ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 1
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
प्र सु ज्येष्ठं॑ निचि॒राभ्यां॑ बृ॒हन्नमो॑ ह॒व्यं म॒तिं भ॑रता मृळ॒यद्भ्यां॒ स्वादि॑ष्ठं मृळ॒यद्भ्या॑म्। ता स॒म्राजा॑ घृ॒तासु॑ती य॒ज्ञेय॑ज्ञ॒ उप॑स्तुता। अथै॑नोः क्ष॒त्रं न कुत॑श्च॒नाधृषे॑ देव॒त्वं नू चि॑दा॒धृषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । ज्येष्ठ॑म् । नि॒ऽचि॒राभ्या॑म् । बृ॒हत् । नमः॑ । ह॒व्यम् । म॒तिम् । भ॒र॒त॒ । मृ॒ळ॒यत्ऽभ्या॑म् । स्वादि॑ष्ठम् । मृ॒ळ॒यत्ऽभ्या॑म् । ता । स॒म्ऽराजा॑ । घृ॒तासु॑ती॒ इति॑ घृ॒तऽआ॑सुती । य॒ज्ञेऽय॑ज्ञे । उप॑ऽस्तुता । अथ॑ । ए॒नोः॒ । क्ष॒त्रम् । न । कुतः॑ । च॒न । आ॒ऽधृषे॑ । दे॒व॒ऽत्वम् । नु । चि॒त् । आ॒ऽधृषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सु ज्येष्ठं निचिराभ्यां बृहन्नमो हव्यं मतिं भरता मृळयद्भ्यां स्वादिष्ठं मृळयद्भ्याम्। ता सम्राजा घृतासुती यज्ञेयज्ञ उपस्तुता। अथैनोः क्षत्रं न कुतश्चनाधृषे देवत्वं नू चिदाधृषे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सु। ज्येष्ठम्। निऽचिराभ्याम्। बृहत्। नमः। हव्यम्। मतिम्। भरत। मृळयत्ऽभ्याम्। स्वादिष्ठम्। मृळयत्ऽभ्याम्। ता। सम्ऽराजा। घृतासुती इति घृतऽआसुती। यज्ञेऽयज्ञे। उपऽस्तुता। अथ। एनोः। क्षत्रम्। न। कुतः। चन। आऽधृषे। देवऽत्वम्। नु। चित्। आऽधृषे ॥ १.१३६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ के केभ्यः किं गृहीत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं मृळयद्भ्यामिदं निचिराभ्यां मृळयद्भ्यां सह ज्येष्ठं स्वादिष्ठं हव्यं बृहन्नमो मतिं च नु प्रसुभरत यज्ञेयज्ञ उपस्तुता घृतासुती सम्राजा ता प्रसुभरत। अथैनोः क्षत्रमाधृषे चिदपि देवत्वमाधृषे कुतश्चन न क्षीयेत ॥ १ ॥
पदार्थः
(प्र) प्रकर्षे (सु) शोभने (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्यम् (निचिराभ्याम्) नितरां सनातनाभ्याम् (बृहत्) महत् (नमः) अन्नम् (हव्यम्) ग्रहीतुं योग्यम् (मतिम्) प्रज्ञाम् (भरत) स्वीकुरुत (मृळयद्भ्याम्) सुखयद्भ्याम् (स्वादिष्ठम्) अतिशयेन स्वादु (मृळयद्भ्याम्) सुखकारकाभ्यां मातापितृभ्यां सह (ता) तौ (सम्राजा) सम्यग्राजेते (घृतासुती) घृतेनासुतिः सवनं ययोस्तौ (यज्ञेयज्ञे) प्रतियज्ञम् (उपस्तुता) उपगतैर्गुणैः प्रशंसितौ (अथ) अनन्तरम् (एनोः) एनयोः। अत्र छान्दसो वर्णलोप इत्यकारलोपः। (क्षत्रम्) राज्यम् (न) निषेधे (कुतः) कस्मादपि (चन) (आधृषे) आधर्षितुम् (देवत्वम्) विदुषां भावम् (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (आधृषे) आधर्षितुम् ॥ १ ॥
भावार्थः
ये बहुकालात्प्रवृत्तानामध्यापकोदेशकानां सकाशाद्विद्यां सदुपदेशाँश्च सद्यो गृह्णन्ति ते चक्रवर्त्तिराजानो भवितुमर्हन्ति नात्रैषामैश्वर्यं कदाचिद्धीयते ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सात ऋचावाले एक सौ छत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में कौन किन से क्या लेकर कैसे हों, इस विषय को कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (मृडयद्भ्याम्) सुख देते हुओं के समान (निचिराभ्याम्) निरन्तर सनातन (मृडयद्भ्याम्) सुख करनेवाले अध्यापक उपदेशक के साथ (ज्येष्ठम्) अतीव प्रशंसा करने योग्य (स्वादिष्ठम्) अत्यन्त स्वादु (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य पदार्थ (बृहत्) बहुतसा (नमः) अन्न और (मतिम्) बुद्धि को (नु) शीघ्र (प्र, सु, भरत) अच्छे प्रकार सुन्दरता से स्वीकार करो और (यज्ञेयज्ञे) प्रत्येक यज्ञ में (उपस्तुता) प्राप्त हुए गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (घृतासुती) जिनका घी के साथ पदार्थों का सार निकालना (सम्राजा) जो अच्छी प्रकाशमान (ता) उन उक्त महाशयों को भली-भाँति ग्रहण करो, (अथ) इसके अनन्तर (एनोः) इन दोनों का (क्षत्रम्) राज्य (आधृषे) ढिठाई देने को (चित्) और (देवत्वम्) विद्वान् पन (आधृषे) ढिठाई देने को (कुतश्चन) कहीं से (न) न नष्ट हो ॥ १ ॥
भावार्थ
जो बहुत काल से प्रवृत्त पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के समीप से विद्या और अच्छे उपदेशों को शीघ्र ग्रहण करते, वे चक्रवर्त्ति राजा होने के योग्य होते हैं और न इनका ऐश्वर्य्य कभी नष्ट होता है ॥ १ ॥
विषय
प्राणापान के लिए 'नमः, हव्य व मति' का भरण
पदार्थ
१. शरीर में प्राणापान ही मित्रावरुणौ हैं। ये सदा गतिमय होने से शरीर में अन्य इन्द्रियों के सो जाने पर भी जागते रहने से, नित्य-से हैं— निचिर हैं। ये हमारे जीवन को शक्ति देकर तथा दोषों को दूर करके सुखी करते हैं। (निचिराभ्याम्) = [नितरां चिरकालाभ्याम् - सा० ] नित्य प्रायः (मृळयद्भ्याम्) = हमारे जीवनों को सुखी बनानेवाले (स्वादिष्ठं मृळयद्भ्याम्) = अत्यन्त माधुर्य से सुखी करनेवाले इन प्राणापान के लिए (ज्येष्ठम्) = अत्यन्त प्रशस्त (बृहत्) = अतिप्रवृद्ध (नमः) = नमस्कारोपलक्षित स्तोत्र को (प्र सु भरत) = प्रकर्षेण उत्तमता से धारण करो। प्राणापान का स्तवन यही है कि उनके गुणों व लाभों का स्मरण करके प्राणायाम द्वारा उनकी साधना की जाए। इन प्राणापान के लिए (हव्यम्) = हव्य को भरत प्राप्त कराओ। 'हव्य को प्राप्त कराना', अर्थात् यज्ञशेष का सेवन करना। यज्ञ में सात्त्विक पदार्थों का ही प्रयोग होता है, अतः इन प्राणापान की शक्ति की वृद्धि के लिए हम सात्त्विक पदार्थों का सेवन करनेवाले बनें। (मतिम्) [भरत] = इन प्राणापान के लिए हम मति को धारण करें अर्थात् बुद्धि से इनके गुणों का विचार करें और इन्हें बढ़ी हुई शक्तिवाला करने के लिए प्रबल इच्छावाले हों। २. (ता) = वे प्राणापान (सम्राजा) = हमारे जीवनों को सम्यक् दीप्त करनेवाले हैं। शरीर को ये स्वस्थ व सबल बनाते हैं। (घृतासुती) = [घृतमासूयते याभ्याम् - सा०] मानस नैर्मल्य व मस्तिष्क की ज्ञानदीप्ति को ये उत्पन्न करनेवाले हैं। (यज्ञे यज्ञे उपस्तुता) = प्रत्येक यज्ञ में इनका स्तवन होता है। जब कभी विद्वानों के इकट्ठे होने का प्रसङ्ग होता है तो प्राणापान का स्तवन चलता है, सभी प्राणायाम के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। ३. (अथ) = अब, जब कि इन प्राणापानों के लिए 'नमः, हव्य व मति' का भरण किया जाता है जो भी अथवा किसी से भी न आभ्रषे धर्षण
भावार्थ
(तब एनो:) = इन दोनों का (क्षत्रम्) = बल कुतश्चन कहीं से भी अथवा किसी से भी (न आधृषे) = धर्षण
विषय
अधीन प्रजाओं का उत्तम प्रधान शासकों के प्रति पुत्रवत् कर्त्तव्य । श
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( निचिराभ्याम् ) अति वृद्ध, चिरकाल से विद्यमान परमेश्वर और आचार्य, माता और पिता इनको ( ज्येष्ठं ) सबसे अधिक, उत्तम ( नमः ) आदर और अन्न ( प्र सुभरत ) अच्छी प्रकार प्रदान करो। और ( मृडयद्भ्याम् ) माता पिता के समान सुख देने वाले और ( मृडयद्भ्याम् ) समस्त प्रजा को सुखी करने वाले राजा और सेनाध्यक्ष दोनों को भी ( स्वादिष्ठं ) अति स्वादयुक्त ( हव्यं ) ग्रहण करने योग्य अन्न और धन और ( मतिं ) ज्ञान ( प्र भरत ) अच्छी प्रकार प्रदान करो और उनके लिये लाओ । ( सम्राजा घृतासुती ) अच्छी प्रकार दीप्ति वाले गृह्य और आहवनीय अग्नि जिस प्रकार घृत की आहुति ग्रहण करने वाले होते हैं और जिस प्रकार अग्नि और विद्युत् क्रम से घृत ग्रहण करने और जल देने वाले होते हैं । उसी प्रकार ( ता ) वे दोनों माता पिता, ईश्वर आचार्य, और सभा और सेना के अध्यक्ष दोनों युगल ( सम्राजा ) ज्ञान, बल, और मान से प्रकाशित होने वाले, सम्राट् होकर ( घृतासुती ) घृत के समान पुष्टिकारक सारवान् पदार्थ को प्राप्त करने वाले और ‘घृत’ अर्थात् तेजोमय ज्ञान के देने वाले, या घृत अर्थात् जल द्वारा अभिषेक करने योग्य हैं। और वे दोनों ( यज्ञ यज्ञे उपस्तुता ) प्रत्येक यज्ञ में प्रत्येक सत्संग के अवसर पर स्तुति, आदर करने योग्य हैं । इसी प्रकार प्रति संग्राम के अवसर पर राजा और सेनाध्यक्ष दोनों ( उपस्तुता ) सम्मति ग्रहण करने योग्य हैं । ( अथ ) और ( एनोः ) उन दोनों का ( क्षत्रं ) बल वीर्य ( कुतः चन ) किसी भी शत्रु द्वारा ( आधृषे न ) धर्षण करने या हारने वाला न हो । और ( एनोः देवत्वं नु चित् ) उनकी विजयकामना दानशीलता और तेजस्वीपन भी किसी प्रकार ( कुतः च न आधृषे ) किसी से धर्षण या तिरस्कार प्राप्त होने योग्य न हो । अथवा ( कुतः चित्ः आधृषे न ) किसी कारण से भी उनका बलवीर्य, और दानशीलता और तेजस्वीपन व्यर्थ गर्व करने या प्रजा के घर्षण करने या सताने के लिये न हो । प्रत्युत—‘ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः । रघुवंश । अध्यात्म में प्राण और अपान उन दोनों को उत्तम स्वादयुक्त अन्न से पुष्ट करो । वे देह के सम्राट् हैं । जल के ग्रहण करने, तेज के धारण कराने वाले हैं। प्रत्येक देह या आत्मा में उनकी स्थिति है । उनके बल और तेज को कोई रोगादि घर्षण नहीं कर सके ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायू व इन्द्र इत्यादी पदार्थांच्या दृष्टान्ताने माणसांसाठी विद्या व उत्तम शिक्षण यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
जे बराच काळ शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्याकडून विद्या व चांगल्या उपदेशांना तात्काळ ग्रहण करतात. ते चक्रवर्ती राजा होण्यायोग्य असतात, त्यांचे ऐश्वर्य कधी नष्ट होत नाही. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Take the best and amplest food, and songs and tributes of adoration, holy and most delicious, and offer to the eternal, beneficent and gracious lords Mitra and Varuna, universal friend and adored love of everybody’s choice. Brilliant are they, regaled, revered and worshipped in yajna after yajna of social and sacred programmes with ghrta which they love and consume with delight. Their rule and power of order none can challenge, their brilliance and divinity none can resist.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who become how by taking what is told in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men offer excellent and ample adoration, reverence and most delicious and acceptable food to the teacher and preacher who confers happiness along with your joy-conferring parents and take advice or knowledge from those old or experienced persons. They shine well on account of their virtues, are honored by the gift of Ghee and other nourishing articles of food at every Yajna ( non-violent benevolent act) being well glorified. Their divinity and Kingdom ( guided by them ) can in no way be opposed, it can not be resisted.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( नि चिराभ्याम् ) नितरां सनातनाभ्याम् । = Very old, experienced. ( मुळयद्भ्याम् ) सुखकारकाभ्यां मातापितृभ्यां सह = Along with the parents who confer happiness. ( क्षत्रम् ) राज्यम् = Kingdom.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who acquire knowledge and take advice from the old experienced teachers and preachers, can become rulers of a vast and good empire. Their wealth never diminishes.
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