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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    वे॒दि॒षदे॑ प्रि॒यधा॑माय सु॒द्युते॑ धा॒सिमि॑व॒ प्र भ॑रा॒ योनि॑म॒ग्नये॑। वस्त्रे॑णेव वासया॒ मन्म॑ना॒ शुचिं॑ ज्यो॒तीर॑थं शु॒क्रव॑र्णं तमो॒हन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वे॒दि॒ऽसदे॑ । प्रि॒यऽधा॑माय । सु॒ऽद्युते॑ । धा॒सिम्ऽइ॑व । प्र । भ॒र॒ । योनि॑म् । अ॒ग्नये॑ । वस्त्रे॑णऽइव । वा॒स॒य॒ । मन्म॑ना । शुचि॑म् । ज्यो॒तिःऽर॑थम् । शु॒क्रऽव॑र्णम् । त॒मः॒ऽहन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये। वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतीरथं शुक्रवर्णं तमोहनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेदिऽसदे। प्रियऽधामाय। सुऽद्युते। धासिम्ऽइव। प्र। भर। योनिम्। अग्नये। वस्त्रेणऽइव। वासय। मन्मना। शुचिम्। ज्योतिःऽरथम्। शुक्रऽवर्णम्। तमःऽहनम् ॥ १.१४०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वत्पुरुषार्थगुणविषयः प्रोच्यते ।

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं मन्मना वेदिषदेऽग्नये धासिमिव प्रियधामाय सुद्युते विदुषे योनिं प्रभर तं ज्योतीरथं तमोहनं शुक्रवर्णं रथं शुचिं वस्त्रेणेव वासय ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (वेदिषदे) यो वेद्यां सीदति तस्मै (प्रियधामाय) प्रियं धाम यस्य तस्मै (सुद्युते) शोभना द्युतिर्यस्य तत्सम्बुद्धौ (धासिमिव) दधति प्राणान् येन तमिव धासिरित्यन्नना०। निघं० २। ७। (प्र) (भर) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (योनिम्) गृहम् (अग्नये) पावकाय (वस्त्रेणेव) यथा पटेन (वासय) आच्छादय। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (मन्मना) मन्यते जानाति येन तेन (शुचिम्) पवित्रम् (ज्योतीरथम्) प्रकाशयुक्तं रमणीयं यानम् (शुक्रवर्णम्) शुद्धस्वरूपम् (तमोहनम्) यस्तमो हन्ति तम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा होतारौ वह्नौ काष्ठानि संस्थाप्य घृतादिहविर्हुत्वेमं वर्धयन्ति तथा पवित्रं जनं भोजनाऽऽच्छादनैर्विद्वांसो वर्द्धयेयुः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब १४० एकसौ चालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के पुरुषार्थ और गुणों का विषय कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! आप (मन्मना) जिससे मानते-जानते उस विचार से (वेदिषदे) जो वेदी में स्थिर होता उस (अग्नये) अग्नि के लिये (धासिमिव) जिससे प्राणों को धारण करते उस अन्न के समान हवन करने योग्य पदार्थ को जैसे वैसे (प्रियधामाय) जिसको स्थान पियारा उस (सुद्युते) सुन्दर कान्तिवाले विद्वान् के लिये (योनिम्) घर का (प्र, भर) अच्छे प्रकार धारण कर और उस (ज्योतीरथम्) ज्योति के समान (तमोहनम्) अन्धकार का विनाश करनेवाले (शुक्रवर्णम्) शुद्धस्वरूप (शुचिम्) पवित्र मनोहर यान को (वस्त्रेणेव) पट वस्त्र से जैसे (वासय) ढाँपो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे होता जन आग में समिधरूप काष्ठों को अच्छे प्रकार स्थिर कर और उसमें घृत आदि हवि का हवन कर इस आग को बढ़ाते हैं, वैसे शुद्ध जन को भोजन और आच्छादन अर्थात् वस्त्र आदि से विद्वान् जन बढ़ावें ॥ १ ॥

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    विषय

    कैसा भोजन व वस्त्र?

    पदार्थ

    १. (वेदिषदे) = यज्ञवेदी पर बैठनेवाले के लिए, अर्थात् यज्ञशील पुरुष के लिए (प्रियधामाय) = जिसे तेजस्विता प्रिय है उस पुरुष के लिए [धाम - तेज], (सुद्युते) = उत्तम ज्ञान की ज्योतिवाले के लिए और (अग्नये) = प्रगतिशील मनुष्य के लिए (योनिम्) = उस मूल उत्पत्तिस्थान प्रभु को (धासिम् इव) = शरीर के धारक भोजन की भाँति (प्रभर प्रकर्षेण) = प्राप्त कराइए । 'प्रभु का उपासन' ही उसका आध्यात्मिक भोजन बन जाए । जिस प्रकार भोजन से शरीर का पोषण होता है, उसी प्रकार प्रभु के उपासन से इसकी आत्मा को बल मिलता है । २. इस (शुचिम्) = पवित्र मार्ग से धन कमानेवाले, (ज्योतिरथम) = ज्योतिर्मय शरीररूप रथवाले (शुक्रवर्णम्) = स्वास्थ्य के कारण दीप्त वर्णवाले, (तमोहनम्) = तमोगुण को नष्ट करनेवाले इस व्यक्ति को (मन्मना) = ज्ञानपूर्वक उच्चारित स्तोत्रों से इस प्रकार (वासया) = आच्छादित कीजिए (इव) = जैसे (वस्त्रेण) = वस्त्र से आच्छादित करते हैं । ये मन्मना ज्ञानपूर्वक उच्चारण किये गये स्तोत्र इसे राग-द्वेष की आँधियों से इस प्रकार सुरक्षित करें जैसे कि वस्त्र हमें सर्दी-गर्मी से बचाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का उपासन ही हमारा अध्यात्म - भोजन है, ज्ञानपूर्वक उच्चारित स्तोत्र ही हमारे वस्त्र हों ।

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् राजा को पोषण करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( वेदिषदे ) जिस प्रकार वेदि में विराजने वाले ( प्रियधामाय ) सुन्दर प्रकाशवान्, ( सुद्युते ) सुखप्रद उत्तम कान्ति युक्त ( अग्नये ) अग्नि को प्रदीप्त करने और बढ़ाने के लिये ( धासिम् इव ) उसके पोषक काष्ठ और चरु प्रदान किया जाता है उसी प्रकार हे विद्वान् प्रजाजन ! तू (वेदिषदे) सब पदार्थों का लाभ कराने वाली भूमि पर राजा रूप से विराजने वाले, (प्रियधामाय) सबको प्रिय लगने वाले, तेज, नाम, कीर्ति और जन्म एवं, स्थान और धारण सामर्थ्य वाले, ( सुद्युते ) उत्तम कान्तिमान्, तेजस्वी, (अग्नये) अग्रणी, नायक पुरुष के पालन पोषण और वृद्धि के लिये ( धासिम् ) प्राणों के धारक अन्नादि भोग्य पदार्थ के समान राष्ट्र और प्रजाजन को धारण करने वाले साधन को ( प्र भर ) अच्छी प्रकार उपस्थित करो । (तमोहनं) सूर्य के समान अन्धकार और शोक दूर, करने वाले, ( शुक्रवर्णं ) शुद्ध, उच्च वर्ण के ( ज्योतीरथं ) सुवर्ण चान्दी आदि से बने रथ वाले, (शुचिं) शुद्ध आचार चरित्र के पुरुष को ( वस्त्रेण, इव ) वस्त्र के समान ( मम्मना ) मान और आदर से भी ( वासय ) आच्छादित करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वानांचा पुरुषार्थ व सुखाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे होतागण अग्नीत समिधारूपी काष्ठांना चांगल्या प्रकारे स्थिर करून त्यात घृत इत्यादी हवीचे हवन करून अग्नी वृद्धिंगत करतात तसे पवित्र लोकांनी भोजन व आच्छादन अर्थात् वस्त्र इत्यादींनी विद्वान लोकांना वाढवावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As you bring holy food for the holy fire burning bright in the vedi, lovely seat of its choice, so for Agni, with a sincere mind and soul, prepare a happy home and a brilliant chariot of light, pure, blazing white dispelling darkness, and cover it safe as with a cloth, beautifully and fragrantly.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The aim of a scholar described here to emphasize the industriousness

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person should be provided house and other facilities. He will be happy to get neat clean good and open dwelling. He is a man of virtues and seated at the altar he puts his oblations in the fire, like the foods. Also provide him a bright and splendid conveyance.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile showing likeness between a scholar and yajna. While the sacred fire blazes more with the ghee pourings, a learned person is enthused more when necessary and proper conditions are provided to him for a decent living.

    Foot Notes

    (धासिम्) दधति प्राणान् येन तत् अन्नम् । धा सिदित्यन्ननाम (NG 2.7 ) = Food. (योनिम्) गृहम् = House.

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