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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 134/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    आ त्वा॒ जुवो॑ रारहा॒णा अ॒भि प्रयो॒ वायो॒ वह॑न्त्वि॒ह पू॒र्वपी॑तये॒ सोम॑स्य पू॒र्वपी॑तये। ऊ॒र्ध्वा ते॒ अनु॑ सू॒नृता॒ मन॑स्तिष्ठतु जान॒ती। नि॒युत्व॑ता॒ रथे॒ना या॑हि दा॒वने॒ वायो॑ म॒खस्य॑ दा॒वने॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । जुवः॑ । र॒र॒हा॒णाः । अ॒भि । प्रयः॑ । वायो॒ इति॑ । वह॑न्तु । इ॒ह । पू॒र्वऽपी॑तये । सोम॑स्य । ऊ॒र्ध्वा । ते॒ । अनु॑ । सू॒नृता॑ । मनः॑ । ति॒ष्ठ॒तु॒ । जा॒न॒ती । नि॒युत्व॑ता । रथे॑न । आ । या॒हि॒ । दा॒वने॑ । वायो॑ इति॑ । म॒खस्य॑ । दा॒वने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा जुवो रारहाणा अभि प्रयो वायो वहन्त्विह पूर्वपीतये सोमस्य पूर्वपीतये। ऊर्ध्वा ते अनु सूनृता मनस्तिष्ठतु जानती। नियुत्वता रथेना याहि दावने वायो मखस्य दावने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। त्वा। जुवः। ररहाणाः। अभि। प्रयः। वायो इति। वहन्तु। इह। पूर्वऽपीतये। सोमस्य। ऊर्ध्वा। ते। अनु। सूनृता। मनः। तिष्ठतु। जानती। नियुत्वता। रथेन। आ। याहि। दावने। वायो इति। मखस्य। दावने ॥ १.१३४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 134; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ।

    अन्वयः

    हे वायो विद्वन्निह सोमस्य पूर्वपीतय इव पूर्वपीतये जुवो रारहाणा वायवस्त्वा प्रयोभ्यावहन्तु। हे वायो यस्य ते ऊर्ध्वा सूनृता जानती मनोऽनुतिष्ठतु स त्वं मखस्य दावन इव दावने नियुत्वना रथेना याहि ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (जुवः) वेगवन्तः (रारहाणाः) त्यक्तारः। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः। (अभि) (प्रयः) प्रीतिम् (वायो) वायुरिव वर्त्तमान (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (इह) अस्मिन् संसारे (पूर्वपीतये) पूर्वेषां पीतिः पानं तस्यै (सोमस्य) ओषध्यादिरसस्य (पूर्वपीतये) पूर्वेषां पानायेव (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (ते) तव (अनु) (सूनृता) प्रिया वाक् (मनः) अन्तःकरणम् (तिष्ठतु) (जानती) या जानाति सा स्त्री (नियुत्वता) बहवो नियुतोऽश्वा विद्यन्ते यस्मिंस्तेन (रथेन) रमणीयेन यानेन (आ) समन्तात् (याहि) गच्छ (दावने) दात्रे (वायो) ज्ञानवान् (मखस्य) यज्ञस्य (दावने) दात्रे ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वांसः सर्वेषु प्राणिषु प्राणवत् प्रिया भूत्वाऽनेकाश्वयुक्तैर्यानैर्गच्छन्त्वागच्छन्तु च ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले एकसौ चौतीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसे हों, इस विषय को कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वायो) पवन के समान वर्त्तमान विद्वान् ! (इह) इस संसार में (सोमस्य) ओषधि आदि पदार्थों के रस को (पूर्वपीतये) अगले सज्जनों के पीने के समान (पूर्वपीतये) जो पीना है उसके लिये (जुवः) वेगवान् (रारहाणाः) छोड़नेवाले पवन (त्वा) आपको (प्रयः) प्रीतिपूर्वक (अभि, आ, वहन्तु) चारों ओर से पहुँचावें। हे (वायो) ज्ञानवान् पुरुष ! जिस (ते) आपकी (ऊर्ध्वा) उन्नतियुक्त अति उत्तम (सूनृता) प्रिय वाणी (जानती) और ज्ञानवती हुई स्त्री (मनः) मन के (अनु, तिष्ठतु) अनुकूल स्थित हो सो आप (मखस्य) यज्ञ के सम्बन्ध में (दावने) दान करनेवाले के लिए जैसे वैसे (दावने) देनेवाले के लिये (नियुत्वता) जिसमें बहुत घोड़े विद्यमान हैं उस (रथेन) रमण करने योग्य यान से (आ, याहि) आओ ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोग सर्व प्राणियों में प्राण के समान प्रिय होकर अनेक घोड़ों से जुते हुए रथों से जावें-आवें ॥ १ ॥

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    विषय

    ज्ञानयुक्त प्रिय, सत्य वाणी

    पदार्थ

    १. हे (वायो) = गतिशील जीव ! (त्वा) = तुझे (जुवः) = वेगवाले (रारहाणा:) = खूब गति करते हुए इन्द्रियरूप अश्व (प्रयः अभि) = हविरूप अन्न [food] की ओर, आनन्द [delight] की ओर और त्याग [sacrifice] की ओर (आवहन्तु) = ले चलें, प्राप्त कराएँ। हम जीवनरूप यज्ञ में हविरूप अन्न का, सात्त्विक अन्न का ही सेवन करनेवाले बनें, सात्त्विकता के कारण त्याग की वृत्तिवाले हों, त्याग को अपनाने से आनन्दमय जीवनवाले हों । २. (इह) = इस जीवन-यज्ञ में ये इन्द्रियाश्व सोमस्य (पूर्वपीतये) = सबसे पूर्व सोम का पान करनेवाले हों, (पूर्वपीतये) = उस सोम का पान करनेवाले हों जो सोम शरीर का पालन और पूरण करनेवाला है। इस सोम-पान से- शरीर में वीर्यशक्ति के रक्षण से (ते) = तेरी (जानती) = ज्ञान से युक्त होती हुई (सूनृता) = प्रिय, सत्यवाणी (ऊर्ध्वा) = उन्नति की कारणभूत होकर (मनः अनुतिष्ठतु) = मन के अनुकूल होकर स्थित हो। सोम-रक्षण से हमारी वाणी ज्ञानयुक्त, सत्य व प्रिय होती है। यह वाणी उन्नति का कारण बनती है। यही इस सोमरक्षक पुरुष को प्रिय होती है। वह इसी वाणी का उच्चारण करता है। ३. इस सोमपान करनेवाले पुरुष से प्रभु कहते हैं कि (वायो) = हे गतिशील पुरुष ! तू (नियुत्वता रथेन) = उत्तम इन्द्रियोंवाले शरीर रथ से (दावने) = दान की क्रिया के होने पर, मखस्य (दावने) = यज्ञों से सम्बद्ध इन दान-क्रियाओं के होने पर (आयाहि) = मेरे समीप आनेवाला हो। सोमी बनने पर ही हमारा जीवन पुरुषार्थवाला होगा। हम इन्द्रियाश्वों से जुते इस शरीर रथ से यज्ञों में स्थित होकर दान की वृत्तिवाले होंगे और प्रभु की ओर जा रहे होंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे इन्द्रियाश्व गतिशील हों। ये हमें यज्ञों की ओर ले चलें। सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए हम सोम का रक्षण करें, ज्ञानयुक्त, प्रिय, सत्य वाणी बोलें और दान की वृत्तिवाले बनकर प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ें।

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    विषय

    शूर पुरुष का प्रयाण, समृद्धि की वृद्धि, तथा सहोद्योग ।

    भावार्थ

    ( जुवः रारहाणाः ) जिस प्रकार वेगवान् शीघ्र गमनशील अश्व ( सोमस्य पूर्वपीतये ) ऐश्वर्य को सबसे पूर्व प्राप्त कर लेने के लिए वीर पुरुष को ( प्रयः आवहन्ति ) प्राप्तव्य युद्ध तथा विजेय देश में प्राप्त कराते हैं उसी प्रकार ( जुवः ) उत्तम मार्ग में ले जाने हारे प्रीति युक्त, ( रारहाणाः ) संसार के विलासों को त्यागने वाले, निःस्वार्थ विद्वान् जन ( पूर्वपीतये ) अपने पूर्व के विद्वानों और पूर्व पुरुषों के ज्ञान ऐश्वर्य आदि का पान करने, उसको प्राप्त करने के लिये (त्वा) तुझको हे (वायो) ज्ञानवन् ! वायु के समान राष्ट्र के प्राणरूप राजन् ! विद्वन् ! वा ज्ञानोत्सुक पुरुष ! ( प्रयः ) ज्ञान, परमपद, और प्रीति ( आ वहन्तु ) प्राप्त करावें । ( जानती ) ज्ञान वाली, विदुषी स्त्री ( सूनृता ) प्रिय सत्यवाणी बोलती हुई ( मनः जानती अनुतिष्ठतु ) अपने प्रियतम पुरुष के मनको अच्छी प्रकार जानती हुई तदनुसार ही आचरण करती है उसी प्रकार हे विद्वन् ! राजन् ! ( सूनृता ) उत्तम, पूजनीय शुभ सत्य वेद वाणी ( मनः जानती) मन को ज्ञान प्रदान करती हुई, वा ( मनः) ज्ञान को ही ( जानती ) जानती और जनाती हुई ( ते अनु तिष्ठतु ) तेरे कार्य के अनुकूल रहे । अथवा ( जानती सूनृता ते मनः अनुतिष्ठतु ) ज्ञानमयी वाणी तेरे मन के अनुकूल रहे, तेरा मन उसके प्रतिकूल न रहे । हे (वायो) वायु के समान बलवन् ! क्रियावन् ! ज्ञानवन् ! ( दावने ) आजीविका देने वाले के कार्य के लिये जिस प्रकार भृत्य ( नियुत्वता रथेन याति ) अश्वों वाले रथ से शीघ्र कार्य पर जाता है उसी प्रकार हे शूरवीर ! तू ( मखस्य ) पूजनीय उत्तम ज्ञान के देने वाले गुरु आचार्य के लिये और ( मखस्य दावने ) यज्ञ के दान और युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं के नाश करने के लिये भी ( नियुत्वता रथेन ) अश्वों से जुते रथ, तथा असंख्य रथ सेना से ( याहि ) प्रयाण किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–६ परुच्छेप ऋषिः ॥ वायुर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २, ४ विराडत्यष्टिः । ५ अष्टिः । ६ विराडष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वायूचा दृष्टान्त शूरवीराच्या न्यायविषयक प्रजेच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

    भावार्थ

    भावार्थ- या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान लोकांनी प्राण्यांमध्ये प्राणासारखे प्रिय बनावे व अनेक अश्वायुक्त अशा रथाद्वारे जावे-यावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vayu, spirit of yajnic vitality, may the fast currents of cosmic energy with love and caress escort and bring you here for a drink up of soma first of all, drink of fragrance as ever before, and your consort, upward current on the circuitous wave, recognising you as her partner and offering herself as an oblation, join you in the cycle of yajnic transmission of fragrance. Come, yoke the horses to the chariot and fly with your gifts for the generous yajamana.

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