ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 159/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
प्र द्यावा॑ य॒ज्ञैः पृ॑थि॒वी ऋ॑ता॒वृधा॑ म॒ही स्तु॑षे वि॒दथे॑षु॒ प्रचे॑तसा। दे॒वेभि॒र्ये दे॒वपु॑त्रे सु॒दंस॑से॒त्था धि॒या वार्या॑णि प्र॒भूष॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । द्यावा॑ । य॒ज्ञैः । पृ॒थि॒वी इति॑ । ऋ॒त॒ऽवृधा॑ । म॒ही इति॑ । स्तु॒षे॒ । वि॒दथे॑षु । प्रऽचे॑तसा । दे॒वेभिः । ये इति॑ । दे॒वऽपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे । सु॒ऽदंस॑सा । इ॒त्था । धि॒या । वार्या॑णि । प्र॒ऽभूष॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी ऋतावृधा मही स्तुषे विदथेषु प्रचेतसा। देवेभिर्ये देवपुत्रे सुदंससेत्था धिया वार्याणि प्रभूषतः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। द्यावा। यज्ञैः। पृथिवी इति। ऋतऽवृधा। मही इति। स्तुषे। विदथेषु। प्रऽचेतसा। देवेभिः। ये इति। देवऽपुत्रे इति देवऽपुत्रे। सुऽदंससा। इत्था। धिया। वार्याणि। प्रऽभूषतः ॥ १.१५९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 159; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्युद्विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् ये ऋतावृधा प्रचेतसा देवपुत्रे सुदंससा मही द्यावापृथिवी यज्ञैर्विदथेषु देवेभिर्धिया च वार्याणि प्रभूषतः। त्वं च प्रस्तुष इत्था ते वयमपि नित्यं प्रशंसेम ॥ १ ॥
पदार्थः
(प्र) (द्यावा) द्यौः (यज्ञैः) सङ्गतैर्व्यवहारैः (पृथिवी) भूमिः (ऋतावृधा) कारणेन वर्द्धिते (मही) महत्यौ (स्तुषे) प्रशंससि (विदथेषु) वेदितव्येषु पदार्थेषु (प्रचेतसा) प्रकृष्टतया प्रज्ञाननिमित्ते (देवेभिः) दिव्यैरबादिभिः पदार्थैः सह (ये) (देवपुत्रे) देवैर्दिव्यैः प्रकृत्यंशैः पुत्र इव प्रजाते (सुदंससा) प्रशंसितकर्मणी (इत्था) अनेन प्रकारेण (धिया) कर्मणा (वार्याणि) वरितुमर्हाणि वस्तूनि (प्रभूषतः) प्रकृष्टतयाऽलंकुरुतः ॥ १ ॥
भावार्थः
ये मनुष्याः प्रयत्नेन क्षितिसूर्ययोर्गुणकर्मस्वभावान् यथावद्विजानीयुस्तेऽतुलेन सुखेनाऽलंकृताः स्युः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ उनसठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में बिजुली के विषय में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (ये) जो (ऋतावृधा) कारण से बढ़े हुए (प्रचेतसा) उत्तमता से प्रबल ज्ञान करानेहारे (देवपुत्रे) दिव्य प्रकृति के अंशों से पुत्रों के समान उत्पन्न हुए (सुदंससा) प्रशंसित कर्मवाले (मही) बड़े (द्यावापृथिवी) सूर्यमण्डल और भूमिमण्डल (यज्ञैः) मिले हुए व्यवहारों से (विदथेषु) जानने योग्य पदार्थों में (देवेभिः) दिव्य जलादि पदार्थों और (धिया) कर्म के साथ (वार्य्याणि) स्वीकार करने योग्य पदार्थों को (प्रभूषतः) सुभूषित करते हैं और आप उन की (प्र, स्तुषे) प्रशंसा करते हैं (इत्था) इस प्रकार उनकी हम लोग भी प्रशंसा करें ॥ १ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य उत्तम यत्न के साथ पृथिवी और सूर्यमण्डल के गुण, कर्म, स्वभाव को यथावत् जानें, वे अतुल सुख से भूषित हों ॥ १ ॥
विषय
जीवन की शोभा
पदार्थ
१. मैं (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप द्युलोक तथा शरीररूप पृथिवी का (यज्ञैः) = यज्ञों के हेतु से प्रस्तुषे प्रकर्षेण स्तवन करता हूँ। शरीर व मस्तिष्क के ठीक होने पर ही यज्ञों का साधन होता है। ये द्यावापृथिवी ही (ऋतावृधा) = [ऋत= यज्ञ - श्रेष्ठतम कर्म] ऋत का, यज्ञों व श्रेष्ठतम कर्मों का वर्धन करनेवाले हैं। (मही) = ये महत्त्वपूर्ण हैं। (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में प्रचेतसा प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करानेवाले हैं। मस्तिष्क व शरीर के ठीक होने पर ही ज्ञान प्राप्त होता है । २. (देवपुत्रे) = [देवा: पुत्रा ययोस्ते] दिव्य गुणोंवाले व्यक्ति जिनको [पुनाति त्रायते इति पुत्रः] पवित्र व रक्षित करनेवाले हैं वे (सुदंससा) = शोभन कर्मों से युक्त व दर्शनीय द्यावापृथिवी [मस्तिष्क और शरीर] (देवेभिः) = दिव्य गुणों से तथा (इत्था) = सत्य धिया बुद्धि से (वार्याणि) = वरणीय, चाहने योग्य कर्मों को (प्रभूषतः) = हमारे जीवन में अलंकृत करते हैं। मस्तिष्क व शरीर के स्वस्थ होने पर हमारा जीवन [क] सद्गुणों से अलंकृत होता है, [ख] सत्य बुद्धि से सुशोभित होता है तथा [ग] उस समय सब वरणीय बातें हमारे जीवन को अलंकृत करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- मस्तिष्क व शरीर के ठीक होने पर ही जीवन दिव्य गुणों से सुशोभित होता है।
विषय
सूर्य और पृथिवीकृत दृष्टान्त से माता पिता, गुरुजनों के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
सूर्य और पृथिवी के दृष्टान्त से माता पिता और गुरुजनों के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हैं। जिस प्रकार ( द्यावापृथिवी मही ऋतावृधा ) सूर्य और पृथिवी बड़े और सब प्रजाओं को अन्न और जल से बढ़ाने वाले होते हैं और जिस प्रकार वे दोनों ( देवेभिः देवपुत्रे ) प्रकाश युक्त किरणों और सुखप्रद पदार्थों द्वारा उत्तम पुरुषों के पालन करने वाले और ( सुदंससा ) उत्तम रीति से दुःखनाशक रह कर ( वार्याणि प्र भूषतः ) नाना ऐश्वर्यों को प्रदान करते हैं उसी प्रकार ( द्यावा पृथिवी ) ज्ञान प्रकाश, स्नेह और उत्तम व्यवहारों से युक्त, भूमि के समान विस्तृत और प्रजा के उत्पादक माता, पिता और गुरुजन (मही) अति पूजनीय ( ऋतावृधा ) सत्य ज्ञान और अन्न जल से सन्तानों की मन आत्मा और देह की वृद्धि करने वाले हों, उन दोनों (प्रचेतसा) उत्तम ज्ञान, उत्तम स्नेहवान् चित्त से युक्तों को मैं ( विदथेषु ) ज्ञानों के निमित्त और जब जब भी वे प्राप्त हों तब तब ( स्तुषे ) उनके उत्तम गुण वर्णन करूं । ( ये ) जो दोनों वे ( देवेभिः ) उत्तम विद्वानों द्वारा ( देवपुत्रे ) देव, तेजस्वी और दानशील, विजयी और व्यवहारकुशल पुत्रों और शिष्यों से युक्त होकर ( सुदंससा ) उत्तम कर्म और ज्ञान से युक्त होकर (धिया) बुद्धि और कर्म के बल से ( वार्याणि ) वरण करने योग्य ज्ञान और ऐश्वर्यो को ( प्र भूषथः ) अधिक मात्रा में धारण करते कराते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः- १ विराट् जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ४ जगती च ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्युत व भूमीप्रमाणे विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
जी माणसे उत्तम यत्न करून पृथ्वी व सूर्यमंडळाचे गुण, कर्म, स्वभाव यथायोग्य जाणतात ते अतुल सुख भोगतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I study, serve and admire the earthly sphere and the solar system, both great, born of the particles of matter and energy in the course of natural evolution, both suggestive of new and newer knowledge through our yajnas of scientific programmes. Both of them, creations of the Divine, highly generous and productive, in cooperation with other natural elements, powers and spheres, working by the immanent will and intelligence of nature, produce and adorn manifold things of beauty and value.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of power (energy) are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O scholar! you should praise the attributes of the great sun and earth which have been developed out of external causes. They are sources of great knowledge, and are like the sons of the divine particles of Prakriti or Promortial Matter. They have "worthwhile actions and with their concerted acts adorn many acceptable substances. Their areas of operation are all knowable objects along with the water and other divine elements and their manifestations. As you praise them, likewise we may also always admire you on account of your wisdom and scientific knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who try to know the attributes, acts and nature of the earth sun etc. with sincere efforts are adorned with unmatched happiness.
Foot Notes
(यज्ञै:) संगतैर्व्यवहार: = With unified acts or dealings. (देवपुत्रो) देवैर्दिव्यैः प्रकृत्यंशै पुत्र इव प्रजाते = Like the sons of the divine particles of Prakriti or Primordial matter. ( ऋतावृधा ) ऋतेन वर्जिते = Developed out of the eternal causes, Prakriti and God. Prakriti or Primordial Matter as material cause and God as efficient cause.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal