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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    यं त्वं रथ॑मिन्द्र मे॒धसा॑तयेऽपा॒का सन्त॑मिषिर प्र॒णय॑सि॒ प्रान॑वद्य॒ नय॑सि। स॒द्यश्चि॒त्तम॒भिष्ट॑ये॒ करो॒ वश॑श्च वा॒जिन॑म्। सास्माक॑मनवद्य तूतुजान वे॒धसा॑मि॒मां वाचं॒ न वे॒धसा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वम् । रथ॑म् । इ॒न्द्र॒ । मे॒धऽसा॑तये । अ॒पा॒का । सन्त॑म् । इ॒षि॒र॒ । प्र॒ऽनय॑सि । प्र । अ॒न॒व॒द्य॒ । नय॑सि । स॒द्यः । चि॒त् । तम् । अ॒भिष्ट॑ये । करः॑ । वशः॑ । च॒ । वा॒जिन॑म् । सः । अ॒स्माक॑म् । अ॒न॒व॒द्य॒ । तू॒तु॒जा॒न॒ । वे॒धसा॑म् । इ॒माम् । वाच॑म् । न । वे॒धसा॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वं रथमिन्द्र मेधसातयेऽपाका सन्तमिषिर प्रणयसि प्रानवद्य नयसि। सद्यश्चित्तमभिष्टये करो वशश्च वाजिनम्। सास्माकमनवद्य तूतुजान वेधसामिमां वाचं न वेधसाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। त्वम्। रथम्। इन्द्र। मेधऽसातये। अपाका। सन्तम्। इषिर। प्रऽनयसि। प्र। अनवद्य। नयसि। सद्यः। चित्। तम्। अभिष्टये। करः। वशः। च। वाजिनम्। सः। अस्माकम्। अनवद्य। तूतुजान। वेधसाम्। इमाम्। वाचम्। न। वेधसाम् ॥ १.१२९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ।

    अन्वयः

    हे इषिरेन्द्र त्वं मेधसातये यमपाका सन्तं रथं प्रणयसीव विद्यां प्रणयसि च, हे अनवद्य वशस्त्वमभिष्टये च वाजिनं चित्तं सद्यः करः। हे तूतुजानानवद्य स त्वमस्माकं वेधसान्न वेधसामिमां वाचं करः ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (यम्) (त्वम्) (रथम्) रमणीयम् (इन्द्र) विद्वन् सभेश (मेधसातये) मेधानां पवित्राणां संविभागाय (अपाका) अपगतमविद्याजन्यं दुःखं यस्य तम् (सन्तम्) विद्यमानम् (इषिर) इच्छो (प्रणयसि) (प्र) (अनवद्य) प्रशंसित (नयसि) प्रापयसि (सद्यः) (चित्) इव (तम्) (अभिष्टये) इष्टप्राप्तये (करः) कुर्य्याः। अत्र लेट्। (वशः) कामयमानः (च) (वाजिनम्) प्रशस्तज्ञानवन्तम् (सः) (अस्माकम्) (अनवद्य) प्रशंसितगुणयुक्त (तूतुजान) क्षिप्रकारिन् (वेधसाम्) मेधाविनाम् (इमाम्) (वाचम्) सुशिक्षितां वाणीम् (न) इव (वेधसाम्) मेधाविनाम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सर्वान्मनुष्यान् विद्याविनयेषु प्रवर्त्तयन्ति तेऽभीष्टानि साद्धुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले एक सौ उनतीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करें, उस विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे (इषिर) इच्छा करनेवाले (इन्द्र) विद्वान् सभापति ! (त्वम्) आप (मेधसातये) पवित्र पदार्थों के अच्छे प्रकार विभाग करने के लिये (यम्) जिस (अपाका) पूर्ण ज्ञानवाले (सन्तम्) विद्यमान (रथम्) विद्वान् को रमण करने योग्य रथ को (प्रणयसि) प्राप्त कराने के समान विद्या को (प्रणयसि) प्राप्त करते हो (च) और हे (अनवद्य) प्रशंसायुक्त (वशः) कामना करते हुए आप (अभिष्टये) चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति के लिये (वाजिनम्) प्रशंसित ज्ञानवान् के (चित्) समान (तम्) उसको (सद्यः) शीघ्र (करः) सिद्ध करें वा हे (तूतुजान) शीघ्र कार्यों के कर्त्ता (अनवद्य) प्रशंसित गुणों से युक्त (सः) सो आप (अस्माकम्) हम (वेधसाम्) धीर बुद्धिवालों के (न) समान (वेधसाम्) बुद्धिमानों की (इमाम्) इस (वाचम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को सिद्ध करें अर्थात् उसका उपदेश करें ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन सब मनुष्यों को विद्या और विनय आदि गुणों में प्रवृत्त कराते हैं, वे सब ओर से चाहे हुए पदार्थों की सिद्धि कर सकते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    लक्ष्यस्थान की ओर

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (इषिर) = सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (यं रथम्) = जिस शरीररूप रथ को (मेधसातये) = यज्ञों की प्राप्ति के लिए, लोकहितात्मक उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए अपाका (सन्तम्) = [अपाकः - अपक्तव्यप्रज्ञः - निरु०] अपक्तव्य प्रज्ञावाले, परिपक्व बुद्धिवाले श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (प्रणयसि) = प्राप्त कराते हैं । हे (अनवद्य) = सब प्रकार की अप्रशस्तता से रहित प्रभो! (प्रनयसि) = आप ज्ञानी, श्रेष्ठ पुरुष के लिए उत्तम रथ प्राप्त कराते ही हो । (तम्) = उस रथ को आप (सद्यः चित्) = शीघ्र ही (अभिष्टये करः) = [अभिमतप्राप्तये - सा०] अभिमत लक्ष्यस्थान की प्राप्ति के लिए करते हैं (च) = और उस श्रेष्ठ व्यक्ति को आप (वाजिनं वशः) = अत्यन्त शक्तिशाली बनाना चाहते हो । वस्तुतः प्रभु इस श्रेष्ठ शरीररथ को यज्ञादि उत्तम कों को करते हुए प्रभु - प्राप्ति के लिए ही देते हैं । इसका उद्देश्य यही है । इस उद्देश्य की प्राप्ति से ज्ञानीपुरुष की शक्ति अतिशयेन प्रवृद्ध होती है । २. सः वह 'आप' अनवद्यः - अत्यन्त प्रशस्त प्रभो! तूतुजान - निरन्तर प्रेरणा देनेवाले प्रभो! (अस्माकम्) = हमारी (इमां वाचम्) = इस वाणी को वेधसां न मेधावी पुरुषों की भाँति (वेधसाम्) = [विविधकर्मकर्तृणाम्] कर्तव्यकर्मों को करनेवालों की वाणी (वशः) = बनाने की कामना कीजिए । जिस प्रकार मेधावी पुरुष जो बोलते हैं, वैसा करते भी हैं, उसी प्रकार हम भी वाणी से जो बोलें, वैसा करनेवाले भी बनें, केवल पर - उपदेश कुशल ही न बने रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा यह शरीर - रथ सदा उत्तम मार्ग से चलता हुआ हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाला हो । हमारी वाणी क्रिया में परिणत होनेवाली हो ।

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    विषय

    सभापति, सेनापति, अग्रणी नायक मार्गदर्शी का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) विद्वन् ! शत्रुनाशक राजन् ! सभा-सेनापते ! ( त्वं ) आप ( यं रथं ) जिस ‘रथ’ रमण करने योग्य राष्ट्र, या प्रजाजन, और रथादि से बने सैन्य को ( मेध-सातये ) यज्ञ के समान पवित्र कर्म और शत्रुओं को हिंसन करने और परस्पर सत्संग के लाभ के लिये ( अपाका सन्तं ) दुःखादि रहित और खूब बलवान्, सु-अभ्यस्त करके ( प्र नयसि ) आगे बढ़ाता, सन्मार्ग पर ले जाने में समर्थ है । अतः हे ( अनवद्य ) दोष रहित ! अनिन्दनीय ! हे ( इषिर ) सबके प्रेरणा करने हारे नायक ! तू उसको ( प्र नयसि ) आगे ले चल, उसको उन्नति मार्ग पर बढ़ा । ( वशः च वाजिनम् ) अश्वों को वश करने में समर्थ सारथी जिस प्रकार वेगवान् अश्व को अपने प्रयोजन में लगा लेता है उसी प्रकार तु भी ( वशः ) सबको वश करने में समर्थ होकर ( सद्यः चित् ) अति शीघ्र ही ( तं वाजिनम् ) उस बलवान्, वेगवान् सैन्य और ऐश्वर्यवान् राष्ट्र तथा ज्ञानवान् विद्वज्जन सबको ( अभिष्टये ) इष्ट सुखमय प्रयोजन के लाभ के लिये ( करः ) नियुक्त कर । हे ( अनवद्य ) निन्दा के अयोग्य सत्कार के पात्र, पूज्य ! हे ( तूतुजान ) सब कार्यों को शीघ्रता से करने हारे ! कुशल ! अथवा हे शत्रुनाशन ! ( सः ) वह तू ( वेधसा ) विद्वान् मेधावी पुरुषों की ( वांचं न ) वाणी के समान ही ( अस्माकं वेधसां ) हम विद्वान्, प्रज्ञावान् पुरुषों के बीच वाणी का ( करः ) प्रयोग कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान व राजाच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान लोक सर्व माणसांना विद्या व विनय इत्यादी गुणात प्रवृत्त करवितात ते सगळीकडून अभीष्ट पदार्थांची सिद्धी करू शकतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of light and knowledge, power beyond reproach, inspirer of life and people, whatever chariot you move for the purpose of yajna, that being faultless and immaculate, you move it fast forward and, favourable as you are to the yajaka, you instantly lead it and the master to success, to the desired object. Lord sung and celebrated, faster than light in motion and inspiration, faithful admirers we are all, elevate this song of ours to the height of the word of the wise and visionaries and graciously accept it as our homage of holiness.

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