Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 154/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि। यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑ । नु । क॒म् । वी॒र्या॑णि । प्र । वो॒च॒म् । यः । पार्थि॑वानि । वि॒ऽम॒मे । रजां॑सि । यः । अस्क॑भायत् । उत्ऽत॑रम् । स॒धऽस्थ॑म् । वि॒ऽच॒क्र॒मा॒णः । त्रे॒धा । ऊ॒रु॒ऽगा॒यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः। नु। कम्। वीर्याणि। प्र। वोचम्। यः। पार्थिवानि। विऽममे। रजांसि। यः। अस्कभायत्। उत्ऽतरम्। सधऽस्थम्। विऽचक्रमाणः। त्रेधा। ऊरुऽगायः ॥ १.१५४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 154; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरमुक्तिपदवर्णनमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यः पार्थिवानि रजांसि नु विममे य उरुगाय उत्तरं सधस्थं त्रेधा विचक्रमाणोऽस्कभायत्तस्य विष्णोर्वीर्याणि प्रवोचमनेन कं प्राप्नुयां तथा यूयमपि कुरुत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (विष्णोः) वेवेष्टि व्याप्नोति सर्वत्र स विष्णुस्तस्य (नु) सद्यः (कम्) सुखम् (वीर्याणि) पराक्रमान् (प्र) (वोचम्) वदेयम् (यः) (पार्थिवानि) पृथिव्यां विदितानि (विममे) (रजांसि) लोकान् (यः) (अस्कभायत्) स्तभ्नाति (उत्तरम्) प्रलयादनन्तरं कारणाख्यम् (सधस्थम्) सहस्थानम् (विचक्रमाणः) विशेषेण प्रचालयन् (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः (उरुगायः) य उरुभिर्बहुभिर्मन्त्रैर्गीयते स्तूयते वा ॥ १ ॥

    भावार्थः

    यथा सूर्यः स्वाकर्षणेन सर्वान् भूगोलान् धरति तथा सूर्यादींल्लोकान् कारणं जीवांश्च जगदीश्वरो धत्ते य इमानसंख्यलोकान् सद्यो निर्ममे यस्मिन्निमे प्रलीयन्ते च स एव सर्वैरुपास्यः ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब छः ऋचावाले १५४ एकसौ चौपनवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर और मुक्तिपद का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (पार्थिवानि) पृथिवी में विदित (रजांसि) लोकों को अर्थात् पृथिवी में विख्यात सब स्थलों को (नु) शीघ्र (विममे) अनेक प्रकार से रचता वा (यः) जो (उरुगायः) बहुत वेदमन्त्रों से गाया जाता वा स्तुति किया जाता (उत्तरम्) प्रलय से अनन्तर (सधस्थम्) एक साथ के स्थान को (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमाणः) विशेषकर कँपाता हुआ (अस्कभायत्) रोकता है उस (विष्णोः) सर्वत्र व्याप्त होनेवाले परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमों को (प्र वोचम्) अच्छे प्रकार कहूँ और उससे (कम्) सुख पाऊँ वैसे तुम करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से सब भूगोलों को धारण करता है, वैसे सूर्य्यादि लोक, कारण और जीवों को जगदीश्वर धारण कर रहा है। जो इन असंख्य लोकों को शीघ्र निर्माण करता और जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वही सबको उपासना करने योग्य है ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उरुगाय विष्णु

    पदार्थ

    १. (नु कम्) = अब मैं शीघ्र (विष्णोः) = सर्वव्यापक प्रभु के वीर्याणि शक्तिशाली कार्यों को (प्रवोचम्) = प्रकर्षेण कहता हूँ, (यः) = जो विष्णु (पार्थिवानि रजांसि) = इन पार्थिव लोकों कोपृथिवीतत्त्वप्रधान लोकों को (विममे) = विशेष मानपूर्वक बनाता है। २. इन पार्थिव लोकों को बनाने के साथ (यः) = जो विष्णु (उत्तरम्) = उत्कृष्ट (सधस्थम्) = मुझ जीव के ब्रह्म के साथ रहने के स्थानभूत द्युलोक को (अस्कभायत्) = आधार देता है। विष्णु द्यावापृथिवी का निर्माण व धारण करनेवाले हैं । (त्रेधा विचक्रमाणः) = वे तीन प्रकार से विशेषरूप से चरण रखनेवाले हैं। इन चरणों में वे कर्म व सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व संहार का कारण होते हैं, अथवा इन चरणों में वे ज्ञान, उपासना का उपदेश देते हैं। इस प्रकार वे प्रभु (उरुगायः) = खूब ही गायन के योग्य हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सर्वव्यापक प्रभु पार्थिव लोकों को बनाते हैं, द्युलोक को थामते हैं। उत्पत्ति, स्थिति व संहार करनेवाले वे प्रभु खूब ही गान करने योग्य हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विष्णु, परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो परमेश्वर ( पार्थिवानि ) पृथिवी में ज्ञान और अति विस्तृत तीनों लोकों में स्थिर ( रजांसि ) समस्त सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि लोकों को ( विममे ) विविध रूप से बनाता है ( यः ) जो ( उत्तरम् ) जगत् के प्रलय हो जाने के बाद भी विद्यमान उस ( सधस्थं ) कारण रूप प्रकृति, जिस में समस्त प्राकृतिक जगत् एक समान होकर कारण रूप से एक साथ रहते हैं, उसको भी (अस्कभायत् ) धारण करता है और जो ( उरुगायः ) बहुत प्रकारों और मन्त्रों से स्तुति किया जाता है, या सब को वेद द्वारा उपदेश करने हारा है जो ( त्रेधा विचक्रमाणः ) सृष्टि, स्थिति, प्रलय, या सूक्ष्म कारण रूप, सूक्ष्म कार्यरूप और स्थूल कार्य रूप इन तीनों प्रकारों से सब पदार्थों को विशेष रूप से सञ्चालित करता है उस ( विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के ( वीर्याणि ) नाना बलशाली, महान् कार्यों को मैं ( प्रवोचम् ) वर्णन करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तांत परमेश्वर व मुक्तीचे वर्णन आहे. या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    जसा सूर्य आपल्या आकर्षणशक्तीने संपूर्ण भूगोलाला धारण करतो तसे सूर्य इत्यादी लोक, कारण व जीव यांना जगदीश्वर धारण करीत आहे. जो या असंख्य लोकांना निर्माण करतो, ज्याच्यात प्रलय होतो त्याचीच सर्वांनी उपासना केली पाहिजे. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let me well recite the grand acts of Vishnu, lord immanent, all pervasive, of the universe, who creates all worlds of the universe, who sustains the high regions of light in upper space and, having created, maintains it three ways, i.e., as a system, as part of the cosmic system, and in relation to the other systems, the lord who is sung and celebrated everywhere.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature of God and emancipation is narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Here, I recount the mighty works performed by Vishnu ( All-pervading God). He has measured out the earthly as well as the high planets after the dissolution of the universe in material form. He supports. He is wide-moving and glorified in the Vedas, with regard to three-dimensional steps of His Universal movement. O men, like me you should attain the happiness-divine.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun holds all the planets with his power of gravitation, likewise God sustains and holds the entire solar and other varied complexes, the matter (the material cause of the universe) and souls. Only that one God should be worshipped, who has made innumerable planets and they all are finally dissolved in Him.

    Foot Notes

    (विष्णु:) वेवेष्टि व्याप्नोति सर्वत्र स विष्णुः तस्य = Of the all-pervading God. (उत्तरम् ) प्रलयादनन्तरकारणाख्यम्= The material cause after the dissolution. ( विचक्रमाण:) विशेषेण प्रचालयन् = Moving in a particular manner. (कम् ) सुखम् = Happiness joy.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top