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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒भे पु॑नामि॒ रोद॑सी ऋ॒तेन॒ द्रुहो॑ दहामि॒ सं म॒हीर॑नि॒न्द्राः। अ॒भि॒व्लग्य॒ यत्र॑ ह॒ता अ॒मित्रा॑ वैलस्था॒नं परि॑ तृ॒ळ्हा अशे॑रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भे । पु॒ना॒मि॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । ऋ॒तेन॑ । द्रुहः॑ । द॒हा॒मि॒ । सम् । म॒हीः । अ॒नि॒न्द्राः । अ॒भि॒ऽव्लग्य॑ । यत्र॑ । ह॒ताः । अ॒मित्राः॑ । वै॒ल॒ऽस्था॒नम् । परि॑ । तृ॒ळ्हाः । अशे॑रन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभे पुनामि रोदसी ऋतेन द्रुहो दहामि सं महीरनिन्द्राः। अभिव्लग्य यत्र हता अमित्रा वैलस्थानं परि तृळ्हा अशेरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभे। पुनामि। रोदसी इति। ऋतेन। द्रुहः। दहामि। सम्। महीः। अनिन्द्राः। अभिऽव्लग्य। यत्र। हताः। अमित्राः। वैलऽस्थानम्। परि। तृळ्हाः। अशेरन् ॥ १.१३३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 133; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    कथं स्थिरं राज्यं स्यादित्याह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथाहमनिन्द्रा महीरभिव्लग्यर्तेनोभे रोदसी पुनामि। द्रुहः सन्दहामि यत्र वैलस्थानं प्राप्ताः परि तृढा हताः सन्तोऽमित्राअशेरँस्तत्राऽहं प्रयते तथा यूयमप्याचरत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (उभे) (पुनामि) पवित्रयामि (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (ऋतेन) सत्येन (द्रुहः) हन्तुमिच्छून् (दहामि) भस्मीकरोमि (सम्) सम्यक् (महीः) महीति पृथिवीना०। निघं० १। १। (अनिन्द्राः) अविद्यमाना इन्द्रा राजानो यासु ताः (अभिव्लग्य) अभितः सर्वतो लगित्वा। अत्र पृषोदरादिना वुगागमः। (यत्र) यस्मिन् (हताः) विनाशिताः (अमित्राः) मित्रभाववर्जिताः (वैलस्थानम्) विलानामिदं वैलं तदेव स्थानं वैलस्थानम् (परि) सर्वतः (तृढाः) हिंसिताः (अशेरन्) शयीरन् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वैरिदं सततमेष्टव्यं येन सत्येन व्यवहारेण राज्योन्नतिः पवित्रता शत्रुनिवृत्तिर्निष्कण्टकं राज्यं च स्यादिति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सात ऋचावाले एकसौ तैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में कैसे स्थिर राज्य हो, इस विषय का उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं (अनिन्द्राः) जिनमें अविद्यमान राजजन हैं उन (महीः) पृथिवी भूमियों का (अभिव्लग्य) सब ओर से सङ्ग कर अर्थात् उनको प्राप्त होकर (ऋतेन) सत्य से (उभे) दोनों (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी को (पुनामि) पवित्र करता हूँ और (द्रुहः) द्रोह करनेवालों को (सं दहामि) अच्छी प्रकार जलाता हूँ (यत्र) जहाँ (वैलस्थानम्) विलरूप स्थान को प्राप्त (परि, तृढाः) सब ओर से मारे (हताः) मरे हुए (अमित्राः) मित्रभाव रहित शत्रुजन (अशेरन्) सोवें, वहाँ मैं यत्न करता हूँ, वैसा तुम भी आचरण करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को यह निरन्तर इच्छा करनी चाहिये कि जिस सत्यव्यवहार से राज्य की उन्नति, पवित्रता, शत्रुओं की निवृत्ति और निर्वैर निश्शत्रु राज्य हो ॥ १ ॥

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    विषय

    दोनों लोकों की पवित्रता

    पदार्थ

    १. गत सूक्त के अन्तिम शब्दों के अनुसार शत्रुओं का सब ओर से संहार करके मैं उभे (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक दोनों को (पुनामि) = पवित्र करता हूँ। शरीर को रोगों से रहित करता हूँ तो मस्तिष्क को अशुभ विचारों से। २. (ऋतेन) = ऋत के पालन से, सब कार्यों को ठीक समय व ठीक स्थान पर करने से (द्रुहः) = जिघांसु 'काम, क्रोध, लोभ' को (संदहामि) = पूर्णतया दग्ध करता हूँ। (अनिन्द्राः मही:) = प्रभुस्मरण से रहित पृथिवियों-भूमियों को भी मैं दग्ध करता हूँ। वे भूमियाँ ही हमारा द्रोह करनेवाली होती हैं जो कि प्रभु के उपासन से रहित हैं। इन भूमियों पर ही कामादि शत्रुओं का उत्थान होता है। ३. (यत्र) = जहाँ (अभिव्लग्य) = चारों ओर से गति करके (अमित्रा:) = ये कामादि शत्रु (हताः) = मारे जाते हैं तो (तृळ्हा:) = हिंसित हुए हुए ये कामादि (वैलस्थानम्) = श्मशान में (परि अशेरन्) = शयन करते हैं। काम-क्रोधादि पर हमें सब ओर से आक्रमण करना होगा तभी हम इनका संहार कर सकेंगे। सब ओर से आक्रमण का अभिप्राय यह है कि अन्नमयकोश में उपवासादि व्रतों को अपनाएँ, प्राणमयकोश में प्राणसाधना आरम्भ करें, मनोमयकोश में प्रभु का स्मरण करें, विज्ञानमयकोश में प्रभु की सृष्टि में प्रभु की महिमा का विवेचन करें। इस प्रकार चतुर्दिक् आक्रमण होने पर ही ये शत्रु नष्ट हो पाएँगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- कामादि प्रात्रओं को नए करके हम शरीर व मस्तिष्क दोनों को पवित्र करें।

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    विषय

    न्यायप्रिय, दण्डकुशल राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ऋतेन रोदसी ) जल से जिस प्रकार दोनों तट स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार (ऋतेन) सत्य व्यवहार, न्याय, बल या प्रयाण से ( उभे रोदसी ) मित्र और शत्रु दोनों पक्षों को ( पुनामि ) पवित्र करूं, निष्कण्टक करूं । मैं ( अनिन्द्रा ) इन्द्र अर्थात् राजा से रहित, उससे विपरीत, ( द्रुहः महीः ) द्रोहकारी भूमियों को ( दहामि ) जला डालूं, उनके द्रोही निवासियों को पीड़ित करूं । ( यत्र ) जहां ( अमित्राः ) शत्रु लोग ( अभि-व्लग्य ) आक्रमण करके मारे जावें उस ( वैलस्थानं ) गिरने या पराजित होने के स्थान पर ही वे ( तृढ़ा: ) मारे गये लोग ( अशेरन् ) भूमि पर सोवें । अध्यात्म में—मैं (ऋतेन) ज्ञान से (रोदसी) इह लोक और परलोक दोनों को पवित्र करूं ( अनिन्द्राः ) मैं आत्मा के विरोधी बड़ी द्रोहकारिणी विक्षेप प्रवृत्तियों या वासनाओं को सूखी लताओं के समान जला दूँ, वे निर्वीज हो जावें ! वे ( अमित्राः ) काम क्रोधादि शत्रु गण जहां पहुंच कर विनष्ट हो जाते हैं उस ( वैलस्थानं ) गुहास्थित ब्रह्म को प्राप्त होकर शान्त हो जावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृद्रनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ५ आर्षी गायत्री । ६ स्वराड् ब्राह्मी जगती । ७ विराडष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात श्रेष्ठाचे पालन व दुष्टांचे निवारण आणि राज्याच्या स्थिरतेचे वर्णन केलेले आहे. त्यामुळे या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी निरंतर ही इच्छा बाळगली पाहिजे की, सत्य व्यवहाराने राज्याची उन्नती, पवित्रता, शत्रूंचा नाश व निर्वैर आणि निष्कंटक राज्य व्हावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I purify the earth and heavens both by the light of truth and the fire and fragrance of yajna, creative and cooperative action. I subject the elements of hate and chaos to the heat and power of law and discipline and bum off the anti-Indra forces on earth to naught. And having thus seized and crushed the unfriendly elements wherever they happen to be active, and confirmed that they are dead and gone, I let them lie asleep in their grave.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How can the Kingdom be made stable is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, I purify by Truth both heaven and earth, going to places of the big earth where there are no good kings or which are anarchic and therefore haunts of the wicked. I burn those wicked persons who desire to slay others. Wherever the wicked enemies congregate, I slay them and destroy them utterly. They sleep in deep pit-so do the same.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अविव्लाय ) अभितः सर्वतो लगित्वा | अत्र पृषोदरादिनावुगागम: = Having approached from all sides. (तृढ़ा :) हिंसिता: = Slain or killed तृह - हिंसायाम् रुधा Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always desire to have such true dealing by which the State may prosper, there may be purity all around, the enemies may be annihilated and there may be thornless or un-obstructed administration.

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