ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वृष॑णं॒ सोम॑पीतये। इन्द्र॑ त्वा॒ सूर॑चक्षसः॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । व॒ह॒न्तु॒ । हर॑यः । वृष॑णम् । सोम॑ऽपीतये । इन्द्र॑ । त्वा॒ । सूर॑ऽचक्षसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये। इन्द्र त्वा सूरचक्षसः॥
स्वर रहित पद पाठआ। त्वा। वहन्तु। हरयः। वृषणम्। सोमऽपीतये। इन्द्र। त्वा। सूरऽचक्षसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रेन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
हे इन्द्र ! यं वृषणं सोमपीतये सूरचक्षसो हरयः सर्वतो वहन्ति त्वा तं त्वमपि वह, यं सर्वे शिल्पिनो वहन्ति तं सर्वे वहन्तु, हे मनुष्या ! यं वयं विजानीमस्त्वा तं यूयमपि विजानीत॥१॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (त्वा) तं सूर्य्यलोकम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (हरयः) हरन्ति ये ते किरणाः। हृपिषिरुहि० (उणा०४.१२४) इति ‘हृ’धातोरिन् प्रत्ययः (वृषणम्) यो वर्षति जलं स वृषा तम्। कनिन्युवृषि० (उणा०१.१५४) इति कनिन् प्रत्ययः। वा षपूर्वस्य निगमे। (अष्टा०६.४.९) इति विकल्पाद् दीर्घाभावः। (सोमपीतये) सोमानां सुतानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सह सुपा इति समासः। (इन्द्र) विद्वन् (त्वा) तं पूर्वोक्तम् (सूरचक्षसः) सूरे सूर्य्ये चक्षांसि दर्शनानि येषां ते॥१॥
भावार्थः
याः सूर्य्यस्य दीप्तयस्ताः सर्वरसाहारकाः सर्वस्य प्रकाशिका वृष्टिकराः सन्ति ता यथायोग्यमानुकूल्येन मनुष्यैः सेविता उत्तमानि सुखानि जनयन्तीति॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्वन् ! जिस (वृषणम्) वर्षा करनेहारे सूर्य्यलोक को (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम अर्थात् ओषधियों के अर्क खिंचे हुए पदार्थों का पान किया जाता है, उसके लिये (सूरचक्षसः) जिनका सूर्य्य में दर्शन होता है, (हरयः) हरण करनेहारे किरण प्राप्त करते हैं, (त्वा) उसको तू भी प्राप्त हो, जिसको सब कारीगर लोग प्राप्त होते हैं, उसको सब मनुष्य (आवहन्तु) प्राप्त हों। हे मनुष्यो ! जिसको हम लोग जानते हैं (त्वा) उसको तुम भी जानो॥१॥
भावार्थ
जो सूर्य्य की प्रत्यक्ष दीप्ति सब रसों के हरने सबका प्रकाश करने तथा वर्षा करनेवाली हैं, वे यथायोग्य अनुकूलता के साथ सेवन करने से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम सुख देती हैं॥१॥
विषय
इस सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र! यम्वृषणं सोमपीतये सूरचक्षसो हरयः सर्वतः वहन्ति त्वा तम् त्वम्अपि वह, यं सर्वे शिल्पिनः वहन्ति तम्सर्वे वहन्तु, हे मनुष्य! यं वयं विजानीम् अस्ति वा तं यूयम् अपि विजानीत॥01॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्वान्=विद्वान्मनुष्य, (यम्)=जिसको, (वृषणम्)=यो वर्षति जलं स वृषा तम्=वर्षा करने वाले सूर्य लोक को, (सोमपीतये)=सोमानां सुतानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिन्व्यवहारे तस्मै=जिस व्यवहार में सोम्आदि ओषधियों के अर्क आदि खिंचे हुए पदार्थों का पान किया जाता है, (सूरचक्षसः) सूरे सूर्य्ये चक्षांसि दर्शनानि येषां=जिनका सूर्य्य में दर्शन होता है, (हरयः) हरन्ति ये ते किरणा=हरण करने वाली किरणें, (सर्वतः)=हर ओर से, (वहन्ति)=प्राप्त करती हैं, (तम्) उसको (त्वम्)=आप, (अपि)=भी, (वह)=प्राप्त करो, (यम्)=जिसको, (सर्वे)=समस्त, (शिल्पिनः)=शिल्पकार, (वहन्ति)=प्राप्त करते हैं, (तम्)=उसको, (सर्वे)=समस्त, (वहन्तु)=प्राप्त करें, हे (मनुष्य)= मनुष्यों! (यम्)=जिसको, (वयम्)=हम, (विजानीम्)=अच्छी तरह से जानते हैं, (वा)=अथवा, (तम्)=उसको, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (विजानीत)=जानो॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो सूर्य्य की प्रत्यक्ष दीप्ति सब रसों के हरने, सबका प्रकाश करने तथा वर्षा करनेवाली हैं, वे यथायोग्य अनुकूलता के साथ सेवन करने से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम सुख देती हैं॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) विद्वान्मनुष्य! (यम्) जिस (वृषणम्) वर्षा करने वाले सूर्य लोक को, (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम आदि से खिंचे हुए ओषधियों के अर्क आदि पदार्थों का पान किया जाता है, (सूरचक्षसः) और जिनका सूर्य में दर्शन होता है। (हरयः) जल की बूंदों का हरण करने वाली किरणें (सर्वतः) हर ओर से (वहन्ति) प्राप्त करती हैं। (तम्) उसको (त्वम्) आप (अपि) भी (वह) प्राप्त करो। (यम्) जिसको (सर्वे) समस्त (शिल्पिनः) शिल्पकार (वहन्ति) प्राप्त करते हैं, (तम्) उसको (सर्वे) समस्त मनुष्य (वहन्तु) प्राप्त करें। हे (मनुष्य) मनुष्यों! (यम्) जिसको (वयम्) हम (विजानीम्) अच्छी तरह से जानते हैं (वा) और (तम्) उसको (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (विजानीत) अच्छी तरह से जानो॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (त्वा) तं सूर्य्यलोकम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (हरयः) हरन्ति ये ते किरणाः। हृपिषिरुहि० (उणा०४.१२४) इति 'हृ'धातोरिन् प्रत्ययः (वृषणम्) यो वर्षति जलं स वृषा तम्। कनिन्युवृषि० (उणा०१.१५४) इति कनिन् प्रत्ययः। वा षपूर्वस्य निगमे। (अष्टा०६.४.९) इति विकल्पाद् दीर्घाभावः। (सोमपीतये) सोमानां सुतानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सह सुपा इति समासः। (इन्द्र) विद्वन् (त्वा) तं पूर्वोक्तम् (सूरचक्षसः) सूरे सूर्य्ये चक्षांसि दर्शनानि येषां ते॥१॥
विषयः- तत्रेन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे इन्द्र! यं वृषणं सोमपीतये सूरचक्षसो हरयः सर्वतो वहन्ति त्वा तं त्वमपि वह, यं सर्वे शिल्पिनो वहन्ति तं सर्वे वहन्तु, हे मनुष्य! यं वयं विजानीमस्त्वा तं यूयमपि विजानीत॥01॥महर्षिकृतः॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- याः सूर्य्यस्य दीप्तयस्ताः सर्वरसाहारकाः सर्वस्य प्रकाशिका वृष्टिकराः सन्ति ता यथायोग्यमानुकूल्येन मनुष्यैः सेविता उत्तमानि सुखानि जनयन्तीति॥१॥
विषय
हरयः सूरचक्षसः
पदार्थ
१. गत सूक्त के अन्तिम मन्त्र के अनुसार घर को उत्तम बनाकर , उस सुन्दर यज्ञों व देवों के अधिष्ठानभूत घर में हे (इन्द्र) - परमैश्वर्ययुक्त प्रभो! (वृषणम्) - सब सुखों की वर्षा करनेवाले (त्वा) - आपको (हरयः) - औरों के दुःखों का हरण करनेवाले , यज्ञों का आहरण करनेवाले पुरुष तथा (सूरचक्षसः) - सूर्य के समान देदीप्यमान ज्ञान के प्रकाशवाले पुरुष (त्वा) - आपको ही (आवहन्तु) - सब प्रकार से प्राप्त करने का प्रयत्न करें ।
२. (सोमपीतये) - सोम की रक्षा के लिए यह आपका आवहन अत्यन्त आवश्यक है । जहाँ आप हैं , वहाँ काम नहीं । जहाँ काम नहीं , वहीं सोमपान भी सम्भव है । इस सोमपान से ही तो मनुष्य अपनी जीवन - यात्रा को ठीक प्रकार से पूर्ण करता हुआ जीवन को सुखी बना सकता है ।
३. प्रभु के आवहन के लिए आवश्यक है कि हम "हरयः सूरचक्षसः" बनें - औरों के दुःखों को हरण करनेवाले बनें । गीता [१२/४] के शब्दों में (सर्वभूतहिते रताः) - सब प्राणियों के हित में लगे हुए पुरुष ही प्रभु के भक्ततम होते हैं , तथा (सूरचक्षसः) - दीप्त ज्ञानाग्निवाले पुरुष ही कामग्नि को भस्म करके प्रभु - प्राप्ति के योग्य बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम पर - दुःखहरण व ज्ञानार्जन करके प्रभु - दर्शन के योग्य बनें ।
विषय
परमेश्वर उपासक, राजा, विद्वान जन, आत्मा और प्राण गण का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् ! परमेश्वर ! ( हरयः ) जल ले लेने वाले किरण (सोमपीतये) रसों को पान करने के लिये जिस प्रकार ( वृषणं ) वर्षण करने वाले सूर्य या मेघ को धारण करते हैं, उसी प्रकार (सूरचक्षसः) सूर्य के समान तेजोमय, स्वतःप्रकाश परमेश्वर का साक्षात् करने वाले ( हरयः ) विद्वान् जन भी ( सोमपीतये ) आनन्दरस का पान करने के लिए ( त्वा वृषणं ) तुझ सब सुखों के वर्णक को ही ( वहन्ति ) हृदय में धारण करते हैं और ( त्वा ) तुझे ही साक्षात् करते हैं । अध्यात्म में—( हरयः ) हे आत्मन् ! ये इन्द्रियगण तुझे धारण करते हैं । राजा के पक्ष में—हे ( इन्द्र ) राजन् ( सूरचक्षसः ) सूर्य के समान तीव्र चक्षु वाले, तेजस्वी लोग राष्ट्र के भोग और पालन के लिए तुझे ( वृषणं ) बलवान् एवं शस्त्रास्त्र वर्षक, या प्रजा पर सुख समृद्धि के वर्षाने वाले को ही मेघ के समान जानकर ( त्वा वहन्तु ) तुझे रथ को अश्वों के समान धारण करते हैं, तेरे कार्य वहन करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
ऋतूचे संपादक जे सूर्य व वायू इत्यादी पदार्थ आहेत, त्यांच्या यथायोग्य प्रतिपादनाने सोळाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्वीच्या पंधराव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
जी सूर्याची दीप्ती (किरणे) सर्व रसांना खेचून सर्वांचा प्रकाश करणारी व वृष्टी करविणारी आहेत, त्यांचे अनुकूलतेने सेवन केल्यास ती माणसांना उत्तम सुख देतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, light and power blazing as the sun, may the rays of light, brightest and fastest waves of energy, transmit your power, generous harbinger of light and rain, to the earth for a drink of soma as well as the protection of the joyous gifts of life. May the specialist scholars of light and solar energy develop the light and energy for the protection and prosperity of humanity and the environment.
Subject of the mantra
Now, we start sixteenth hymn. In its first mantra qualities of Sun have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=scholar, (yam)=which, (vṛṣaṇam)=to sun sphere who makes it to rain, (somapītaye)= practice in which the juices extracted from soma herbs are drunk, (sūracakṣasaḥ)=which are shown in sun sphere, (harayaḥ)=rays which abduct (water droplets), (sarvataḥ)=from every direction, (vahanti)=obtain, (tam)=to that, (tvam)=you, (api)=also, (vaha)=obtain, (yam)=which, (sarve)=all, (śilpinaḥ)=artisans, (vahanti)=obtain, (tam)= to that, (sarve)=all, (vahantu)=must obtain, (manuṣya)=human beings, (he)=O! (yam)=to whom, (vayam)=we, (vā)=and, (tam)=to that, (yūyam)=all of you, (api)=as well, (vijānīta)=must know well.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! to which Sun sphere who makes it to rain, practice in which the juices are extracted from Soma herbs are drunk, which are shown in the Sun sphere, those rays which abduct (water droplets) obtain from every direction. You also obtain them, which are obtained by all artisans. All human beings must obtain them. O human beings! Whom we know well and you all must know Him as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
That direct brightness of the Sun abducts the juices [of herbs], illuminates all and gives rain, if used with the right conduciveness, gives the best of happiness to human beings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra are now taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, you should know that the mighty sun is praised by persons as the bright sun for the protection of the articles made by God. The rays manifest him ( the sun). Let all artists praise the AGNI (fire) from all sides.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हरयः ) हरन्ति ये ते किरणाः हृपिपिरुहि । उपा०४.१२५ इति हृधातोः इन् प्रत्ययः = Rays. (इन्द्र) विद्वन् इदि-परमैश्वर्ये - ज्ञानैश्वर्य सम्पन्न | (इन्द्र) विद्वन् = learned person possessing the wealth of wisdom.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The rays of the sun are takers or drawers of all sap, giving light to all as well rain. They give happiness to all, when used by men with discrimination.
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