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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 139 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    अस्तु॒ श्रौष॑ट् पु॒रो अ॒ग्निं धि॒या द॑ध॒ आ नु तच्छर्धो॑ दि॒व्यं वृ॑णीमह इन्द्रवा॒यू वृ॑णीमहे। यद्ध॑ क्रा॒णा वि॒वस्व॑ति॒ नाभा॑ सं॒दायि॒ नव्य॑सी। अध॒ प्र सू न॒ उप॑ यन्तु धी॒तयो॑ दे॒वाँ अच्छा॒ न धी॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्तु॑ । श्रौष॑ट् । पु॒रः । अ॒ग्निम् । धि॒या । द॒धे॒ । आ । नु । तत् । शर्धः॑ । दि॒व्यम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ । इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । यत् । ह॒ । क्रा॒णा । वि॒वस्व॑ति । नाभा॑ । स॒म्ऽदायि॑ । नव्य॑सी । अध॑ । प्र । सु । नः॒ । उप॑ । य॒न्तु॒ । धी॒तयः॑ । दे॒वान् । अच्छ॑ । न । धी॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्तु श्रौषट् पुरो अग्निं धिया दध आ नु तच्छर्धो दिव्यं वृणीमह इन्द्रवायू वृणीमहे। यद्ध क्राणा विवस्वति नाभा संदायि नव्यसी। अध प्र सू न उप यन्तु धीतयो देवाँ अच्छा न धीतय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्तु। श्रौषट्। पुरः। अग्निम्। धिया। दधे। आ। नु। तत्। शर्धः। दिव्यम्। वृणीमहे। इन्द्रवायू इति। वृणीमहे। यत्। ह। क्राणा। विवस्वति। नाभा। सम्ऽदायि। नव्यसी। अध। प्र। सु। नः। उप। यन्तु। धीतयः। देवान्। अच्छ। न। धीतयः ॥ १.१३९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुरुषार्थप्रशंसामाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या धीतयो नेव धीतयो भवन्तो धिया नो देवानच्छोप यन्तु याभ्यां विवस्वति नाभा नव्यसी संदायि तौ क्राणा इन्द्रवायू ह वयं सुवृणीमहे यदहं श्रौषट् पुरोऽग्निं दिव्यं शर्ध आदधे यद्वयं प्रवृणीमहेऽध तत्सर्वेषां न्वस्तु ॥ —१ ॥

    पदार्थः

    (अस्तु) (श्रौषट्) हविर्दात्रीम् (पुरः) पूर्णम् (अग्निम्) विद्युतम् (धिया) कर्मणा (दधे) दधीय (आ) (नु) (तत्) (शर्द्धः) बलम् (दिव्यम्) दिवि शुद्धे भवम् (वृणीमहे) संभरेमहि (इन्द्रवायू) विद्युत्प्राणौ (वृणीमहे) (यत्) यौ (ह) किल (क्राणा) कुर्वाणौ (विवस्वति) सूर्ये (नाभा) मध्यभागाऽऽकर्षणे (संदायि) सम्प्रदीयते (नव्यसी) अतीव नूतना प्रज्ञा कर्म वा (अध) आनन्तर्ये (प्र) (सु) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नः) अस्मान् (उप) (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (धीतयः) (देवान्) विदुषः (अच्छ) अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (न) (धीतयः) अङ्गुलयः ॥ —१ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथाऽङ्गुलयः सर्वेषु कर्मसूपयुक्ता भवन्ति तथा पुरुषार्थे भवत। यतो युष्मासु बलं वर्धेत ॥ —१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ उनतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में पुरुषार्थ की प्रशंसा का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (धीतयः) अङ्गुलियों के (न) समान (धीतयः) धारणा करनेवाले आप (धिया) कर्म से (नः) हम (देवान्) विद्वान् जनों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (उप, यन्तु) समीप में प्राप्त होओ, जिन्होंने (विवस्वति) सूर्यमण्डल में (नाभा) मध्यभाग की आकर्षण विद्या अर्थात् सूर्यमण्डल के प्रकाश में बहुत से प्रकाश को यन्त्रकलाओं से खींच के एकत्र उसकी उष्णता करने में (नव्यसी) अतीव नवीन उत्तम बुद्धि वा कर्म (संदायि) सम्यक् दिया उन (क्राणा) कर्म करने के हेतु (इन्द्रवायु) बिजुली और प्राण (ह) ही को हम लोग (सु, वृणीमहे) सुन्दर प्रकार से धारण करें। मैं जिस (श्रौषट्) हविष् पदार्थ को देनेवाली विद्या बुद्धि (पुरः) पूर्ण (अग्निम्) विद्युत और (दिव्यम्) शुद्ध प्राणि में हुए (शर्धः) बल को (आ, दधे) अच्छे प्रकार धारण करूँ (यत्) जिन प्राण विद्युत् जन्य सुख को हम लोग (प्र, वृणीमहे) अच्छे प्रकार स्वीकार करें, (अध) इसके अनन्तर (तत्) वह सुख सबको (नु अस्तु) शीघ्र प्राप्त हो ॥ —१ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अङ्गुली सब कर्मों में उपयुक्त होती हैं, वैसे तुम लोग भी पुरुषार्थ में युक्त होओ, जिससे तुम में बल बढ़े ॥ —१ ॥

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    विषय

    ज्ञान, कर्म, उपासना का समन्वय

    पदार्थ

    १. (पुरः) = सबसे प्रथम (श्रौषट् अस्तु) = हमारे जीवन में ज्ञान का श्रवण हो। हम स्वाध्याय से जीवन को आरम्भ करें। तदनन्तर (धिया) = बुद्धिपूर्वक (अग्निं दधे) = मैं अग्नि का आधान करूँ। स्वाध्याय के साथ हम नियमपूर्वक अग्निहोत्र करनेवाले बनें। इस प्रकार स्वाध्याय व अग्निहोत्र करते हुए हम (नु) = अब (तत्) = उस (दिव्यं शर्ध:) = (शर्धस् = strength) दिव्य बल को (आवृणीमहे) = सर्वथा वरते हैं । (इन्द्रवायू) = इन्द्र और वायु को (वृणीमहे) = वरते हैं । 'इन्द्र' शक्ति का प्रतीक है और 'वायु' गति का। हम चाहते हैं कि हमारा जीवन शक्तिशाली हो और साथ ही वायु की भाँति क्रियाशील भी हो। २. (यत् ह) = जब निश्चय से (विवस्वति) = दीप्तिवाले-ज्ञान के प्रकाशवाले (नाभा) = यज्ञ में [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] (क्राणा) = अपने अर्थ का प्रकाश करती हुई (नव्यसी) = स्तुतिरूप नवतरा वाणी (सन्दायि) = बद्ध होती है (अध) = तब (नः) = हमें (धीतयः) = उत्तम कर्म (प्र सु उपयन्तु) = प्रकर्षेण समीपता से प्राप्त हों । (देवान् अच्छ न) = दिव्य गुणों की ओर प्राप्त होने के लिए ही मानो (धीतयः) = प्रशस्त कर्म प्राप्त हों। ३. यहाँ 'विवस्वति' शब्द स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान प्राप्ति का संकेत कर रहा है, 'नाभा' शब्द ब्रह्माण्ड के धारण करनेवाले यज्ञादि उत्तम कर्मों का निर्देश करता है और 'नव्यसी' शब्द स्तुति का वाचक है - 'नु स्तुतौ'। इस प्रकार यहाँ ज्ञान, कर्म व उपासना के समन्वय का प्रतिपादन है। यह समन्वय ही हमारी क्रियाओं को इस प्रकार पवित्र बनाता है कि हम अपने में दिव्य गुणों का वर्धन करते हुए प्रभु को प्राप्त करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने जीवनों में 'ज्ञान, कर्म व उपासना' का समन्वय करके चलें। यही दिव्यगुणों व प्रभु की प्राप्ति का मार्ग है।

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    विषय

    विद्वान् आचार्य गुरु के अधीन वेदाभ्यास करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (श्रौषट्) वेद का श्रवण ( अस्तु ) हो । मैं (पुरः) अपने आगे (धिया) कर्म और प्रज्ञा वा धारण क्रिया के सहित ( अग्निम् ) ज्ञानवान् ज्ञान मार्ग में आगे ले चलने वाले आचार्य को ( दधे ) उपदेष्टा, आदर्श रूप में स्थापित करूं । ( नु ) तदन्तर ( तत् शर्धः ) उसके ( दिव्यं ) दिव्य, अद्भुत ज्ञान और बल को मैं ( आ दधे ) धारण करूं । हम सब शिष्यगण भी उस ( अग्निम् ) अग्नि, ज्ञानमय, तेजस्वी पुरुष को ( वृणीमहं ) आचार्यरूप से वरण करें और ( इन्द्रवायू ) हम लोग इन्द्र ऐश्वर्यवान्, अज्ञाननाशक वायु के समान प्राणप्रद, ज्ञानजीवन के दाता दोनों को भी ( वृणीमहे ) स्वीकार करें । ( यत् ) जिस प्रकार (नाभा) नाभि या केन्द्र में अरे लगे रहते हैं उसी प्रकार ( नाभा ) सबको अपने भीतर बांध लेने वाले और ( विवस्वति ) सूर्य में जिस प्रकार किरणें रहती है उसी प्रकार अपने में विशेष रूप से वसु, ब्रह्मचारी, अन्तेवासियों को अपने अधीन बसाने वाले गुरु में ( क्राणा ) समस्त कार्यों का प्रतिपादन करने वाली ( नव्यसी ) नयी से नयी, अतिस्तुत्य वाणी ( संदायि ) अच्छी प्रकार बंधती है । अथवा उसी के आश्रय रह कर वह वेदवाणी ( संदायि ) अच्छी प्रकार प्रदान की जाती है । ( अध ) और ( धीतयः न ) अंगुलियां जिस प्रकार पकड़ने योग्य पदार्थ को पकड़ लेती हैं और ( धीतयः न ) जिस प्रकार स्तुतियां स्तुत्य उपास्य देव को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार ( नः देवान् ) हम विद्याभिलाषी शिष्य जनों को ( धीतयः ) उत्तम वेद वाणियें, प्रज्ञाएं और कर्म भी ( प्र सु उप यन्त ) उत्तम रूप से, सुख देती हुई प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वानांच्या शीलाचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी हाताची बोटे सर्व कर्म करताना उपयुक्त ठरतात तसे तुम्हीही पुरुषार्थी व्हा. ज्यामुळे तुमचे बल वाढेल. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May my voice be heard! I have realised the energy and power of Agni, light and fire, in full with my intellect and understanding. Then we opt for the divine force and power of nature and move on to the study and application of the power of wind and electricity which, active at the centre of the sun, give us the newest and latest form of energy and power. May all our intellectual efforts and intelligential vision reach the forces of nature and analyse and discover their energy and powers. Let us reach there well with all our intellect and imagination and let our efforts benefit the noblest humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The final object of human pursuit is glorified here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you are active like moving fingers and are thoughtful; you approach the truthful learned persons. We seek to acquire energy for contemplation and Prana (nuclear power) which have their base in solar energy. Let me have that fire in which oblations are put, which ignite energy and divinity. Let others follow me on the same path and use the power for various useful purposes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Fingers are principal instruments in human activities. All human activities should thus be well coordinated like them. (2) Spiritual second meaning-Let my prayer be heard. With my intellect, I place the Omniscient God in my heart. I pray for the divine strength. We also invoke the soul and the Prana (vital breath). I am set in the devotion for attainment of the Divine Light. All our thoughts and actions go near the enlightenment to the embodiment of these fingers. Five fingers are five sensual senses (Jnanendriyas).

    Foot Notes

    (श्रौषट् ) हविर्दात्नीम् - Givers of oblations or in which oblations are put. ( इन्द्रवायू) विद्युत्प्राणौ —Electricity and Prana. ( विवस्वति) सूर्ये — in the sun (धीतयः) अंगुल्यः -Fingers.

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