ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 147/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
क॒था ते॑ अग्ने शु॒चय॑न्त आ॒योर्द॑दा॒शुर्वाजे॑भिराशुषा॒णाः। उ॒भे यत्तो॒के तन॑ये॒ दधा॑ना ऋ॒तस्य॒ साम॑न्र॒णय॑न्त दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठक॒था । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । शु॒चय॑न्तः । आ॒योः । द॒दा॒शुः । वाजे॑भिः । आ॒शु॒षा॒णाः । उ॒भे इति॑ । यत् । तो॒के इति॑ । तन॑ये । दधा॑नाः । ऋ॒तस्य॑ । साम॑न् । र॒णय॑न्त । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कथा ते अग्ने शुचयन्त आयोर्ददाशुर्वाजेभिराशुषाणाः। उभे यत्तोके तनये दधाना ऋतस्य सामन्रणयन्त देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठकथा। ते। अग्ने। शुचयन्तः। आयोः। ददाशुः। वाजेभिः। आशुषाणाः। उभे इति। यत्। तोके इति। तनये। दधानाः। ऋतस्य। सामन्। रणयन्त। देवाः ॥ १.१४७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 147; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मित्राऽमित्रयोर्गुणानाह ।
अन्वयः
हे अग्ने ददाशुरायोस्ते यद्ये वाजेभिः सह आशुषाणास्तनये तोके उभे दधानाः शुचयन्तो देवाः सन्ति ते सामन्नृतस्य कथा रणयन्त ॥ १ ॥
पदार्थः
(कथा) कथम् (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (शुचयन्तः) ये शुचीनात्मन इच्छन्ति ते (आयोः) विदुषः (ददाशुः) दातुः (वाजेभिः) विज्ञानादिभिर्गुणैः सह (आशुषाणाः) आशुविभाजकाः (उभे) द्वे वृत्ते (यत्) (तोके) अपत्ये (तनये) पुत्रे (दधानाः) (ऋतस्य) सत्यस्य (सामन्) सामनि वेदे (रणयन्त) शब्दयेयुः। अत्राडभावः। (देवाः) विद्वांसः ॥ १ ॥
भावार्थः
सर्वे अध्यापका विद्वांसोऽनूचानमाप्तं विद्वांसं प्रति प्रच्छेयुर्वयं कथमध्यापयेम स तान् सम्यक् शिक्षेत यथैते प्राप्तविद्यासुशिक्षा जितेन्द्रिया धार्मिकाः स्युस्तथा भवन्तोऽध्यापयन्त्वित्युत्तरम् ॥ १ ॥
हिन्दी (1)
विषय
अब एकसौ सैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्र और अमित्र के गुणों का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वान् (ददाशुः) देनेवाले (आयोः) विद्वान् ! जो आप (ते) उन तुम्हारे (यत्) जो (वाजेभिः) विज्ञानादि गुणों के साथ (आशुषाणाः) शीघ्र विभाग करनेवाले (तनये) पुत्र और (तोके) पौत्र आदि के निमित्त (उभे) दो प्रकार के चरित्रों को (दधानाः) धारण किये हुए (शुचयन्तः) पवित्र व्यवहार अपने को चाहते हुए (देवाः) विद्वान् जन हैं वे (सामन्) सामवेद में (ऋतस्य) सत्य व्यवहार का (कथा) कैसे (रणयन्त) वाद-विवाद करें ॥ १ ॥
भावार्थ
सब अध्यापक विद्वान् जन उपदेशक शास्त्रवेत्ता धर्मज्ञ विद्वान् को पूछें कि हम लोग कैसे पढ़ावें, वह उन्हें अच्छे प्रकार सिखावे, क्या सिखावे ? कि जैसे ये विद्या तथा उत्तम शिक्षा को प्राप्त इन्द्रियों को जीतनेवाले धार्मिक पढ़नेवाले हों वैसे आप लोग पढ़ावें, यह उत्तर है ॥ १ ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मित्र व अमित्रांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
सर्व अध्यापकांनी विद्वान, उपदेशक, शास्त्रवेत्ते, धर्मज्ञ विद्वानांना विचारावे की आम्ही चांगल्या प्रकारे कसे शिकवावे? काय शिकवावे? विद्या सुशिक्षणाने जितेंद्रिय व धार्मिक बनतील तसे तुम्ही शिकवावे हे उत्तर आहे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and life, how do your flames of fire, and brilliant scholars, blazing and purifying, givers of life with food, energy and knowledge to both children and grand children, and bearing food both for body and mind, rejoice and participate in the songs of Veda and the yajna of Truth, Law and divine knowledge?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a friend and foe are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great scholar! please tell how we reach other learned persons. They are co-operative with a noble man of charitable disposition. Such people desire to distribute the wealth of knowledge among the sons and grandsons by way of teaching and preaching of theoretical and practical knowledge. They lead an absolutely pure life and disseminate the teachings of Sama Veda, and other Vedas.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All learned teachers should ask for an absolutely truthful scholar who is well versed in all the Vedas, as to how we should teach. He should tell them to teach in such a way that his pupils may become masters of their senses and righteous.
Foot Notes
(वाजेभिः) विज्ञानदिभिर्गुणैः = With special knowledge and other virtues. (रणयन्तः) शब्दयेयुः = Speak out or teach.
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