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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - विद्वाँसः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अम॑न्दा॒न्त्स्तोमा॒न्प्र भ॑रे मनी॒षा सिन्धा॒वधि॑ क्षिय॒तो भा॒व्यस्य॑। यो मे॑ स॒हस्र॒ममि॑मीत स॒वान॒तूर्तो॒ राजा॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अम॑न्दान् । सोमा॑न् । प्र । भ॒रे॒ । म॒नी॒षा सिन्धौ॑ । अधि॑ । क्षि॒य॒तः । भा॒व्यस्य॑ । यः । मे॒ । स॒हस्र॑म् । अमि॑मीत । स॒वान् । अ॒तूर्तः॑ । राजा॑ । श्रवः॑ । इ॒च्छमा॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमन्दान्त्स्तोमान्प्र भरे मनीषा सिन्धावधि क्षियतो भाव्यस्य। यो मे सहस्रममिमीत सवानतूर्तो राजा श्रव इच्छमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमन्दान्। स्तोमान्। प्र। भरे। मनीषा सिन्धौ। अधि। क्षियतः। भाव्यस्य। यः। मे। सहस्रम्। अमिमीत। सवान्। अतूर्तः। राजा। श्रवः। इच्छमानः ॥ १.१२६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 126; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कोऽत्र राज्याधिकारे न स्थापनीय इत्याह ।

    अन्वयः

    योऽतूर्त्तः श्रव इच्छमानो राजा सिन्धौ क्षियतो भाव्यस्य मे सकाशात् सहस्रं सवानमन्दान् स्तोमांश्च मनीषाऽमिमीत तमहमधिप्रभरे ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (अमन्दान्) मन्दभावरहितान् तीव्रान् (स्तोमान्) स्तोतुमर्हान् विद्याविशेषान् (प्र) (भरे) धरे (मनीषा) बुद्ध्या (सिन्धौ) नद्याः समीपे (अधि) स्वीयचित्ते (क्षियतः) निवसतः (भाव्यस्य) भवितुं योग्यस्य (यः) (मे) मम (सहस्रम्) (अमिमीत) निमिमीते (सवान्) ऐश्वर्ययोग्यान् (अतूर्त्तः) अहिंसितः (राजा) (श्रवः) श्रवणम् (इच्छमानः) व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    यावदाप्तस्य विदुष आज्ञया पुरुषार्थी विद्वान् नरो न भवेत्तावत्तस्य राज्याधिकारे स्थापनं न कुर्यात् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सात ऋचावाले १२६ एकसौ छब्बीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार के राज्य के अधिकार में कौन न स्थापन करने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (अतूर्त्तः) हिंसा आदि के दुःख को न प्राप्त और (श्रवः) उत्तम उपदेश सुनने की (इच्छमानः) इच्छा करता हुआ (राजा) प्रकाशमान सभाध्यक्ष (सिन्धौ) नदी के समीप (क्षियतः) निरन्तर वसते हुए, (भाव्यस्य) प्रसिद्ध होने योग्य (मे) मेरे निकट (सहस्रम्) हजारों (सवान्) ऐश्वर्य योग्य (अमन्दान्) मन्दपनरहित तीव्र और (स्तोमान्) प्रशंसा करने योग्य विद्यासम्बन्धी विशेष ज्ञानों का (मनीषा) बुद्धि से (अमिमीत) निरन्तर मान करता, उसको मैं (अधि) अपने मन के बीच (प्र, भरे) अच्छे प्रकार धारण करूँ ॥ १ ॥

    भावार्थ

    जब तक सकल शास्त्र जाननेहारे विद्वान् की आज्ञा से पुरुषार्थी विद्वान् न हो, तब तक उसका राज्य के अधिकार में स्थापन न करे ॥ १ ॥

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    विषय

    'अहिंसित, दीप्त, यशस्वी' जीवन

    पदार्थ

    १. कक्षीवान् [जीवन में उन्नति के लिए दृढ़निश्चयवाला पुरुष] व्रत लेता है कि मैं (सिन्धौ) = हृदय-देश में, मानस [सरोवर] में (अधिक्षियतः) = अधिष्ठातृरूपेण निवास करते हुए (भाव्यस्य) = [सर्वत्र भवतीति भाव्यः] सर्वव्यापक प्रभु को (अमन्दान्) = कालक्रम में शिथिल न पड़नेवाले, सर्वदा एकरूप में चलनेवाले (स्तोमान्) = स्तुतिसमूहों को (प्रभरे) = प्रकर्षेण धारण करता हूँ । सदा प्रभु का स्तवन करता है, इसमें शैथिल्य नहीं आने देता । मेरा यह स्तवन (मनीषा) = बुद्धिपूर्वक होता है । 'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मैं प्रभु के नाम का जप अर्थ - चिन्तनपूर्वक करता हूँ । यह जप यान्त्रिक - सा नहीं हो जाता । २. यहाँ हदय को सिन्धु कहा है, जैसे सिन्धु जलों का महान् आशय है, उसी प्रकार यह हृदय भी सम्पूर्ण रुधिर का आशय है । 'मानसरोवर में हँस तैरता है' इसका भाव भी यही है कि हृदय में उस आत्मा का निवास है । 'अत गतौ' से आत्मा शब्द बनता है और 'हन सातत्यगमने' से हंस । इस प्रकार आत्मा व हंस पर्यायवाची हैं । हृदय उस सर्वव्यापक प्रभु का सर्वोत्कृष्ट निवास स्थान है, क्योंकि यहाँ 'आत्मा और परमात्मा' दोनों का निवास होने से आत्मा परमात्मा' का दर्शन करता है । ३. ये हृदयस्थ प्रभु वे हैं, (यः) = जो (मे) = मेरे (सहस्रम्) = हजारों (सवान्) = यज्ञों को (अमिमीत) = निर्मित करते हैं, सिद्ध करते हैं । प्रभुकृपा से ही तो सब यज्ञपूर्ण होते हैं । हमारे सब यज्ञ उस प्रभु की कृपा से पूर्ण होते हैं'–यह भावना हमें उन यज्ञों के अहंकार से ऊपर उठाती है । ४. वे प्रभु (अतूर्तः) = अहिंसित हैं । उन्हें कोई भी विहत नहीं कर सकता । प्रभु मेरे साथ होते हैं तो मेरे सब कार्य निर्विघ्नता से पूर्ण होते हैं । (राजा) = वे प्रभु शासक हैं, उन्हीं के शासन में यह सम्पूर्ण विश्व चलता है । (श्रवः इच्छमानः) = वे प्रभु सदा मेरे यश को चाहते हैं, मेरे जीवन को यशस्वी बनाते हैं । पिता पुत्र के यश को चाहता ही है । प्रभु के समीप होने से मेरा जीवन वासनाओं से अहिंसित [अतूर्त] दीस [राजा] व यशस्वी [श्रवः] बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का निरन्तर स्तवन मेरे जीवन को यज्ञमय बनाता है । इस स्तवन के कारण मैं वासनाओं से हिंसित नहीं होता, दीप्त जीवनवाला बनता हूँ और यशस्वी होता हूँ ।

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    विषय

    वीरों के दृष्टान्तों से जितेन्द्रियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( राजा ) राजा के समान ऐश्वर्यवान् होकर ( श्रवः इच्छमानः ) ऐश्वर्य के समान यश और वेदज्ञानोपदेश को श्रवण करने की इच्छा करता हुआ ( मे ) मुझको ( सहस्रं सवान् ) सहस्रों ऐश्वर्य (अमिमीत ) प्रदान करता है उस ( सिन्धौ ) सिन्धु के समान अतिगम्भीर आत्मा, या कामवेग के ( अधि क्षियतः ) ऊपर अधिकार करके, वशी होकर रहने वाले ( भाव्यस्य ) पुत्रोत्पादन में समर्थ, एवं प्रचुर सम्पत्ति के स्वामी और प्रभु परमेश्वर की ( अममन्दान् स्तोमान् ) अति उज्ज्वल, प्रकाशमान स्तुतियों को ( प्र भरे ) अच्छी प्रकार धारण करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—५ कक्षीवान् । ६ भावयव्यः । ७ रोमशा ब्रह्मवादिनी चर्षिः विद्वांसो देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७ अनुष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजाच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाचे मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर साम्य आहे. हे जाणले पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    जोपर्यंत संपूर्ण शास्त्र जाणणाऱ्या विद्वानाच्या आज्ञेने जो पुरुषार्थी विद्वान बनणार नाही तोपर्यंत त्याला राज्याचा अधिकार देऊ नये. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With honest mind and a clear conscience, I offer enthusiastic tributes of praise and approbation for the deserving ruler who, dedicated to honour and fame, has performed a thousand yajnic acts of generosity for me and the people on the river side without violence and opposition.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should not be appointed for an administrative post is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I admire willingly a mighty king who on account of his power cannot be subdued, who desirous of renown or of hearing the teachings of the Vedas, has enabled me-dwelling on the banks of a river and trying to be an ideal person, to diffuse the knowledge of praise-worthy sciences which make a man fit to earn much wealth with the help of keen intellect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (स्तोमान्) स्तोतुमर्हान् विद्याविशेषान् = Praise-worthy particular sciences. (सिन्धोः) नद्या: = Of the river. (सवान्) ऐश्वर्ययोग्यान् = Enabling a man to earn wealth. (भाव्यस्य ) भवितुं योग्यस्य = Worthy to be or trying to be an ideal person.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Unless a man becomes industrious and learned, obeying the commands of an absolutely truthful scholar, he should not be appointed as an administrative officer.

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