ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 148/ मन्त्र 1
मथी॒द्यदीं॑ वि॒ष्टो मा॑त॒रिश्वा॒ होता॑रं वि॒श्वाप्सुं॑ वि॒श्वदे॑व्यम्। नि यं द॒धुर्म॑नु॒ष्या॑सु वि॒क्षु स्व१॒॑र्ण चि॒त्रं वपु॑षे वि॒भाव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठमथी॑त् । यत् । ई॒म् । वि॒ष्टः । मा॒त॒रिश्वा॑ । होता॑रम् । वि॒श्वऽअ॑प्सुम् । वि॒श्वऽदे॑व्यम् । नि । यम् । द॒धुः । म॒नु॒ष्या॑सु । वि॒क्षु । स्वः॑ । न । चि॒त्रम् । वपु॑षे । वि॒भाऽव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मथीद्यदीं विष्टो मातरिश्वा होतारं विश्वाप्सुं विश्वदेव्यम्। नि यं दधुर्मनुष्यासु विक्षु स्व१र्ण चित्रं वपुषे विभावम् ॥
स्वर रहित पद पाठमथीत्। यत्। ईम्। विष्टः। मातरिश्वा। होतारम्। विश्वऽअप्सुम्। विश्वऽदेव्यम्। नि। यम्। दधुः। मनुष्यासु। विक्षु। स्वः। न। चित्रम्। वपुषे। विभाऽवम् ॥ १.१४८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 148; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वदग्निगुणानुपदिशति।
अन्वयः
हे मनुष्या यद्यो विष्टो मातरिश्वा विश्वदेव्यं विश्वाप्सुं होतारमग्निं मथीत् विद्वांसो मनुष्यासु विक्षु स्वर्ण चित्रं वपुषे विभावं यमीं निदधुस्तं यूयं धरत ॥ १ ॥
पदार्थः
(मथीत्) मथ्नाति (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (विष्टः) प्रविष्टः (मातरिश्वा) अन्तरिक्षे शयानो वायुः (होतारम्) आदातारम् (विश्वाप्सुम्) विश्वं समग्रं रूपं गुणो यस्य तम् (विश्वदेव्यम्) विश्वेषु देवेषु पृथिव्यादिषु भवम् (नि) (यम्) (दधुः) दधति (मनुष्यासु) मनुष्यसम्बन्धिनीषु (विक्षु) प्रजासु (स्वः) सूर्य्यम् (न) इव (चित्रम्) अद्भुतम् (वपुषे) रूपाय (विभावम्) विशेषेण भावुकम् ॥ १ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या वायुवद् व्यापिकां विद्युतं मथित्वा कार्याणि साध्नुवन्ति ते अद्भुतानि कर्माणि कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ अड़तालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् और अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जो (विष्टः) प्रविष्ट (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोनेवाला पवन (विश्वदेव्यम्) समस्त पृथिव्यादि पदार्थों में हुए (विश्वाप्सुम्) समग्र रूप ही जिसका गुण उस (होतारम्) सब पदार्थों के ग्रहण करनेवाले अग्नि को (मथीत्) है वा विद्वान् जन (मनुष्यासु) मनुष्यसम्बन्धिनी (विक्षु) प्रजाओं में (स्वः) सूर्य के (न) समान (चित्रम्) अद्भुत और (वपुषे) रूप के लिये (विभावम्) विशेषता से भावना करनेवाले (यम्) जिस अग्नि को (ईम्) सब ओर से (नि, दधुः) निरन्तर धारण करते हैं उस अग्नि को तुम लोग धारण करो ॥ १ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य पवन के समान व्याप्त होनेवाली बिजुली रूप आग को मथ के कार्य्यों की सिद्धि करते हैं, वे अद्भुत कार्यों को कर सकते हैं ॥ १ ॥
विषय
प्रभु-मन्थन
पदार्थ
१. (यत्) = जब मनुष्य (ईम्) = निश्चय से (विष्ट:) = (प्रविष्टः ) इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में, बुद्धि को आत्मा में और आत्मा को परमात्मा में प्रविष्ट करनेवाला बनता है तब यह 'विष्ट' कहलाता है । यही अन्तर्मुखता है। यह अन्तर्मुखवाला (मातरिश्वा) = अन्तर्मुख- यात्रा के उद्देश्य से ही प्राणसाधना करनेवाला जीव मथीत् परमात्मा का मन्थन करता है, हृदय में उसका विचार करता है, उस परमात्मा को (होतारम्) = होता के रूप में देखता है। वे प्रभु होता हैं, सब कुछ देनेवाले हैं, (विश्वाप्सुम्) = [विश्वरूपम्] सारे संसार को रूप देनेवाले हैं, (विश्वदेव्यम्) = सूर्यादि सब देवों के अन्दर होनेवाले हैं। इन सबमें स्थित होकर इनको दीप्ति प्राप्त करानेवाले हैं। २. प्रभु वे हैं (यम्) = जिनको (मनुष्यासु विक्षु निदधुः) = विचारशील प्रजाओं में स्थापित करते हैं। सर्वव्यापकता के नाते प्रभु सर्वत्र हैं, परन्तु प्रभु का प्रकाश मननशील व्यक्तियों के हृदयों में ही होता है। वे प्रभु (स्वः न) = सूर्य के समान (चित्रम्) = अद्भुत हैं अथवा ज्ञान का प्रकाश देनेवाले हैं, (वपुषे) = [वप - बोना] सब दिव्यगुणों के बीज बोने के लिए वे प्रभु (विभावम्) = [विविधप्रकाशवन्तम्] विविध प्रकाशवाले हैं ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराके वे अपने उपासकों में दिव्यगुणों के बीजों का वपन करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्रियों को मन में प्रविष्ट करनेवाला प्राणसाधक पुरुष उस 'होता, विश्वरूप, विश्वदेव' प्रभु का दर्शन करता है। वे प्रभु उसे प्रकाश प्राप्त कराके उसके जीवन में सद्गुणों के बीज का वपन करते हैं।
विषय
मातरिश्वा आचार्य का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( ईम् मातरिश्वा विष्टः ) इस अग्नि में वायु सब प्रकार से प्रविष्ट हो जाता है और उसको ( विश्वाप्सुं ) समग्र रूपों से युक्त, ( विश्वदेव्यम् ) सब दिव्य पदार्थों में व्यापक जान कर विद्वान् पुरुष ( मथीत् ) मथ कर उत्पन्न करता है और जिस ( वपुषे विभावम् ) देह में विशेष कान्ति से युक्त अग्नि को ( मनुष्यासु विक्षु ) मननपूर्वक कार्यों को करने वाली मानव प्रजाओं में, यज्ञों में सुरक्षित रूप से स्थापित करते हैं उसी प्रकार ( यत् ) जिसको प्राप्त होकर ( मातरिश्वा ) अपने माता, निर्माता, ज्ञानदाता, के अधीन रह कर विद्या को प्राप्त होने और जीवन धारण करने वाला, माता की गोद में बालक के समान नव शिष्य ( विष्टः ) प्रविष्ट होकर, उसका आश्रय लेकर ( होतारं ) ज्ञान के देने वाले और शिष्य को अनुग्रहपूर्वक स्वीकार करने वाले ( विश्वाप्सुम् ) समस्त ज्ञानों, कर्मों और नाना रूप पदार्थों के जानने वाले (विश्वदेव्यम्) सब ज्ञानेच्छुक विद्यार्थियों के हितकारी आचार्य को प्राप्त होकर (मथीत्) दूध में से मक्खन के समान ज्ञानरूप सार को मथ कर प्राप्त करे । प्रश्नोत्तर और सद्-वाद द्वारा उससे ज्ञान प्राप्त करे । ( यं ) जिसको ( वपुषे ) उत्तम ज्ञान रूप बीज के वपन करने और अज्ञान के नाश करने के लिये ( विभा-वम् ) विशेष कान्ति और ज्ञान सामर्थ्य से युक्त ( चित्रं ) ज्ञान के देने वाले, ज्ञान में रमण करने वाले, अद्भुत आश्चर्यकारी पुरुष को विद्वान् जन ( मनुष्यासु विक्षु ) मनन पूर्वक कर्म करने वाली प्रजाओं या अन्तः प्रविष्ट शिष्य रूप प्रजाओं में ( स्वः न ) सूर्य के समान उत्तम ज्ञानप्रकाशक रूप से ( निदधुः ) गुरु पद पर स्थापित करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २ पङ्क्तिः । ५ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वान व अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.
भावार्थ
जी माणसे वायूप्रमाणे व्याप्त असलेल्या विद्युतरूपी अग्नीचे मंथन करून कार्याची सिद्धी करतात ते अद्भुत कार्य करू शकतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us study and develop this Agni, light and fire energy, which Matarishva, wind and electric energy, pervading the skies energises, and which the scholars adopt in human communities like the wonderful sun for enhancement of the beauty of form and health of body — Agni which exists in all forms of the universe, which gives the universe its cosmic form and which receives, consumes and recreates everything that is offered to it since it is the catalytic agent of the cosmic yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned persons AGNI are detailed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man ! you should utilize and uphold Agni (in the form of fire and electricity) which is intensified by the whirling wind, which is consumer of various objects, is pervading the earth and other worlds in various forms. It it utilized by the learned among men for the accomplishment of various works and beauty like the wonderful and varied radiant sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who accomplish various works by utilizing the electricity pervade all like the air, and can do with its help wonderful deeds.
Foot Notes
( विश्वाप्सुम् ) विश्वं समग्रम् रूपं गुणो यस्य – Multiform or endowed with various attributes. ( स्व:) सूर्यम् = The sun.
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