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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    एन्द्र॑ या॒ह्युप॑ नः परा॒वतो॒ नायमच्छा॑ वि॒दथा॑नीव॒ सत्प॑ति॒रस्तं॒ राजे॑व॒ सत्प॑तिः। हवा॑महे त्वा व॒यं प्रय॑स्वन्तः सु॒ते सचा॑। पु॒त्रासो॒ न पि॒तरं॒ वाज॑सातये॒ मंहि॑ष्ठं॒ वाज॑सातये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒न्द्र॒ । या॒हि॒ । उप॑ । नः॒ । प॒रा॒ऽवतः । न । अ॒यम् । अच्छ॑ । वि॒दथा॑निऽइव । सत्ऽप॑तिः । अस्त॑म् । राजा॑ऽइव । सत्ऽप॑तिः । हवा॑महे । त्वा॒ । व॒यम् । प्रय॑स्वन्तः । सु॒ते । सचा॑ । पु॒त्रासः॑ । न । पि॒तर॑म् । वाज॑ऽसातये । मंहि॑ष्ठम् । वाज॑ऽसातये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एन्द्र याह्युप नः परावतो नायमच्छा विदथानीव सत्पतिरस्तं राजेव सत्पतिः। हवामहे त्वा वयं प्रयस्वन्तः सुते सचा। पुत्रासो न पितरं वाजसातये मंहिष्ठं वाजसातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। इन्द्र। याहि। उप। नः। पराऽवतः। न। अयम्। अच्छ। विदथानिऽइव। सत्ऽपतिः। अस्तम्। राजाऽइव। सत्ऽपतिः। हवामहे। त्वा। वयम्। प्रयस्वन्तः। सुते। सचा। पुत्रासः। न। पितरम्। वाजऽसातये। मंहिष्ठम्। वाजऽसातये ॥ १.१३०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजप्रजाजनाः परस्परं प्रीत्या वर्त्तेरन्नित्याह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र अयं विदथानीवायात्यतस्त्वं नोऽस्मान् परावते नोपायाहि सत्पती राजेव सत्पतिस्त्वं नोऽस्माकमस्तमुपायाहि। प्रयस्वन्तो वयं सचा सुते वाजसातये वाजसातये च पुत्रासः पितरं नेव मंहिष्ठं त्वाच्छ हवामहे ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (आ) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (याहि) प्राप्नुहि (उप) (नः) अस्मानस्माकं वा (परावतः) दूरदेशात् (न) निषेधे (अयम्) (अच्छा) निश्शेषार्थे अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (विदथानीव) संग्रामानिव (सत्पतिः) सतां धार्मिकाणां पतिः। (अस्तम्) गृहम् (राजेव) (सत्पतिः) सत्याचाररक्षकः (हवामहे) स्तुमः (त्वा) त्वाम् (वयम्) (प्रयस्वन्तः) बहुप्रयत्नशीलाः (सुते) निष्पन्ने (सचा) समवायेन (पुत्रासः) (न) इव (पितरम्) जनकम् (वाजसातये) युद्धविभागाय (मंहिष्ठम्) अतिशयेन पूजितम् (वाजसातये) पदार्थविभागाय ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। सर्वे राजप्रजाजनाः पितापुत्रवदिह वर्त्तित्वा पुरुषार्थिनः स्युः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब दश ऋचावाले एक सौ तीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा और प्रजाजन आपस में प्रीति के साथ वर्त्तें, इस विषय को कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् राजन् ! (अयम्) यह शत्रुजन (विदथानीव) संग्रामों को जैसे वैसे आकर प्राप्त होता इससे आप (नः) हम लोगों के समीप (परावतः) दूर देश से (न) मत (उपायाहि) आइये किन्तु निकट से आइये (सत्पतिः) धार्मिक सज्जनों का पति (राजेव) जो प्रकाशमान उसके समान (सत्पतिः) सत्याचरण की रक्षा करनेवाले आप हमारे (अस्तम्) घर को प्राप्त हो (प्रयस्वन्तः) अत्यन्त प्रयत्नशील (वयम्) हम लोग (सचा) सम्बन्ध से (सुते) उत्पन्न हुए संसार में (वाजसातये) युद्ध के विभाग के लिये और (वाजसातये) पदार्थों के विभाग के लिये (पुत्रासः) पुत्रजन जैसे (पितरम्) पिता को (न) वैसे (मंहिष्ठम्) अति सत्कारयुक्त (त्वा) आपकी (अच्छ) अच्छे प्रकार (हवामहे) स्तुति करते हैं ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। समस्त राजप्रजाजन पिता और पुत्र के समान इस संसार में वर्त्तकर पुरुषार्थी हों ॥ १ ॥

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    विषय

    समिती ब्रह्मलोकरूप घर की ओर

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! आप (नः) = हमें परावतः दूर देश से (उप आ याहि) = समीपता से प्राप्त होओ ताकि हमें उसी प्रकार (अच्छ) = लक्ष्य-स्थान की ओर (नायम्) = ले-जाने के लिए होओ [नी], (इव) = जैसे कि (सत्पतिः) = सत्कर्मों का रक्षक व्यक्ति औरों को भी (विदथानि) = ज्ञानयज्ञों की ओर ले-चलनेवाला होता है, (इव) = उसी प्रकार जैसे कि (सत्पतिः) = सज्जनों का रक्षक राजा राजा (अस्तम्) = प्रत्येक भटके हुए व्यक्ति को घर की ओर ले-जानेवाला होता है । प्रभु भी अपने भक्तों को ब्रह्मलोकरूप गृह की ओर ले जानेवाले होते हैं । २. हे प्रभो! (वयम्) = हम (सुते) = यज्ञों में (सचा) = मिलकर (प्रयस्वन्तः) = प्रकृष्ट हविरूप अन्नोंवाले होते हुए (त्वा) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं । घरों में मिलकर हम यज्ञ करते हैं । उन यज्ञों में हविरूप अनों को डालते हुए हम यज्ञशेष का ही सेवन करते हैं । इस प्रकार यह हमारा प्रभु का उपासन हो जाता है 'हविषा विधेम' । ३. हम (पुत्रासः न पितरम्) = जैसे पुत्र पिता को पुकारते हैं, उसी प्रकार (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिए हे प्रभो! आपको पुकारते हैं । (मंहिष्ठम्) = अत्यन्त दातृतम आपको उसी प्रकार (वाजसातये) = शक्ति की प्राति के लिए आराधित करते हैं । पिता के सानिध्य में पुत्र शक्ति का अनुभव करता है, इसी प्रकार आपके सानिध्य में हम शक्ति प्राप्त करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें लक्ष्य - स्थान की ओर ले - चलते हैं । उत्तम हविवाले होकर हम प्रभु का उपासन करते हैं । जैसे पुत्र पिता के समीप, उसी प्रकार हम प्रभु के सान्निध्य में शक्ति का अनुभव करते हैं ।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सत्पतिः ) बलों और बलवान् पुरुषों का पालक, नायक जिस प्रकार (विदथानि इव) संग्रामों, ऐश्वर्यों या ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाले संग्राम के नाना साधनों को प्राप्त होता है और जैसे ( राजा इव ) राजा ( सत् पतिः ) सज्जनों, और सत्य धर्मों का पालक होकर ( अस्तं ) राजसभा भवन में प्राप्त होता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) हमें ( परावतः ) दूर देशों से भी प्रेमवश (अयम् न) इस वायु के समान ( नः उप ) हमारे समीप आ, हमें प्राप्त हो । तू ( सत्पतिः ) सज्जनों और सत्यधर्मों और तत्वों का पालक होकर ( विदथानि ) ज्ञानों और ऐश्वर्यों को (अच्छ) प्राप्तकर । राजा के समान ( अस्तम् ) उत्तम गृह को प्राप्त हो । सेनापति ( सुते ) तेरे अभिषिक्त हो जाने पर या इस ऐश्वर्यमय राष्ट्र में ( अस्तं ) शत्रुओं के ऊपर शस्त्रास्त्र फेंकने के कार्य संग्राम को प्राप्त हो । ( वयं ) हम लोग ( सचा ) परस्पर के समवाय या संगठन द्वारा ( प्रयस्वन्तः ) उत्तम ज्ञान, अन्नादि भोग्य पदार्थ और उत्तम प्रयत्न, उद्योग से युक्त होकर ( वाजसातये ) ऐश्वर्य या धन के विभाग के लिये ( पुत्रासः मंहिष्ठं पितरं न ) पुत्र जन जिस प्रकार अपने दानशील और पूजनीय पिता को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( वाजसातये ) ज्ञान और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ( मंहिष्ठं ) अति दानशील, और अति पूजनीय ( त्वां ) तुझको ( हवामहे ) हम अपने में प्रमुख स्वीकार तेरी शरण हैं । (२) परमेश्वर के पक्ष में भी स्पष्ट है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा व प्रजा यांच्या कार्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजा व प्रजा यांनी या जगात पिता व पुत्राप्रमाणे वागून पुरुषार्थी व्हावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of wealth and power, ruler of the world, come graciously from afar to us like this Agni who comes to the yajnic battles of life. Protector and promoter of truth and rectitude, friend and protector of the truthful and righteous, come to our home like the ruler. Joining you faithfully in this yajna of life, dedicated to holy action and endeavour, we invoke and invite you to join us. As children call upon the father to help them to food, sustenance and protection in their course of life and growth, so do we call upon you for safety and protection, great lord of power and prosperity, for victory in our battle of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How the rulers and their subjects should behave lovingly towards one another other is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Wealthy King or President of the Assembly) as the enemy is coming to the battlefield, come to us quite closely, come to our house, as a good king who is protector of the righteous people and preserver of true conduct comes to the assembly or to the houses of his subjects when invited cordially. Being industrious, we praise and invite thee, we invoke thee as sons invite a father as thon art the most liberal donor and most adorable. We invoke thee for the proper distribution of the articles and for the distribution of various duties or departments in connection with a battle.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विदथानिइव) संग्रामान् इव = Like the battles. (प्रयस्वन्तः) बहुप्रयत्नशीला: = Very industrious. (मंहिष्ठम् ) अतिशयेन पूजितम् = Much respected or adorable. (वाजसातये पदार्थविभागाय) = For the distribution of articles or wealth. २ युद्ध विभागाय

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All officers of the State and the people should be industrious.

    Translator's Notes

    प्रयस्वन्त: is from यसु-प्रयत्ने hence the meaning of बहुप्रबलशीला: by Rishi Dayananda Sarasvati.

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