ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 152/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वं वस्त्रा॑णि पीव॒सा व॑साथे यु॒वोरच्छि॑द्रा॒ मन्त॑वो ह॒ सर्गा॑:। अवा॑तिरत॒मनृ॑तानि॒ विश्व॑ ऋ॒तेन॑ मित्रावरुणा सचेथे ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । वस्त्रा॑णि । पी॒व॒सा । व॒सा॒थे॒ इति॑ । यु॒वोः । अच्छि॑द्राः । मन्त॑वः । ह॒ । सर्गाः॑ । अव॑ । अ॒ति॒र॒त॒म् । अनृ॑तानि । विश्वा॑ । ऋ॒तेन॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । स॒चे॒थे॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं वस्त्राणि पीवसा वसाथे युवोरच्छिद्रा मन्तवो ह सर्गा:। अवातिरतमनृतानि विश्व ऋतेन मित्रावरुणा सचेथे ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। वस्त्राणि। पीवसा। वसाथे इति। युवोः। अच्छिद्राः। मन्तवः। ह। सर्गाः। अव। अतिरतम्। अनृतानि। विश्वा। ऋतेन। मित्रावरुणा। सचेथे इति ॥ १.१५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 152; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकाध्याप्योपदेशकोपदेश्यविषयमाह ।
अन्वयः
हे मित्रावरुणा यौ युवां पीवसा वस्त्राणि वसाथे ययोर्युवोरच्छिद्रा मन्तवो ह सर्गास्सन्ति यौ युवां विश्वाऽनृतान्यवातिरतमृतेन सचेथे तावस्माभिः कुतो न सत्कर्त्तव्यौ भवथः ॥ १ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (वस्त्राणि) शरीराच्छादकानि (पीवसा) स्थूलानि (वसाथे) आच्छादयथः (युवोः) (अच्छिद्रा) छिद्ररहिताः (मन्तवः) ज्ञातुं योग्याः (ह) खलु (सर्गाः) स्रष्टुं योग्याः (अव) (अतिरतम्) उल्लङ्घयतम् (अनृतानि) मिथ्याभाषणादीनि कर्माणि (विश्वा) सर्वाणि (ऋतेन) सत्येन (मित्रावरुणा) प्राणोदानवत्वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ (सचेथे) सङ्गच्छेथे ॥ १ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः सदैव स्थूलान्यच्छिद्राणि वस्त्राणि परिधाय विज्ञातुं योग्या दोषरहिता वस्त्रादयः पदार्था निर्मातव्याः। सदैव धृतेन सत्याचरणेनासत्याचरणानि त्यक्त्वा धर्मार्थकाममोक्षाः संसाधनीयाः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ बावनवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में पढ़ाने, पढ़ने और उपदेश करने, उपदेश सुननेवालों के विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) प्राण-उदान के समान वर्त्तमान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले ! जो (युवम्) तुम लोग (पीवसा) स्थूल (वस्त्राणि) वस्त्रों को (वसाथे) ओढ़ते हो वा जिन (युवोः) तुम्हारे (अच्छिद्राः) छेद-भेद रहित (मन्तवः) जानने योग्य (ह) ही पदार्थ (सर्गाः) रचने योग्य हैं, जो तुम (विश्वा) समस्त (अनृतानि) मिथ्याभाषण आदि कामों को (अवातिरतम्) उल्लङ्घते पार होते और (ऋतेन) सत्य से (सचेथे) सङ्ग करते हो वे तुम हम लोगों को क्यों न सत्कार करने योग्य होते हो ॥ १ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को सदैव स्थूल छिद्ररहित वस्त्र पहन कर जानने के योग्य दोषरहित वस्त्र आदि पदार्थ निर्माण करने चाहियें और सदैव धारण किये हुए सत्याचरण से असत्याचरणों को छोड़ धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष अच्छे प्रकार सिद्ध करने चाहियें ॥ १ ॥
विषय
तेजस्विता, निर्दोषता व ऋत
पदार्थ
१. हे (मित्रावरुणा) = प्राणसाधना करनेवाले पति-पत्नी ! (युवम्) = आप दोनों वस्त्राणि शरीररूप वस्त्रों को (पीवसा) = [प्रभूतेन तेजसा] तेजस्विता के साथ (वसाथे) = आच्छादित करते हो, अर्थात् आप अपने शरीरों को तेजस्वी बनाते हो। २. (युवो:) = आपके (सर्गा:) = [सर्ग = a horse, इन्द्रियाश्व] ये इन्द्रियाश्व (ह) = निश्चय से (अच्छिद्राः) = दोषरहित तथा (मन्तवः) = ज्ञान प्राप्त करनेवाले होते हैंकर्मेन्द्रियरूप अश्व अच्छिद्र हैं तो ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व मन्तु हैं । ३. आप (विश्वा) = सब अनृतानि अनृतों को (अवातिरतम्) = नष्ट करते हो और (ॠतेन) = ऋत से (सचेथे) = समवेत व संगत होते हो ।
भावार्थ
भावार्थ – प्राणसाधना से पति-पत्नी दोनों के शरीर तेजस्वी बनते हैं, इन्द्रियाँ निर्दोष व ज्ञानसाधक बनती हैं, अमृत का निराकरण व ऋत की प्राप्ति होती है ।
विषय
सुसभ्य बनकर स्त्री पुरुषों को रहने का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणा ) मित्र अर्थात् परस्पर स्नेहपूर्वक सखा बन कर रहने और वरुण अर्थात् एक दूसरे को वरण करने वाले आप दोनों स्त्री और पुरुषो ! ( युवं ) तुम दोनों (पीवसा ) खूब हृष्ट होकर (वस्त्राणि ) उत्तम वस्त्रों को धारण करो और उत्तम तेजों को धारण करो और उत्तम गृहोंमें (वसाथे ) निवास करो। और (युवं अच्छिद्रा वस्त्राणि वसाथे ) तुम दोनों छेदरहित अर्थात् जो फटे फटाएं न हों, एवं दोषों से रहित हों ऐसे वस्त्र धारण करो । और ( युवोः ) तुम दोनों के ( सर्गाः ) उत्पन्न किये हुए पुत्र पौत्रादि सन्तान (अच्छिद्राः ) दोषरहित, परस्पर द्वेष या द्वैषभाव से रहित और ( मन्तवः ) एक दूसरे का आदर करने और स्वयं मनन करने वाले, विचारशील हों । हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (विश्वा अनृतानि ) समस्त असत्य व्यवहारों को ( ऋतेन ) अपने सत्य व्यवहार और सत्य ज्ञान और ऐश्वर्य के बल से ( अव अतिरतम् ) नाश करो । सत्य से असत्यों पर विजय प्राप्त करो। और ( ऋतेन ) सत्य के बल से ही ( सचेथे ) तुम दोनों परस्पर मिल कर रहो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २, ४, ५, ६ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अध्यापक व उपदेशक तसेच त्यांच्या शिष्यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
माणसांनी सदैव स्थूल छिद्ररहित वस्त्र नेसावे. दोषरहित वस्त्र इत्यादी निर्माण करण्याची कला जाणावी. सत्याचरण धारण करून असत्याचरणाला सोडून द्यावे व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चांगल्या प्रकारे सिद्ध करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, like day and night, with your expansion over the world you reveal and cover the forms of things in existence and your revelations of the things are faultless. You rule out and overcome illusions and unrealities since you associate with what is real and true.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of the teachers and taught, along with the audience are explained.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! you are in unison, like the Prana and Udana. You put on thick and pure clothes. Your nature is flawless and you know the real nature and purpose behind all the created objects. You thrash out all untruths and associate us with truth. Why should we therefore not honor you ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always put on spotless thick clothes. By having always truthful conduct, they should give up all untruth and false dealings. They should accomplish the four objects Artha (wealth), of human pursuit, like Dharma ( righteousness), Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha ( emancipation).
Foot Notes
(मित्रावरुणौ) प्राणोदानवत् वर्तमानौ अध्यापकोपदेशकौ = Teachers and preachers who are united like the Prana and Udana ( मन्तव:) ज्ञातुं योग्याः पदार्था: = Articles that are to be known.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal