ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्वोऽग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदक्र॑न्दः प्रथ॒मं जाय॑मान उ॒द्यन्त्स॑मु॒द्रादु॒त वा॒ पुरी॑षात्। श्ये॒नस्य॑ प॒क्षा ह॑रि॒णस्य॑ बा॒हू उ॑प॒स्तुत्यं॒ महि॑ जा॒तं ते॑ अर्वन् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अक्र॑न्दः । प्र॒थ॒मम् । जाय॑मानः । उ॒त्ऽयन् । स॒मु॒द्रात् । उ॒त । वा॒ । पुरी॑षात् । श्ये॒नस्य॑ । प॒क्षा । ह॒रि॒णस्य॑ । बा॒हू इति॑ । उ॒प॒ऽस्तुत्य॑म् । महि॑ । जा॒तम् । ते॒ । अ॒र्व॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात्। श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अक्रन्दः। प्रथमम्। जायमानः। उत्ऽयन्। समुद्रात्। उत। वा। पुरीषात्। श्येनस्य। पक्षा। हरिणस्य। बाहू इति। उपऽस्तुत्यम्। महि। जातम्। ते। अर्वन् ॥ १.१६३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वदग्निगुणानाह ।
अन्वयः
हे अर्वन् यत् त्वं समुद्रादुतापि वा पुरीषादुद्यन्निव जायमानः प्रथममक्रन्दः। यस्य ते श्येनस्य पक्षेव हरिणस्य बाहू इव उपस्तुत्यं महि जातं कर्माङ्गमग्निरस्ति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥ १ ॥
पदार्थः
(यत्) यस्मात् कारणात् (अक्रन्दः) शब्दायसे (प्रथमम्) आदिमम् (जायमानः) उत्पद्यमानः (उद्यन्) उदयं प्राप्नुवन् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात् (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (पुरीषात्) पूर्णात्कारणात् (श्येनस्य) (पक्षा) पक्षौ (हरिणस्य) (बाहू) बाधकौ भुजौ (उपस्तुत्यम्) उपस्तोतुमर्हम् (महि) महत् (जातम्) उत्पन्नम् (ते) तव (अर्वन्) विज्ञानवन् ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये धर्म्येण ब्रह्मचर्येण विद्या अधीयते ते सूर्यवत् प्रकाशमानाः श्येनवद्वेगवन्तो मृगवदुत्प्लवमानाः प्रशंसिता भवन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ तिरेसठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके आदि से विद्वान् और बिजुली के गुणों को कहते हैं ।
पदार्थ
हे (अर्वन्) विज्ञानवान् विद्वान् ! (यत्) जिस कारण तू (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से (उत) अथ (वा) वा (पुरीषात्) पूर्ण कारण से (उद्यन्) उदय को प्राप्त होते हुए सूर्य के तुल्य (जायमानः) उत्पन्न होता (प्रथमम्) पहिले (अक्रन्दः) शब्द करता है, जिस (ते) तेरा (श्येनस्य) वाज के (पक्षा) पङ्खों के समान (हरिणस्य) हरिण के (बाहू) बाधा करनेवाली भुजा के तुल्य (उपस्तुत्यम्) समीप से प्रशंसा के योग्य (महि, जातम्) बड़ा उत्पन्न हुआ काम साधक अग्नि है सो सबको सत्कार करने योग्य है ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य से विद्याओं को पढ़ते हैं, वे सूर्य के समान प्रकाशमान, वाज के समान वेगवान् और हरिण के समान कूदते हुए प्रशंसित होते हैं ॥ १ ॥
विषय
श्येनस्य पक्षा, हरिणस्य बाहू
पदार्थ
१. वैदिक साहित्य में आचार्य का नाम 'समुद्र' भी है। आचार्य को ज्ञान का समुद्र तो होना ही है। उसे सदा 'स+मुद्' प्रसन्न मनोवृत्तिवाला भी होना है। कभी भी क्रोध न करते हुए उसे सदा विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त कराना है। 'तपोऽतिष्ठत् तप्यमानः समुद्रे' = ब्रह्मचर्यसूक्त के इस मन्त्रभाग में आचार्य को समुद्र कहा ही है। (समुद्रात्) = ज्ञान के समुद्र, प्रसन्नमनोवृत्तिवाले आचार्य से (उद्यन्) = उदय को प्राप्त होता हुआ (उत वा) = अथवा (पुरीषात्) = सबका पालन करनेवाले गृहस्थ से उदय को प्राप्त होता हुआ यह व्यक्ति (जायमानः) = निद्रा की समाप्ति पर आविर्भूत जीवनवाला होता हुआ (प्रथमम्) = सबसे पूर्व (यत्) = जो (अक्रन्दः) = प्रभु का आह्वान करता है और २. इसके (पक्षा) = [पक्ष परिग्रहे] ज्ञान व उपासनारूप पंख (श्येनस्य) = श्येन के होते हैं । 'श्यैङ् गतौ' से बनकर श्येन शब्द गति का प्रतिपादक है। यह ज्ञानपूर्वक कर्म करता है और अपने कर्त्तव्य कर्मों के अनुष्ठान से प्रभु का उपासन करता है। इस प्रकार इसका ज्ञान भी कर्म के लिए है और उपासन भी कर्मों द्वारा ही होता है । ३. इसकी (बाहू) = भुजाएँ (हरिणस्य) = हरिण की होती हैं [हृ हरणे, वा हृ प्रयत्ने] इसके सारे प्रयत्न औरों के कष्टों को हरने के लिए होते हैं। इसकी भुजाएँ क्रियाशील होती हैं और वे सब क्रियाएँ औरों के दुःखों को दूर करने के लिए होती हैं। ४. अब हे (अर्वन्) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष! (ते महि जातम्) = तेरा यह महान् विकास वास्तव में ही (उपस्तुत्यम्) = स्तुति के योग्य है । =
भावार्थ
भावार्थ - उत्कृष्ट जीवन यही है कि - (क) हम उठते ही प्रभु का आराधन करें, (ख) ज्ञानपूर्वक कर्म करें, कर्मों द्वारा ही प्रभु का अर्चन करें, (ग) हमारे सब प्रयत्न औरों के दुःखों का हरण करनेवाले हों ।
विषय
आचार्य के सावित्रीमय गर्भ से शिष्य की उत्पत्ति, और विद्वान् होने पर उसकी सफलता । आचार्य का शिष्य के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ
आचार्य के सावित्रीमय गर्भ से उत्पन्न होने वाले शिष्य का वर्णन करते हैं । हें ( अर्चन् ) ज्ञानवान् पुरुष ! ( यत् ) जो तू ( समुद्रात् ) समुद्र या महान् आकाश से ( उद् यन् ) उदय को प्राप्त होते हुए सूर्य के समान ( समुद्रात् ) ज्ञानों के सागर (उत = वा) और ( पुरीषात् ) ज्ञानों में परिपूर्ण गुरु से ( जायमानः ) पूर्ण वीर्यवान् पिता माता से उत्पन्न पुत्र के समान उत्पन्न होता हुआ ( प्रथमं ) सबसे उत्तम पढ़ पर विराज कर तू ( अक्रन्दः ) उपदेश करता और ( श्येनस्य ) वाज के ( पक्षा ) दोनों वाजू जिस प्रकार बलवान् होकर आकाश के पार जाने में समर्थ होते हैं उसो प्रकार ( श्येनस्य ) ज्ञानवान् आत्मा या पुरुष के ( पक्षौ ) वश करने वाले दोनों ज्ञान और कर्म उसको अपार भवसागर से पार करने में समर्थ हों । ( हरिणस्य बाहू ) हरिण की बाहूएं जिस प्रकार वेग से वन आदि में उसकी रक्षा करने में समर्थ होते हैं उसी प्रकार (हरिणस्य) सर्व दुखहारी आत्मा की ( बाहू ) अज्ञान संकटों और विपक्षियों को दूर करने और पीड़ित करने वाले देह और मन के दोनों बल प्राप्त हों। तभी ( ते जातं महि) ऐसा तेरा मातृगर्भ और आचार्य गर्भ से उत्पन्न होना अति आदर योग्य एवं सफल है । समस्त सूक्त की राजा के पक्ष में लगने वाली अर्थयोजना देखो यजु० अ० २९ । १२-२४ ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वान व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य पाळून विद्या शिकतात ते सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान, बहिरीससाण्याप्रमाणे वेगवान व हरिणाप्रमाणे चपळ असतात त्यांची प्रशंसा होते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Arvan, divine racer, Agni, universal energy, first born of Lord Omnipotent, rising from the oceans of space, the sky and the sea, who roared with force at your very birth, your wings are like the wings of the celestial eagle that brings the showers of soma and the warmth of fire, and your arms are like the arms of the sun, the thunderbolt. Surely great is your birth from nature, worthy of admiration and homage.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned person and Agni are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! active like a deer, when you shine with full splendor, like air created in the beginning by Perfect God from the atmosphere, your arms have become strong like the wings of the eagle. You deserve praise for this glaring great deed. Fire is used by you for the accomplishment of many great works.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who study all sciences with the observance of Brahmacharya (state of continence and Chasity) brightly shine like the sun, are full of speed like an eagle and actively jumping like the dear.
Foot Notes
(समुन्द्रात) = From the firmament or atmosphere ( पुरीषात् ) पूर्णात् कारणात् । पालकात् परमात्मन इति ( Yv 29-12 ) - From Perfect God who is the efficient cause of the Universe. (अर्वन्) विज्ञानवान् अथवा अश्व इव वेंगवान् विद्वान् ( Y 29.12 ) = O learned person active like the horse.
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