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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अ॒ग्निं होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसुं॑ सू॒नुं सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। य ऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॒ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒जुह्वा॑नस्य स॒र्पिष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । होता॑रम् । म॒न्ये॒ । दास्व॑न्तम् । वसु॑म् । सू॒नुम् । सह॑सः । जा॒तऽवे॑दसम् । विप्र॑म् । न । जा॒तऽवे॑दसम् । यः । ऊ॒र्ध्वया॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः । दे॒वः । दे॒वाच्या॑ । कृ॒पा । घृ॒तस्य॑ । विऽभ्रा॑ष्टिम् । अनु॑ । व॒ष्टि॒ । शो॒चिषा॑ । आ॒ऽजुह्वा॑नस्य । स॒र्पिषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्। य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा। घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाजुह्वानस्य सर्पिष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। होतारम्। मन्ये। दास्वन्तम्। वसुम्। सूनुम्। सहसः। जातऽवेदसम्। विप्रम्। न। जातऽवेदसम्। यः। ऊर्ध्वया। सुऽअध्वरः। देवः। देवाच्या। कृपा। घृतस्य। विऽभ्राष्टिम्। अनु। वष्टि। शोचिषा। आऽजुह्वानस्य। सर्पिषः ॥ १.१२७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशयोः स्त्रीपुरुषयोर्विवाहो भवितुं योग्य इत्याह ।

    अन्वयः

    हे कन्ये यथाऽहं य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवाच्या कृपादेवोऽस्ति तमाजुह्वानस्य सर्पिषो घृतस्य शोचिषा सह विभ्राष्टिं जनमनुवष्टि। यमग्निमिव होतारं दास्वन्तं वसुं सहसस्सूनुं जातवेदसं विप्रन्न जातवेदसं पतिं मन्ये तथेदृशं पतिं त्वमपि स्वीकुरु ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (अग्निम्) अग्निवद्वर्त्तमानम् (होतारम्) ग्रहीतारम् (मन्ये) जानीयाम् (दास्वन्तम्) दातारम् (वसुम्) ब्रह्मचर्येण कृतविद्यानिवासम् (सूनुम्) पुत्रम् (सहसः) बलवतः (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् (विप्रम्) मेधाविनम् (न) इव (जातवेदसम्) प्रकटविद्यम् (यः) (ऊर्ध्वया) उत्कृष्टया विद्यया (स्वध्वरः) सुष्ठु यज्ञस्याऽनुष्ठाता (देवः) कमनीयः (देवाच्या) या देवानञ्चति तया (कृपा) कल्पते समर्थयति यया तया (घृतस्य) आज्यस्य (विभ्राष्टिम्) विविधतया भृज्जन्ति परिपचन्ति येन तम् (अनु) (वष्टि) कामयेत (शोचिषा) प्रकाशेन (आजुह्वानस्य) समन्ताद्धूयमानस्य (सर्पिषः) गन्तुं प्राप्तुमर्हस्य ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्य शुभगुणशीलेषु महती प्रशंसा यस्योत्कृष्टं शरीरात्मबलं भवेत् तं पुरुषं स्त्री पतित्वाय वृणुयात् एवं पुरुषोऽपीदृशीं स्त्रियं भार्यत्वाय स्वीकुर्यात् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले एकसौ सत्ताईसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में कैसे स्त्री-पुरुषों का विवाह होना चाहिये, इस विषय का वर्णन किया है ।

    पदार्थ

    हे कन्या ! जैसे मैं (यः) जो (ऊर्ध्वया) उत्तम विद्या से (स्वध्वरः) सुन्दर यज्ञ का अनुष्ठान अर्थात् आरम्भ करनेवाली वह (देवाच्या) जो कि विद्वानों को प्राप्त होती और जिससे व्यवहार को समर्थ करते उस (कृपा) कृपा से (देवः) जो मनोहर अतिसुन्दर है उस जन को (आजुह्वानस्य) अच्छे प्रकार होमने और (सर्पिषः) प्राप्त होने योग्य (घृतस्य) घी के (शोचिषा) प्रकाश के साथ (विभ्राष्टिम्) जिससे अनेक प्रकार पदार्थ को पकाते उस अग्नि के समान (अनुवष्टि) अनुकूलता से चाहता है वा जिस (अग्निम्) अग्नि के समान (होतारम्) ग्रहण करने (दास्वन्तम्) देनेवाले (वसुम्) तथा ब्रह्मचर्य से विद्या के बीच में निवास किये हुए (सहसः) बलवान् पुरुष के (सूनुम्) पुत्र को (जातवेदसम्) जिसकी प्रसिद्ध वेदविद्या उस (विप्रम्) मेधावी के (न) समान (जातवेदसम्) प्रकट विद्यावाले विद्वान् को पति (मन्ये) मानती हूँ, वैसे ऐसे पति को तू भी स्वीकार कर ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसकी उत्तम गुणवाले में बहुत प्रशंसा जिसका अति उत्तम शरीर और आत्मा का बल हो, उस पुरुष को स्त्री पतिपने के लिये स्वीकार करे, ऐसा पुरुष भी इसी प्रकार की स्त्री को भार्यापन के लिये स्वीकार करे ॥ १ ॥

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    विषय

    अग्नि के दृष्टान्त से अग्रणी नायक राजा और उसके कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    मैं ( होतारं ) सब को सुख, अधिकार और बल देने हारे ( दास्वन्तं ) सब को प्रेम से बुलाने हारे और सब को अन्न, वस्त्र और भृति देने वाले, (वसुं) सब को बसाने वाले और सब में बसने वाले, (सहसः) शत्रु बल को पराजय करने में समर्थ, बल के ( सूनुम् ) प्रेरक, संचालक, ( जातवेदसं ) ऐश्वर्य और विद्या में प्रसिद्ध ( विप्रं न ) मेधावी, विद्वान्, ब्राह्मण के समान ही ( जातवेदसं ) समस्त विद्याओं में निष्णात पुरुष को ( अग्निं ) अग्रणी नायक रूप से ( मन्ये ) जानूं । ( यः ) जो ( देवः ) दानशील तेजस्वी, शुभकामनावान् और ( देवाच्या कृपा ) विद्वानों, वीर विजयी पुरुषों को प्राप्त होने वाले सामर्थ्य और ( ऊर्ध्वया ) सब से उत्कृष्ट शक्ति से ही ( आजुह्वानस्य ) आहुति किये गये ( सर्पिषः घृतस्य ) पिघले हुए घृत के कारण (विभ्राष्टिम् अनु ) अति प्रदीप्त अग्नि के समान ( आजुह्वानस्य सर्पिषः घृतस्य ) आह्वान किये गये या स्पर्धालु, अतिवेग से आक्रमण करते हुए, तेजस्वी सैन्य बल के कारण ( विभ्राष्टिम् ) चमकते हुए ( शोचिषा ) अति तेज की ज्वाला से ( वष्टि ) चमकता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ३, ८,९ अष्टिः। ४, ७, ११ भुरिगष्टिः। ५, ६ अत्यष्टिः । १० भुरिगति शक्वरी ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान व राजधर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाचे मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर साम्य आहे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याची उत्तम गुणवान लोकात प्रशंसा होते, ज्याचे शरीर व आत्मा यांचे बल उत्तम आहे त्या पुरुषाला स्त्रीने पती म्हणून निवडावे. अशा पुरुषाने तशाच स्त्रीला भार्या म्हणून स्वीकारावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I worship, serve and meditate on Agni, lord of light and knowledge, spirit of life and heat and inspiration of noble action, yajaka, generous giver, treasure of wealth and universal shelter, inspirer and creator of courage and courageous action like the sun, omniscient lord of all that is born in existence, master of knowledge as the supreme scholar of the Veda, organiser of yajna with love and non-violence with divine knowledge and awareness, refulgent with heavenly light and power, loving and consuming with flames of fire and light the blaze of the purest and most powerful ghrta offered into the fire of yajna, physical, mental and spiritual all. ’

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What kinds of men and women are fit to marry is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O girl, As I regard my husband the person who is well-performer of the Yajna with lofty knowledge and reverential devotion. who shines like fire with the splendour of the Ghee (Clarified butter) put in the fire, who is munificent or a liberal donor, accepter of what is given with love and reverence, who knows all that exists like a sage who is endowed with wisdom, who is the son of a strong man and observer of Brahamcharya, so thou shouldst also accept or choose such a virtuous person as thy husband.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्निम्) अग्निवद् वर्तमानम् = A person shining and behaving like the fire. (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् = Distinguished scholar. (विप्रम्) = A genius (देव:) कमनीय: = Desirable or lovable.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A girl should choose as husband a person, who is renowned on account of his noble qualities and good conduct and who is endowed with excellent physical and spiritual power. A young man should also choose as wife such a virtuous virgin.

    Translator's Notes

    (विव क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमद स्वप्नकान्तिगतिषु ) अत्र कान्त्यर्थ ग्रहणम् जातवेदसम्-जातानि वेदेति जातवेदास्तम् (निरुक्ते (विप्रम्) मेधाविनम् विप्र इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५ ) It is remarkable that both prof. Wilson and Griffith have translated the word "जातवेदसम् put as adjective of अग्निम् as" he who knows all that exists. (Wilson.) “Who knoweth all that exists. (Wilson). "Who knoweth all that live" (Griffith) विप्रं न जातवेदसम् has also been translated by both similarly i e "Like a sage who is endowed with knowledge". (Wilson). "As holy singer, knowing all." (Griffith). Do not these appellations clearly prove that Agni is not inanimate material fire but a conscious entity whether God or a wise learned person as interpreted by Swami Dayananda Sarasvati in his Commentary. Let impartial readers Judge for themselves.

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