ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 160/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
ते हि द्यावा॑पृथि॒वी वि॒श्वश॑म्भुव ऋ॒ताव॑री॒ रज॑सो धार॒यत्क॑वी। सु॒जन्म॑नी धि॒षणे॑ अ॒न्तरी॑यते दे॒वो दे॒वी धर्म॑णा॒ सूर्य॒: शुचि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठते इति॑ । हि । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वि॒श्वऽश॑म्भुवा । ऋ॒तव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री । रज॑सः । धा॒र॒यत्क॑वी॒ इति॑ धा॒र॒यत्ऽक॑वी । सु॒जन्म॑नी॒ इति॑ सु॒ऽजन्म॑नी । धि॒षणे॒ इति॑ । अ॒न्तः । ई॒य॒ते॒ । दे॒वः । दे॒वी इति॑ । धर्म॑णा । सूर्यः॑ । शुचिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते हि द्यावापृथिवी विश्वशम्भुव ऋतावरी रजसो धारयत्कवी। सुजन्मनी धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणा सूर्य: शुचि: ॥
स्वर रहित पद पाठते इति। हि। द्यावापृथिवी इति। विश्वऽशम्भुवा। ऋतवरी इत्यृतऽवरी। रजसः। धारयत्कवी इति धारयत्ऽकवी। सुजन्मनी इति सुऽजन्मनी। धिषणे इति। अन्तः। ईयते। देवः। देवी इति। धर्मणा। सूर्यः। शुचिः ॥ १.१६०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 160; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ द्यावापृथिव्योर्दृष्टान्तेन मनुष्याणामुपकारग्रहणमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसो ये विश्वशम्भुवा ऋतावरी धारयत्कवी सुजन्मनी धिषणे देवी द्यावापृथिवी धर्मणा रजसोऽन्तर्धरतः। ययोरन्तः शुचिर्देवः सूर्य्य ईयते ते हि यूयं सम्यग्विजानीत ॥ १ ॥
पदार्थः
(ते) द्वे (हि) खलु (द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे (विश्वशम्भुवा) विश्वस्मिन् शं सुखं भावुकेन (ऋतावरी) सत्यकारणयुक्ते (रजसः) लोकान् (धारयत्कवी) धारयन्तौ कवी विक्रान्तदर्शनौ सूर्यविद्युतौ ययोस्तौ (सुजन्मनी) शोभनं जन्म ययोस्ते (धिषणे) प्रसोढ्यौ (अन्तः) मध्ये (ईयते) प्राप्नोति (देवः) दिव्यगुणः (देवी) देदीप्यमाने (धर्मणा) स्वधर्मेण (सूर्यः) (शुचिः) पवित्रः ॥ १ ॥
भावार्थः
यथा सर्वेषां लोकानां वायुविद्युदाकाशाऽधिकरणानि सन्ति तथेश्वरो वाय्वादीनामाधारोऽस्ति। अस्यां सृष्टावेकैकस्य ब्रह्माण्डस्य मध्य एकैकः सूर्यलोकोऽस्तीति सर्वे विद्युः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले एकसौ साठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में द्यावापृथिवी के दृष्टान्त से मनुष्यों के उपकार करने का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! जो (विश्वशम्भुवा) संसार में सुख की भावना करनेहारे करके (ऋतावरी) सत्य कारण से युक्त (धारयत्कवी) अनेक पदार्थों की धारणा कराते और प्रबल जिन का देखना (सुजन्मनी) सुन्दर जन्मवाले (धिषणे) उत्कट सहनशील (देवी) निरन्तर दीपते हुए (द्यावापृथिवी) बिजुली और अन्तरिक्ष लोक (धर्मणा) अपने धर्म्म से अर्थात् अपने भाव से (रजसः) लोकों को (अन्तः) अपने बीच में धरते हैं। जिन उक्त द्यावापृथिवियों में (शुचिः) पवित्र (देवः) दिव्य गुणवाला (सूर्य्यः) सूर्यलोक (ईयते) प्राप्त होता है (ते) उन दोनों को (हि) ही तुम अच्छे प्रकार जानो ॥ १ ॥
भावार्थ
जैसे सब लोकों के वायु, बिजुली और आकाश ठहरने के स्थान हैं, वैसे ईश्वर उन वायु आदि पदार्थों का आधार है। इस सृष्टि में एक-एक ब्रह्माण्ड के बीच एक-एक सूर्यलोक है, यह सब जानें ॥ १ ॥
विषय
'देव, सूर्य, शुचि'
पदार्थ
१. (ते) = वे, गत सूक्त में वर्णित (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (हि) = ही (विश्वशम्भुवे) = सब शान्तियों को जन्म देनेवाले हैं। मस्तिष्क व शरीर के ठीक होने पर ही सब कल्याण निर्भर होता है। ये द्यावापृथिवी ही (ऋतावरी) = ऋतवाले होते हैं। शरीर व मस्तिष्क के स्वस्थ होने पर ही सब कार्य ऋतयुक्त हुआ करते हैं । २. ये द्यावापृथिवी (रजसः धारयत् कवी) = [धारयन्तौ कविं यौ] हृदयान्तरिक्ष में उस क्रान्तदर्शी प्रभु को धारण करनेवाले होते हैं। शरीर स्वस्थ हो और मस्तिष्क ज्ञानदीप्त हो तो हृदय में उस क्रान्तदर्शी प्रभु का दर्शन होता ही है। ३. इस प्रकार जब ये द्यावापृथिवी (सुजन्मनी) = उत्तम जन्म या विकासवाले होते हैं, उस समय ये (धिषणे) = [धिष्=to sound] प्रभु की महिमा का प्रतिपादन करनेवाले होते हैं, (देवी) = दिव्य गुणोंवाले या प्रकाशमय = होते हैं, उस समय (अन्त:) = इनके अन्तर (धर्मणा) = धारणात्मक कर्मों के साथ (देवः) = प्रकाशमय (सूर्य:) = निरन्तर गतिशील (शुचिः) = पवित्र जीवनवाला आत्मा (ईयते) = गति करता है। जैसे द्युलोक व सूर्यलोक के बीच में सूर्य सब लोकों का आकर्षण के द्वारा धारण करता एवं गति करता है, उसी प्रकार मस्तिष्क व शरीर के मध्य हृदय में पवित्र आत्मा का निवास होता है। यह पवित्रात्मा लोकधारक कर्मों को करता हुआ चलता है ।
भावार्थ
भावार्थ- मस्तिष्क व शरीर को उत्तम बनाकर इनके मध्य हृदय में हम 'देव, सूर्य व शुचि' = बनकर निवास करें और गतिमय जीवन बिताएँ ।
विषय
सूर्य पृथिवी के दृष्टान्त से पति-पत्नियों के कर्त्तव्यों का वर्णन
भावार्थ
सूर्य पृथिवी के दृष्टान्त से पति पत्नी के कर्त्तव्यों का वर्णन । ( द्यावा पृथिवी विश्वशम्भुवा ) सूर्य और पृथिवी जिस प्रकार समस्त विश्व को शान्ति और कल्याण देने वाले हैं। वे ( ऋतावरी ) प्रकाश और जल से पूर्ण होकर ( धारयत्कवी ) क्रान्तदर्शी प्रकाश को धारण करते और ( धिषणे ) सबको धारण करते हैं उसी प्रकार ( ते ) वे दोनों स्त्रीपुरुष या माता पिता ( हि ) भी ( विश्व-शम्भुवा ) समस्त संसार को शान्ति देने और कल्याण करने वाले ( ऋतावरी ) सत्य व्यवहार, उत्तम धन को चाहने और स्वीकार करने वाले ( रजसः ) प्रजाजनों और लोकों के हितार्थ, ( धारयत्-कवी ) क्रान्तदर्शी विद्वानों को धारण करने वाले, ( सुजन्मनी ) उत्तम जन्म वाले, (धिषणे) समस्त लोकों को अपने आश्रम में धारण करने वाले हों। उनमें से (देवः सूर्यः) सूर्य के समान तेजस्वी और कामना युक्त पुरुष ( धर्मणा ) धर्म से ( शुचिः ) शुद्ध पवित्र हो । और उसी प्रकार ( देवी ) कामना युक्त, स्नेहवती स्त्री भी ( धर्मणा शुचिः ) धर्म से शुद्ध पवित्र होकर ( अन्तः ईयते ) हृदय, अन्तःकरण में विराजे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः– १ विराड् जगती । २, ३, ४, ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात द्यावा पृथ्वीचा दृष्टांत असून माणसांनी त्यापासून उपकार घ्यावेत हे सांगितलेले आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे समजले पाहिजे. ॥
भावार्थ
जशी सर्व लोकांची वायू, विद्युत व आकाश ही राहण्याची स्थाने आहेत, तसा ईश्वर त्या वायू इत्यादी पदार्थांचा आधार आहे. या सृष्टीत एकेका ब्रह्मांडात एक एक सूर्य लोक आहे, हे सर्वांनी जाणावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The two, heaven and earth, givers of universal peace and comfort, abiding by the laws of universal Truth, holding their spheres, vested with immanent will and intelligence, nobly born of mother nature, stout and forbearing, are brilliant and of divine quality. The sun, pure and effulgent, goes on by the laws of its own existence between heaven and earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
With the illustration of the lightning and firmament, the duty of taking benefit out of them is preached.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you should know well about the energy and firmament. They diffuse happiness on all, and it is blessed by God out of the eternal cause-Matter. The matter consists of the sun and energy and they uphold all the auspicious and energetic persons in between the heaven and earth. A learned person always takes cue from the pure and divine sun, and it helps him in the discharge of his duties.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the air, energy and sky are the abode of planets (worlds), so is God. He is the support of all of them. All should know that this universe has many planets.
Foot Notes
( द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे = Electricity and firmament. (ऋतावरी ) सत्यकारणयुक्ते = Produced by true God from the true eternal cause-matter. (धारयत्कवी) धारयन्तौ कवी विक्रान्तदर्शनी सूर्यविद्यतौ ययोस्तौ = The earth and heaven which have the sun and lightning or electricity upholding all. (रजसः) लोकान् = Worlds.
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