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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 155 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 155/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र व॒: पान्त॒मन्ध॑सो धियाय॒ते म॒हे शूरा॑य॒ विष्ण॑वे चार्चत। या सानु॑नि॒ पर्व॑ताना॒मदा॑भ्या म॒हस्त॒स्थतु॒रर्व॑तेव सा॒धुना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । पान्त॑म् । अन्ध॑सः । धि॒या॒ऽय॒ते । म॒हे । शूरा॑य । विष्ण॑वे । च॒ । अ॒र्च॒त॒ । या । सानु॑नि । पर्व॑तानाम् । अदा॑भ्या । म॒हः । त॒स्थतुः॑ । अर्व॑ताऽइव । सा॒धुना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र व: पान्तमन्धसो धियायते महे शूराय विष्णवे चार्चत। या सानुनि पर्वतानामदाभ्या महस्तस्थतुरर्वतेव साधुना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। पान्तम्। अन्धसः। धियाऽयते। महे। शूराय। विष्णवे। च। अर्चत। या। सानुनि। पर्वतानाम्। अदाभ्या। महः। तस्थतुः। अर्वताऽइव। साधुना ॥ १.१५५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 155; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्यापकोपदेशकब्रह्मचर्यफलविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या धियायते महे शूराय विष्णवे च वोऽन्धसः पान्तं यूयं प्रार्चत याऽदाभ्या मित्रावरुणौ पर्वतानां सानुन्यर्वतेव साधुना महस्तस्थतुस्तावपि प्रार्चत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (प्र) (वः) युष्माकम् (पान्तम्) (अन्धसः) द्रवीभूतस्यान्नादेः (धियायते) प्रज्ञां धारणामिच्छते (महे) महते (शूराय) शौर्यादिगुणोपेताय (विष्णवे) शुभगुणव्याप्ताय (च) (अर्चत) सत्कुरुत (या) यौ (सानुनि) शिखरे (पर्वतानाम्) मेघानां शैलानां वा (अदाभ्या) हिंसितुमयोग्यौ (महः) महद्यथास्यात्तथा (तस्थतुः) तिष्ठतः (अर्वतेव) या ऋच्छति तेनाऽश्वेनेव (साधुना) सुशिक्षितेन ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्यादानेन सुशिक्षया विज्ञानेन जनान् वर्द्धयन्ति ते महान्तो भवन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ पचपनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में पढ़ाने, उपदेश करनेवाले और ब्रह्मचर्य सेवन का फल कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (धियायते) प्रज्ञा और धारण की इच्छा करनेवाले (महे) बड़े और (शूराय) शूरता आदि गुणों से युक्त (विष्णवे, च) और शुभ गुणों में व्याप्त महात्मा के लिये (वः) तुम्हारे (अन्धसः) गीले अन्न आदि पदार्थ के (पान्तम्) पान को तुम (प्र, अर्चत) उत्तमता से सत्कार के साथ देओ। तथा (या) जो (अदाभ्या) हिंसा न करने योग्य मित्र और वरुण अर्थात् अध्यापक और उपदेशक (पर्वतानाम्) पर्वतों के (सानुनि) शिखर पर (अर्वतेव) जानेवाले घोड़े के समान (साधुना) उत्तम सिखाये हुए शिष्य से (महः) बड़ा जैसे हो वैसे (तस्थतुः) स्थित होते अर्थात् जैसे घोड़ा से ऊँचे स्थान पर पहुँच जावें वैसे विद्या पढ़ाकर कीर्त्ति के शिखर पर चढ़ जाते हैं, उनका भी उत्तम सत्कार करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्यादान, उत्तम शिक्षा और विज्ञान से जनों को वृद्धि देते हैं, वे महात्मा होते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    विष्णु का अर्चन

    पदार्थ

    १. हे प्रजाओ ! (अन्धसः) = सोम-वीर्य के द्वारा (वः) = तुम्हारा (पान्तम्) = रक्षण करनेवाले प्रभु को (अर्चत) = पूजो ! उस प्रभु की तुम अर्चना करो जो कि (धियायते) = अपनी प्रजाओं से बुद्धिपूर्वक कर्मों की कामना करते हैं, (महे) = महान् हैं, (शूराय) = शूरवीर के रूप में हमारे शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं। प्रभु शूरवीर हैं। वे उपासकों को भी शूरवीर बनने की प्रेरणा करते हैं। उपासकों को चाहिए कि वे शूरवीर जितेन्द्रिय बनकर बुद्धिपूर्वक ही कार्यों को करें । उस महान् शत्रुसंहारक प्रभु का स्मरण करता हुआ यह स्वयं भी महान् व कामादि शत्रुओं का संहार करनेवाला बने। २. (च) = और (विष्णवे) = [अर्चत] = उस व्यापक प्रभु का पूजन करो । प्रभु की व्यापकता के गुण को हम भी धारण करने का प्रयत्न करें। ३. विष्णु की उपासना करते हुए उपासक भी विष्णु बनकर ऐसे बनते हैं (या) = जो (अदाभ्या) = वासनाओं से हिंसित न होते हुए (महः) = तेज के पुञ्ज बनते हुए (पर्वतानाम्) = अपना पूरण करनेवालों के (सानुनि) = शिखर- प्रदेश पर (तस्थतुः) = स्थित होते हैं, (इव) = उसी प्रकार स्थित होते हैं जैसे कि (साधुना अर्वता) = उत्तम घोड़े से कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य-स्थान पर पहुँचता है। ४. विष्णु के रूप में प्रभु की उपासना करता हुआ व्यक्ति विष्णु ही बनता है और अपनी न्यूनताओं को दूर करता हुआ उन्नति पर्वत के शिखर पर पहुँचता ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम विष्णु का उपासन करते हुए विष्णु ही बनें और उन्नति - पर्वत के शिखर पर पहुँचने का लक्ष्य रक्खें ।

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    विषय

    पालक राजा के प्रति प्रजाजनों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे पुरुषो ! आप लोग ( धियायते) बुद्धिपूर्वक यत्न करने वाले, उत्तम कर्म और बुद्धि या ज्ञान का सम्पादन करने के इच्छुक ( महे ) महान् ( शूराय ) शूरवीर और ( विष्णवे ) उत्तम विद्या और गुणों में प्रवेश करने वाले या व्यापक पुरुष के हित के लिये ( वः ) अपने ( अन्धसः ) जीवन धारण कराने वाले अन्नादि के बने ( पान्तम् ) पान करने और पालन करने योग्य पदार्थ ( प्र अर्चत ) आदर सत्कार से प्रदान करो । ( साधुना अर्वता इव पर्वतानां सानुनि ) उत्तम अश्व के द्वारा जिस प्रकार लोग पर्वतों तक पहुंच जाते हैं उसी प्रकार ( साधुना ) सुखों दुःखों के वश करने वाले, साधनाशील उत्तम ( अर्वता ) ज्ञान मार्ग में आगे बढ़ने वाले सहायक या विद्वान् के द्वारा या जो दोनों इन्द्र और विष्णु, सेनापति और व्यापक शक्तिमान् राजा अथवा आचार्य और शिष्य दोनों ( पर्वतानां सानुनि ) पर्वतों के शिखरों के समान पालन करने वाले साधन से सम्पन्न राजाओं के उच्च शिरों पर मान, आदर और बल पूर्वक ( महः ) पूजित होकर (तस्थतुः) विराजते हैं और ( अदाभ्या ) कभी विनाश को प्राप्त नहीं होते। इसी प्रकार आचार्य और शिष्य दोनों ( पर्वतानां सानुनि ) पर्व, अध्याय, सर्ग आदि सर्वोच्च सानु अर्थात् प्राप्तव्य ज्ञान से संयुक्त वेद आदि शास्त्रों के प्राप्त करने के निमित्त (महः) परस्पर पूजा करने योग्य और ब्रह्मदान देते हुए ( अदाभ्या ) कभी परस्पर हिंसा प्रतिहिंसा न करते हुए प्रेम से ( तस्थतुः ) रहें, उनकी भी ( प्र अर्चत ) अच्छी प्रकार अन्नादि से सेवा करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषि॥ विष्णुर्देवता इन्द्रश्च ॥ छन्दः- १, ३, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अध्यापकोपदेशक व ब्रह्मचर्याच्या फळाचे वर्णन असल्याने याच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्यादान, उत्तम शिक्षण व विज्ञान याद्वारे लोकांची उन्नती करवितात ते श्रेष्ठ (महात्मे) असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Of your delicious food and soma drink, offer in homage to the great and mighty Vishnu, lord of intelligence, and to Indra, bold and mighty lord of energy and power. Both stand on top of mountains and clouds and on top of heaven, firm and inviolable high, as the mountaineer stands firm on top of a mountain peak by the best and strongest equipment.$(According to Swami Dayanand, the mantra may be applied to the teachers and scholars of a nation who reach on top of learning and knowledge by arduous efforts of mountainous degree and do their work freely and courageously.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the teachers and preachers and the benefits of Brahmacharya.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! worship or respect highly learned persons who always desire to have pure intellect. Such a person is a great hero and he is extremely virtuous. Honor also the person who protects your food of various kinds. Such teachers and preachers are not to be hurt. They reach the radiant summit of the hills and attain the highest reputation like a well-trained horse. They should also be properly treated and honored.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are to be considered great, who make people grow scientifically and significantly by giving knowledge and good education.

    Translator's Notes

    (विष्णवे ) शुभगुणव्याप्ताय = Pervading in noble virtues i.e. extremely virtuous, ( आदाभ्या) हिसितुमयोग्या = Invincible or inviolable.

    Foot Notes

    (विष्णवे ) शुभगुणव्याप्ताय = Pervading in noble virtues i.e. extremely virtuous, ( आदाभ्या) हिसितुमयोग्या = Invincible or inviolable. ADDITIONAL In mantras like उपह्वरे गिरीणां the hills are mentioned as source of Divine knowledge. Ed.

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