ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 158/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वसू॑ रु॒द्रा पु॑रु॒मन्तू॑ वृ॒धन्ता॑ दश॒स्यतं॑ नो वृषणाव॒भिष्टौ॑। दस्रा॑ ह॒ यद्रेक्ण॑ औच॒थ्यो वां॒ प्र यत्स॒स्राथे॒ अक॑वाभिरू॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठवसी॒ इति॑ । रु॒द्रा । पु॒रु॒मन्तू॒ इति॑ पु॒रु॒ऽमन्तू॑ । वृ॒धन्ता॑ । द॒श॒स्यत॑म् । नः॒ । वृ॒ष॒णौ॒ । अ॒भिष्टौ॑ । दस्रा॑ । ह॒ । यत् । रेक्णः॑ । औ॒च॒थ्यः । वा॒म् । प्र । यत् । स॒स्राथे॒ इति॑ । अक॑वाभिः । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
वसू रुद्रा पुरुमन्तू वृधन्ता दशस्यतं नो वृषणावभिष्टौ। दस्रा ह यद्रेक्ण औचथ्यो वां प्र यत्सस्राथे अकवाभिरूती ॥
स्वर रहित पद पाठवसी इति। रुद्रा। पुरुमन्तू इति पुरुऽमन्तू। वृधन्ता। दशस्यतम्। नः। वृषणौ। अभिष्टौ। दस्रा। ह। यत्। रेक्णः। औचथ्यः। वाम्। प्र। यत्। सस्राथे इति। अकवाभिः। ऊती ॥ १.१५८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 158; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिक्षकशिष्यकर्माण्याह ।
अन्वयः
हे सभाशालेशौ ! यद्यो वामौचथ्यो रेक्णोऽस्ति तं यद्यौ युवामकवाभिरूती नोऽस्मभ्यां सस्राथे तौ ह वृधन्ता पुरुमन्तू दस्रा वृषणौ वसू रुद्राऽभिष्टौ न सुखं प्रदशस्यतम् ॥ १ ॥
पदार्थः
(वसू) वासयितारौ (रुद्रा) चतुश्चत्वारिंशद्वर्षप्रमितब्रह्मचर्य्येणाधीतविद्यौ (पुरुमन्तू) पुरुभिर्बहुभिर्मन्तव्यौ (वृधन्ता) वर्द्धमानौ (दशस्यतम्) दत्तम् (नः) अस्मभ्यम् (वृषणौ) वीर्यवन्तौ (अभिष्टौ) इष्टसिद्धौ (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (ह) (यत्) यः (रेक्णः) धनम्। रेक्ण इति धनना०। निघं० २। १०। (औचथ्यः) प्रशंसितेषु भवः (वाम्) युवयोः (प्र) (यत्) यौ (सस्राथे) प्रापयतः (अकवाभिः) प्रशंसिताभिः (ऊती) रक्षाभिः ॥ १ ॥
भावार्थः
ये सूर्य्यवायुवत् सर्वानुपकुर्वन्ति ते श्रीमन्तो जायन्ते ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब द्वितीयाष्टक के तृतीय अध्याय का आरम्भ है। उसमें एकसौ अट्ठावनवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में शिक्षा करनेवाले और शिष्य के कर्मों का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे सभा और शालाधीशो ! (यत्) जो (वाम्) तुम दोनों का (औचथ्यः) उचित अर्थात् प्रशंसितों में हुआ (रेक्णः) धन है उस धन को (यत्) जो तुम दोनों (अकवाभिः) प्रशंसित (ऊती) रक्षाओं से हम लोगों के लिये (सस्राथे) प्राप्त कराते हो वे (ह) ही (वृधन्ता) बढ़ते हुए (पुरुमन्तू) बहुतों से मानने योग्य (दस्रा) दुःख के नष्ट करनेहारे (वृषणौ) बलवान् (वसु) निवास दिलानेवाले (रुद्रा) चवालीस वर्ष लों ब्रह्मचर्य से धर्मपूर्वक विद्या पढ़े हुए सज्जनो (अभिष्टौ) इष्ट सिद्धि के निमित्त (नः) हमारे लिये सुख (प्र, दशस्यतम्) उत्तमता से देओ ॥ १ ॥
भावार्थ
जो सूर्य और पवन के समान सबका उपकार करते हैं, वे धनवान् होते हैं ॥ १ ॥
विषय
वसू, रुद्रा, पुरुमन्तू
पदार्थ
१. हे (वृषणौ) = शक्तिशाली प्राणापानो! आप (वसू) = रोगादि को दूर करके व बल का धारण करके हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले हो । (रुद्रा) = [रुत् दुःखं पापं वा, तस्य द्रावयितारौ - सा०] आप शरीर के दुःखों तथा मन के पापों को दूर करनेवाले हो । दोषों का दहन करके ये प्राणापान शरीर को नीरोग व मन को निर्मल बनाते हैं। (पुरुमन्तू) = आप बुद्धि को तीव्र करने के द्वारा ज्ञान का खूब ही वर्धन करनेवाले हो [पुरु= बहुत, मन्तु ज्ञान] । इस प्रकार (वृधन्ता) = सब प्रकार से वृद्धि करनेवाले हो । २. (अभिष्टौ) = वासनारूप शत्रुओं का आक्रमण होने पर आप (नः) = हमारे लिए (रेक्णः) = धन (दशस्यतम्) = देनेवाले होओ। हे (दस्त्रा) = हमारी सब वासनाओं का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! (यत् ह) = जो निश्चय से (औचथ्यः) = स्तुति करने में उत्तम साधक है वह (वाम्) = आपका ही तो है और (यत्) = जो आप हैं वे भी निश्चय से (अकवाभिः) = अकुत्सित ऊती [ऊतिभिः] = रक्षणों से प्रसस्त्राथे = गति करते हैं, अतः आप साधकों के लिए इष्ट धनों को दीजिए ही ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान शरीर के निवास को उत्तम बनाते हैं, मन से पापवृत्तियों को परे हटाते हैं और ज्ञान को बढ़ाते हैं ।
विषय
उत्तम गृहस्थ स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( वृषणौ ) सूर्य और वायु, या विद्युत् और मेघ के के समान प्रजा पर सुखों का वर्षण करने वाले राजा और अमात्य, सभापति और सेनापति, अध्यापक और उपदेशक, और माता और पिता आप दोनों ( वसू ) प्रजाओं को बसाने और स्वयं भी राष्ट्र और गृह बसने हारे, ( रुद्रा ) दुःखों को दूर करने, उत्तम उपदेशों के देने और ४४ वर्ष का ब्रह्मचर्य पालन करने वाले, और दुष्टों को रुलाने वाले, ( वृधन्तौ ) परस्पर बढ़ते और अधीनों की वृद्धि करते हुए, ( पुरुमन्तू ) अति अधिक ज्ञानशील, बहुतों से मान आदर करने योग्य, ( दस्रौ ) दुःखों के नाशक और दर्शनीय होवो । ( औचथ्यः ) उपदेश करने योग्य, और उत्तम शिष्य ( वां ) तुम दोनों के समीप ( यत् ) जब विद्या प्राप्ति के निमित्त प्राप्त होता है तब आप दोनों (अकवाभिः) अनिन्दनीय, उत्तम ( ऊतिभिः ) ज्ञान वाणियों और रक्षा क्रियाओं सहित ( प्र सस्राथे ) ज्ञान का प्रसार करो । और ( वां ) आप दोनों का ( यत् रेक्णः ) दान देने योग्य, जलवर्षी मेघ के जल के समान ज्ञान और ऐश्वर्य है उसको ( अभिष्टौ ) उत्तम कामना की पूर्ति और इष्ट सिद्धि के लिये ( प्र दशस्यतम् ) अच्छी प्रकार प्रदान किया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पङ्क्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात शिष्य व अध्यापकाच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
जे सूर्य व वायूप्रमाणे सर्वांवर उपकार करतात ते धनवान होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, generous lords of light and power, loved and wanted, shelter and support of all, scourge of evil and enmity, universally respected, ever on the rise, give us, we pray, what we love and desire for our success, since the admirable wealth that is yours you bring us for sure with abundant protection, promotion and welfare for all, brave saviours as you are from want and suffering.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the teachers and the taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Heads of the Assembly and of the educational institutions! you bestow upon us happiness and admirable wealth of wisdom along with your firm protections. You who are virile, ward off all miseries. Accepted as philosopher-guide by many, you help us to march on the path of righteousness. Those who have observed Brahmacharya up to the age of forty four years have established us firmly for the accomplishment of our noble desires.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who are of benevolent nature like the sun and air, grow prosperous.
Foot Notes
(रुद्रा) चतुश्चत्वारिंशद् वर्षपरिमितब्रह्मचर्येणाधीत विद्याः = who have received knowledge by the observance of the vow of Brahmacharya up to the age of 44 years ? ( रेक्ण: ) धनम् ! रेक्ण इति धननाम = (NG-2-10) = Wealth ( of all kinds). (अकवाभिः) प्रशसिताभिः = Admirable, praiseworthy. Ashvinau is the twin Devata, varying in teacher-preacher combine, a pair of divine physicians and a pair of Heads of State and Army and the educational institutions.
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