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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 153/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यजा॑महे वां म॒हः स॒जोषा॑ ह॒व्येभि॑र्मित्रावरुणा॒ नमो॑भिः। घृ॒तैर्घृ॑तस्नू॒ अध॒ यद्वा॑म॒स्मे अ॑ध्व॒र्यवो॒ न धी॒तिभि॒र्भर॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठयजा॑महे । वा॒म् । म॒हः । स॒ऽजोषाः॑ । ह॒व्येभिः॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । नमः॑ऽभिः । घृ॒तैः । घृ॒त॒स्नू॒ इति॑ घृतऽस्नू । अध॑ । यत् । वा॒म् । अ॒स्मे इति॑ । अ॒ध्व॒र्यवः॑ । न । धी॒तिऽभिः॑ । भर॑न्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
यजामहे वां महः सजोषा हव्येभिर्मित्रावरुणा नमोभिः। घृतैर्घृतस्नू अध यद्वामस्मे अध्वर्यवो न धीतिभिर्भरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठयजामहे। वाम्। महः। सऽजोषाः। हव्येभिः। मित्रावरुणा। नमःऽभिः। घृतैः। घृतस्नू इति घृतऽस्नू। अध। यत्। वाम्। अस्मे इति। अध्वर्यवः। न। धीतिऽभिः। भरन्ति ॥ १.१५३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 153; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मित्रावरुणगुणानाह ।
अन्वयः
हे घृतस्नू मित्रावरुणा वां सजोषा वयं धीतिभिरध्वर्यवो न हव्येभिर्नमोभिर्घृतैर्महो यजामहेऽध यद् वामस्मे च विद्वांसो भरन्ति तं धरतां च ॥ १ ॥
पदार्थः
(यजामहे) सत्कुर्महे (वाम्) युवाभ्याम् (महः) महत् (सजोषाः) समानप्रीताः (हव्येभिः) दातुमर्हैः (मित्रावरुणा) सुहृद्वरो (नमोभिः) अन्नादिभिः (घृतैः) आज्यादिभी रसैः (घृतस्नू) घृतस्य स्रावको (अध) अनन्तरम् (यत्) (वाम्) युवाभ्याम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (अध्वर्यवः) अध्वरं अहिंसाधर्मकाममिच्छवः (न) इव (धीतिभिः) अङ्गुलिभिः (भरन्ति) धरन्ति ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यजमाना अग्निहोत्राद्यनुष्ठानैः सर्वस्य सुखं वर्द्धयन्ति तथा सर्वे विद्वांसोऽनुतिष्ठन्तु ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर मित्र-वरुण के गुणों का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे (घृतस्नू) घृत फैलानेवाले (मित्रावरुणा) मित्र और श्रेष्ठ जनो ! (वाम्) तुम दोनों का (सजोषाः) समान प्रीति किये हुए हम लोग (धीतिभिः) अंगुलियों से (अध्वर्यवः) अहिंसा धर्म की कामनावालों के (न) समान (हव्येभिः) देने योग्य (नमोभिः) अन्नादि पदार्थों से (घृतैः) और घी आदि रसों से (महः) अत्यन्त (यजामहे) सत्कार करते हैं (अध) इसके अनन्तर (यत्) जिस व्यवहार को (वाम्) तुम दोनों के लिये और (अस्मे) हमारे लिये विद्वान् जन (भरन्ति) धारण करते हैं, उस व्यवहार को धारण करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे यजमान अग्निहोत्र आदि अनुष्ठानों से सबके सुख को बढ़ाते हैं, वैसे समस्त विद्वान् जन अनुष्ठान करें ॥ १ ॥
विषय
हव्य, नमस्, धीति -
पदार्थ
१. हे (मित्रावरुणा) = प्राणापानो ! (हव्येभिः) = हव्यों के द्वारा– यज्ञीय पदार्थों के द्वारा, यज्ञिय पदार्थों के ही सेवन द्वारा तथा (नमोभिः) = नमनों के द्वारा (सजोषाः) = समानरूप से प्रीतियुक्त हुएहुए हम (वां महः) = आपके तेज को (यजामहे) = अपने साथ संगत करते हैं। प्राणापान की शक्ति के वर्धन के लिए हम [क] हव्य पदार्थों का सेवन करते हैं और [ख] नमन व उपासन की वृत्ति को अपनाते हैं, इस कार्य में सदा उत्साह बनाये रखते हैं, क्योंकि यह साधना तो 'दीर्घकाल, नैरन्तर्य व आदरपूर्वक' चलकर ही दृढ़ - भूमि होती है। प्राणायाम आदि योगाङ्गों का लाभ एक दिन में ही तो दृष्टिगोचर नहीं हो जाता। २. (अध) = अब (यत्) = क्योंकि (वाम्) = आप दोनों (अस्मे) = हमारे लिए (घृतस्नू) [घृ क्षरणदीप्त्योः] मलों के क्षरण व दीप्ति के प्रापण के द्वारा हमारे जीवन में घृत का स्रावण करनेवाले हो, इसलिए (अध्वर्यवः) = अध्वररूप कर्मों को अपने साथ युक्त करनेवालों के समान बने हुए लोग (धीतिभिः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के द्वारा आपको अपने में (भरन्ति) = धारण एवं पोषण करते हैं। एवं प्राणापान का पोषण 'हव्य, नमस् व धीति' के द्वारा होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणापान का पोषण करें। इसके लिए (क) हव्य पदार्थों का ही सेवन करें, (ख) नम्रता की वृत्तिवाले हों, प्रभु के प्रति नमन करें, (ग) ज्ञानपूर्वक कर्मों में प्रवृत्त हों।
विषय
मेघ सूर्यवत् मित्र वरुण, स्नेही, श्रेष्ठ जन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणा ) स्नेहवान्, परस्पर मित्र एवं एक दूसरे को श्रेष्ठ जान कर वरण करने और एक दूसरे की विपत्तियों का वारण करने हारो ! ( सजोषाः ) अति प्रेम से युक्त होकर ( हव्येभिः ) स्वीकार करने योग्य उत्तम पदार्थों और ( नमोभिः ) उत्तम अन्नों वा सत्कारों द्वारा ( वां ) आप दोनों के (महः) बड़े उत्तम यज्ञ आदि कार्य को हम विद्वान् लोग ( यजामहे ) सम्पादन करें । और आप दोनों को उत्तम दान योग्य पदार्थ प्रदान करें। (घृतस्नू) मेघ जिस प्रकार जल और सूर्य जिस प्रकार तेज का प्रवाह बहाता है उसी प्रकार हे सब के प्रति स्नेह का प्रवाह बहाने वाले आप दोनो ! ( वाम् ) आप दोनों के हितार्थ ही ( अध यत् ) जो ( अध्वर्यवः ) हिंसा रहित यज्ञ के करने हारे विद्वान् पुरुष हैं वे भी (अस्मे) हमारे कल्याण के लिये (अध्वर्यवः न) ऋत्वजों को तुल्य ही ( धीतिभिः ) धारण पोषण करने वाली क्रियाओं, युक्तिओं और उपायों से ( वाम् भरन्ति ) आप दोनों का पोषण करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २ निचृत् त्रिष्टुप । ३ त्रिष्टुप । ४ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ चतुऋचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मित्र वरुण यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे यजमान अग्निहोत्र इत्यादी अनुष्ठानाने सर्वांचे सुख वाढवितात. तसे संपूर्ण विद्वान लोकांनी अनुष्ठान करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, great, loving, rejoicing, friends of humanity, lords of love and justice, resplendent with flames of ghrta, we love, honour and worship you with salutations, service and oblations of high grades of ghrta, and the devotees, dedicated and worshipful, bring holy offerings with sincere prayers like high-priests of yajna for you and for us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Mitra and Varuna (teacher and preacher).
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O friendly and noble teachers and preachers! You spread the message of love. So we love each other. We worship you immensely with the offerings of good food, ghee and other valuable and reverential homage. It is like the performers of the Yajnas who put their oblations in the fire with their fingers. Please uphold those good traditions which learned persons have towards you and also towards us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the performers of the Yajnas create happiness for all, so should learned persons also do. (The oblations never contain killings, is evident from the parts of this Mantra.)
Foot Notes
(नमोभिः) अन्नादिभिः = With food etc. ( हव्येभिः) दातुम् अर्हे = Worth giving good. (अध्वर्यव:) अहिन्साधर्मकाममिच्छवः = Lovers of non-violent sacrifice.
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