ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 141/ मन्त्र 1
बळि॒त्था तद्वपु॑षे धायि दर्श॒तं दे॒वस्य॒ भर्ग॒: सह॑सो॒ यतो॒ जनि॑। यदी॒मुप॒ ह्वर॑ते॒ साध॑ते म॒तिर्ऋ॒तस्य॒ धेना॑ अनयन्त स॒स्रुत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठबट् । इ॒त्था । तत् । वपु॑षे । धा॒यि॒ । द॒र्श॒तम् । दे॒वस्य॑ । भर्गः॑ । सह॑सः । यतः॑ । जनि॑ । यत् । ई॒म् । उप॑ । ह्वर॑ते । साध॑ते । म॒तिः । ऋ॒तस्य॑ । धेनाः॑ । अ॒न॒य॒न्त॒ । स॒ऽस्रुतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्ग: सहसो यतो जनि। यदीमुप ह्वरते साधते मतिर्ऋतस्य धेना अनयन्त सस्रुत: ॥
स्वर रहित पद पाठबट्। इत्था। तत्। वपुषे। धायि। दर्शतम्। देवस्य। भर्गः। सहसः। यतः। जनि। यत्। ईम्। उप। ह्वरते। साधते। मतिः। ऋतस्य। धेनाः। अनयन्त। सऽस्रुतः ॥ १.१४१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 141; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्गुणानुपदिशति ।
अन्वयः
हे मनुष्या यद् दर्शतं देवस्य भर्गः प्रति मम मतिरुपह्वरते साधते च सस्रुत ऋतस्य धेना ईमनयन्त यतस्तत् सहसो जनि ततस्तद् बडित्था वपुषे युष्माभिर्धायि ॥ १ ॥
पदार्थः
(बट्) सत्यम् (इत्था) अनेन प्रकारेण विदुषः (तत्) (वपुषे) सुरूपाय (धायि) ध्रियेत (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (देवस्य) विदुषः (भर्गः) शुद्धं तेजः (सहसः) विद्याबलवतः (यतः) (जनि) उत्पद्यते। अत्राऽडभावः। (यत्) (ईम्) सर्वतः (उप) (ह्वरते) (साधते) (मतिः) प्रज्ञा (ऋतस्य) सत्यस्य (धेनाः) वाण्यः (अनयन्त) नयन्ति (सस्रुतः) याः समानं सत्यं मार्गं स्रुवन्ति गच्छन्ति ताः ॥ १ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या यया प्रज्ञया वाचा सत्याचारेण च विद्यावतां द्रष्टव्यं स्वरूपं ध्रियते कामश्च साध्यते तां वाचं तत्सत्यं च यूयं नित्यं स्वीकुरुत ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ इकतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वानों के गुणों का उपदेश करते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जिस (दर्शतम्) देखने योग्य (देवस्य) विद्वान् के (भर्गः) शुद्ध तेज के प्रति मेरी (मतिः) बुद्धि (उपह्वरते) जाती कार्यसिद्धि करती और (सस्रुतः) जो समान सत्यमार्ग को प्राप्त होतीं वे (ऋतस्य) सत्य व्यवहार की (धेनाः) वाणियों को (ईम्) सब ओर से (अनयन्त) सत्यता को पहुँचातीं तथा (यतः) जिस कारण (तत्) वह तेज (सहसः) विद्याबल से (जनि) उत्पन्न होता उस कारण (बडित्था) वह सत्य तेज अर्थात् विद्वानों के गुणों का प्रकाश इस प्रकार अर्थात् उक्त रीति से (वपुषे) अपने सुरूप के लिये तुम लोगों से (धायि) धारण किया जाय ॥ १ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस उत्तम बुद्धि और सत्य आचरण से विद्यावानों का देखने योग्य स्वरूप धारण किया जाता और काम सिद्ध किया जाता, उस वाणी और उस सत्य आचार को तुम नित्य स्वीकार करो ॥ १ ॥
विषय
देव के भर्ग का धारण
पदार्थ
१. (बट्) = सचमुच (इत्था) = इस प्रकार-गत सूक्त के अनुसार प्रभुस्तवन करने पर (वपुषे) = इस स्तोता के शरीर के लिए (तत्) = उस (देवस्य) = प्रभु का (दर्शतं भर्गः) = दर्शनीय तेज (धायि) = धारण किया जाता है। (यतः) = क्योंकि यही तेज (सहसः) = सहनशक्ति का (जनि) = उत्पादक है। इस तेज को धारण करनेवाला उपासक सहनशक्तिवाला बनता है, बड़ी से बड़ी आपत्ति को भी प्रसन्नता से सहन करता है। २. (यत्) = जब ईम् निश्चय से (मतिः) = मेरी बुद्धि (उपह्वरते) = इस तेज को धारण करने के लिए गतिवाली होती है तब साधते अपने जीवन के उद्देश्य को सिद्ध करनेवाली बनती है। उस समय (सस्स्रुतः) = साथ-साथ गतिवाली (ऋतस्य) = सत्य की (धेना) = वेदरूप वाणियाँ अनयन्त इस तेज के धारण करनेवाले को लक्ष्यस्थान पर प्राप्त कराती हैं। (ऋग्यजुः) = सामरूप ये वाणियाँ उसके जीवन में 'विज्ञान, कर्म व उपासना' के रूप में साथ-साथ प्रकट होकर उसे ब्रह्म को प्राप्त करानेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ - उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी बनकर 'सहस्' वाला होता है। इसके जीवन में 'विज्ञान, कर्म व उपासना' का समन्वय होकर इसे लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाला होता है।
विषय
सत्य प्रकाश में अग्नि और गौओं के दृष्टान्त से विद्वान् और वेदवाणियों का वर्णन ।
भावार्थ
( देवस्य ) प्रकाशमान तेजस्वी अग्नि का ( भर्गः ) पदार्थों को परिपक्व करने का ताप ही ( दर्शतम् ) समस्त पदार्थों को दिखलाने और प्रकाशित करने वाला होता है । ( तद् ) वही तेज ( वपुषे ) शरीर की रक्षा, पोषण और वृद्धि के लिये भी ( धायि ) धारण करने योग्य है । ( इत्था बट् ) यह बात इस प्रकार से सर्वथा सत्य है । वह अग्नि का तेज ( यतः ) जिस कारण से ( सहसः ) बल या शक्ति से ( जनि ) उत्पन्न हुआ करता है इसी कारण से वह शरीर में भी बल को उत्पन्न करता है । ( मतिः ) मनन करने वाली बुद्धि नाम अन्तःकरण भी ( ईम् उपह्वरति) इसको ही सब प्रकार से आश्रय करता है। उस पर ही निर्भर है । और (ईम् साधते) उसकी ही साधना करती है अर्थात् वह भी तेज से ही उत्पन्न होकर भीतरी तेज को उत्पन्न करती है ( धेनाः सस्रुतः ) दूध की धारा वाली गौएं जिस प्रकार अपने वत्स को ही प्राप्त करती हैं उसी प्रकार ( ऋतस्य ) जल को धारण करने और पान कराने वाली मेघ की धाराएं भी ( सस्रुतः ) समान रूप से प्रवाहित होती हुईं ( ईम् अनयन्त ) उस महान् अग्नि के तेज रूप मूल कारण तक ले जाती हैं । ठीक उसी प्रकार ( देवस्य भर्गः ) ज्ञानवान् पुरुष का दुष्टों को संताप देने वाला तेज भी ( यतः ) जिस कारण से ( सहसः ) बल से ही ( जनि ) उत्पन्न होता है। और उसका वह ( दर्शतं तत् ) दर्शनीय तेज भी ( बड् इत्था ) सचमुच एक बल ही है। ( मतिः ईम् उपह्वरते साधते ) बुद्धि भी उसको स्वीकार करती और उसको प्रमाणित और अधिक बलशाली बनाती है ( सस्रुतः ऋतस्य धेनाः ) एक समान मार्ग से जाने वाली ज्ञान की वाणियां भी उसी तक हमें पहुंचाती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३, ६, ११ जगती । ४, ७,९, १० निचृज्जगती । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या उत्तम बुद्धी, वाणी व सत्य आचरणाने विद्वानांचे स्वरूप दिसून येते व कार्य सिद्ध केले जाते त्या वाणी व सत्य आचरणाचा तुम्ही नित्य स्वीकार करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Truly thus, by the grace of Divinity, is radiated and received the wonderful splendour of Agni’s glory, and therein lies the seed, the birth, the very life of the strength and victory of our soul’s existence: therefrom is the light radiated and received for the beauty of our embodied soul so that even if our mind ever deviates from truth, the voices of Law and Truth of Eternity ever resounding, ever flowing with currents of nature’s light, call us back to the right path and, thus beatified, our mind achieves the success we want.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned persons are detailed below.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
My psychological waves move towards the visible pure radiance of an enlightened person. and it accomplished my purposes thereby. These words of truth take me towards the path of righteousness which ultimately leads me to that radiance. The strength of wisdom generates that splendor. O man! you also should bear in you that divine splendor, for seeking the splendor for your physical and mental beauty.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should always seek that divine intellect, that language and that truthful conduct from the divine fountain-head.
Foot Notes
( वपुषे ) सुरुपाय = For good form or beauty of body and mind. (भर्ग:) शुद्धंतेजः = Pure splendor. ( धेना: ) वाण्य: = Speeches or words.
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