यवान् पुरुष ( प्रजां ) प्रजा, सन्तति को ( वर्धयमानः ) बढ़ाता हुआ और ( तेन ) उसी ( रायः पोषेण ) ऐश्वर्य सुख सौभाग्य की वृद्धि और पुष्टि से ( आयुः ) दीर्घ जीवन को बढ़ाता हुआ ( सचते ) सन्तति और दीर्घ जीवन के आश्रय पर जम कर, स्थायी होकर रहने में समर्थ होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात धर्मानुकूल आचरणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    जो आळस सोडून धर्मासंबंधी व्यवहार करून धन प्राप्त करून त्याचे रक्षण करतो. स्वतः त्याचा भोग घेतो व इतरांनाही करवितो. निरंतर देणे-घेणे करून उत्तम प्रयत्न करतो त्याला सर्व सुख मिळते. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The morning bears and brings the jewels of wealth for us. That wealth, the man of knowledge and wisdom, rising early, receives, and having received keeps safe. And by that, this brave man, growing and advancing in health and age and progeny, lives well with wealth, nourishment and comfort.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who deserves thanks and enjoys all happiness is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The learned hero who is in the habit of getting up early in the morning, enjoys and maintains bliss in the morning (by meditation on God) and having acquired the enjoyable knowledge, he preserves it well. By the augmentation of that precious wealth of knowledge and wisdom, he increases his life and progeny by imparting good education and teachings. By so doing, he remains always happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रत्नम) रम्यानन्दं वस्तु = That which gives bliss and delight-knowledge and meditation etc. (चिकित्वान्) विज्ञानवान् = Learned person.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The man who gives up all laziness and by righteous dealing, acquires wealth, preserves it, utilizes it properly for “ himself and for others, enjoys happiness.

    Translator's Notes

    रत्नम् is from रमु-क्रीड़ायाम् रमेस्त च (उणादिसूत्रम् ३.१४) इतिरमेव प्रत्ययो मस्य तश्च । किती संज्ञा ने । कोऽत्र धर्मात्मा यशस्वी जायत इत्याह ।

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