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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 168 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    य॒ज्ञाय॑ज्ञा वः सम॒ना तु॑तु॒र्वणि॒र्धियं॑धियं वो देव॒या उ॑ दधिध्वे। आ वो॒ऽर्वाच॑: सुवि॒ताय॒ रोद॑स्योर्म॒हे व॑वृत्या॒मव॑से सुवृ॒क्तिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञाऽय॑ज्ञा । वः॒ । स॒म॒ना । तु॒तु॒र्वणिः॑ । धिय॑म्ऽधियम् । वः॒ । दे॒व॒ऽयाः । ऊँ॒ इति॑ । द॒धि॒ध्वे॒ । आ । वः॒ । अ॒र्वाचः॑ । सु॒वि॒ताय॑ । रोद॑स्योः । म॒हे । व॒वृ॒त्या॒म् । अव॑से । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञा वः समना तुतुर्वणिर्धियंधियं वो देवया उ दधिध्वे। आ वोऽर्वाच: सुविताय रोदस्योर्महे ववृत्यामवसे सुवृक्तिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञाऽयज्ञा। वः। समना। तुतुर्वणिः। धियम्ऽधियम्। वः। देवऽयाः। ऊँ इति। दधिध्वे। आ। वः। अर्वाचः। सुविताय। रोदस्योः। महे। ववृत्याम्। अवसे। सुवृक्तिऽभिः ॥ १.१६८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुदृष्टान्तेन सज्जनगुणानाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यथा देवयाः प्राणा वो धियंधियं दधति तथा उ यूयं तान् दधिध्वे। यथा तेषां यज्ञायज्ञा समना तुतुर्वणिरस्ति तथा वोऽस्तु। यथा वयं रोदस्योः सुविताय महेऽवसे वः सुवृक्तिभिरर्वाचो वायूनाववृत्यामिच्छामस्तथा यूयमिच्छथ ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (यज्ञायज्ञा) यज्ञेयज्ञे (वः) युष्माकम् (समना) तुल्ये (तुतुर्वणिः) शीघ्रगतिः (धियंधियम्) कर्मकर्म (वः) युष्माकम् (देवयाः) ये देवान् दिव्यान् गुणान् यान्ति ते (उ) (दधिध्वे) (आ) (वः) युष्माकम् (अर्वाचः) (सुविताय) ऐश्वर्याय (रोदस्योः) (महे) (ववृत्याम्) (अवसे) (सुवृक्तिभिः) सुष्ठुवर्जनैस्सह ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो नियमेनाऽनेकविधगतयो भूत्वा विश्वं धरन्ति तथा विद्वांसो विद्याशिक्षायुक्ता भूत्वा विद्यार्थिनो धरन्तु। येनाऽसंख्यैश्वर्य्यं प्राप्तं स्यात् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ अरसठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके आरम्भ में पवन के दृष्टान्त से सज्जनों के गुणों का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे (देवयाः) दिव्य गुणों को जो प्राप्त होते वे प्राण वायु (वः) तुम्हारे (धियंधियम्) काम-काम को धारण करते वैसे (उ) ही तुम उनको (दधिध्वे) धारण करो। जैसे उन पवनों की (यज्ञायज्ञा) यज्ञ-यज्ञ में और (समना) समान व्यवहारों में (तुतुर्वणिः) शीघ्र गति है वैसे (वः) तुम्हारी गति हो जैसे हम लोग (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी सम्बन्धी (सुविताय) ऐश्वर्य के लिये और (महे) अत्यन्त (अवसे) रक्षा के लिये (वः) तुम्हारे (सुवृक्तिभिः) सुन्दर त्यागों के साथ (अर्वाचः) नीचे आने-जानेवाले पवनों को (आ, ववृत्याम्) अच्छे वर्त्ताने के लिये चाहते हैं वैसे तुम चाहो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन नियम से अनेकविध गतिमान् होकर विश्व का धारण करते हैं, वैसे विद्वान् जन विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त होकर विद्यार्थियों को धारण करें, जिससे असंख्य ऐश्वर्य प्राप्त हों ॥ १ ॥

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    विषय

    अन्यूनता – अनतिरिक्तता

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! (वः) = तुम्हारी यज्ञा यज्ञा प्रत्येक यज्ञ में (समना) = समतान न्यूनता, न अधिकता (तुतुर्वणिः) = त्वरा से विघ्नों व शत्रुओं का विजय करनेवाली हो [तूर्णवनि :यास्क] । तुम प्रत्येक उत्तम कार्य को युक्तचेष्ट होकर करने से निर्विघ्नतया पूर्ण करनेवाले बनो । कार्य का सबसे बड़ा विघ्न यही है कि वह अति व अल्परूप में किया जाता हुआ फलप्रद नहीं होता। २. हे मरुतो ! (वः) = [यूयम् - सा०] आप देवयाः - देवों को प्राप्त करनेवाले होते हुए उ = निश्चय से धियं धियं प्रत्येक ज्ञान व उत्तम कर्म को दधिध्वे धारण करते हो। ( धीप्रज्ञानाम, कर्मनाम- नि०) । माता-पिता व आचार्य के सम्पर्क में रहते हुए ये प्राणसाधक उत्तम ज्ञान को प्राप्त करके उत्तम कर्मों को ही करनेवाले बनते हैं। ३. हे मरुतो ! (वः) = तुम्हें (सुवृक्तिभिः) = उत्तम स्तुतियों व दोषवर्जन से (अर्वाचः आववृत्याम्) = मैं अपने अभिमुख करूँ, ताकि (सुविताय) = मेरे जीवन में सुवित हो-दुरित से मैं दूर होऊँ । रोदस्योः महे द्यावापृथिवी के महत्त्व के लिए मैं आपको अपने अभिमुख करूँ। मेरा मस्तिष्करूप द्युलोक इस प्राणसाधना के द्वारा ज्ञानोज्ज्वल बने और शरीररूप पृथिवीलोक बड़ा दृढ़ हो । (अवसे) = मैं अपने रक्षण के लिए इन प्राणों को अपने अभिमुख करता हूँ । इस प्राणसाधना से मेरा शरीर रोगों से आक्रान्त नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से [क] प्रत्येक कर्म युक्तरूप में होता है, [ख] ज्ञान की वृद्धि होती है, [ग] दुरितों से दूर होकर हम सुवितों को अपनाते हैं, [घ] मस्तिष्क व शरीर दोनों सुन्दर बनते हैं, [ङ] किसी प्रकार के रोग व वासना का आक्रमण नहीं होता।

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    विषय

    एक साथ काम करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे वीर और विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों की ( यज्ञायज्ञा ) मिलकर करने योग्य उपासना, युद्ध, यज्ञ, सत्संग आदि प्रत्येक कार्य में, देह में प्राणों के समान ( वः ) आप लोगों की ( तुतुर्वणिः ) शीघ्र गति भी (समना) एक समान वेग से हुआ करे। उपासना में एक साथ मन्त्रादि कहें, युद्ध में एक चाल से कदम उठावें, सत्संगों में समान भाव से वर्त्ते । (वः) आप लोगों में से जो (देवयाः) दिव्य गुणों वाले और विद्वानों के उपासक, शिष्य आदि और अग्नि आदि दिव्य पदार्थों को प्राप्त वैज्ञानिक लोग हैं वे ( धियंधियं ) प्रत्येक काम और प्रत्येक ज्ञान को ( दधिध्वे ) धारण करें, प्रत्येक कार्य करने का यत्न करें, और प्रत्येक विद्या का अभ्यास करें । ( वः ) आप लोगों में से ( अर्वाचः ) नव शिक्षितों को ( रोदस्योः ) आकाश और पृथिवी के ( महे सुविताय ) बड़े भारी ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये और ( महे अवसे ) बड़े भारी रक्षा कार्य के लिये ( सुवृक्तिभिः ) दुःखदायी कारणों को दूर कर देने वाले साधनों, शत्रुवर्जक अस्त्रों सहित ( आ ववृत्याम् ) सब प्रकार से वरण करूं और उनको कार्य में नियुक्त करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वायूच्या दृष्टान्ताने विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे याच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू अनेक प्रकारे गतिमान बनून विश्वाला धारण करतात तसे विद्वान लोकांनी विद्या व उत्तम शिक्षणाने विद्यार्थ्यांना धारण करावे. ज्यामुळे असंख्य ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, powers of enlightenment, generous action and well-being of the world, in every act of yajna one after another, let your will and performance be equal, fast and victorious. In every act of thought, reflection and planning, let your intelligence, understanding and imagination, and even your calculation be divinely holy. For the well-being of the earth and heaven, and for the sake of great and inviolable protection of life and life’s joy, with yajnic oblations and songs of praise and thankfulness, we pray, turn your attention this way for our good and well-being by straight and simple speed of motion.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The all good men are compared with the air.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, as Pranas ( vital airs) uphold your actions, likewise you also do. As the Pranas have fast breathing during the Yajna, (a good and philanthropic noble act) so you should also be active. We desire airs for the richness of the heaven and earth, and for your great protection. Thus we renounce our all evil thoughts and acts, you also positively desire it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The airs uphold the world by various regular waves, likewise, the learned, educated and wise persons should uphold their students. Thus prosperity is be obtained.

    Foot Notes

    (सुविताय) ऐश्वर्याय = For prosperity or progress. (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु वर्जनैः सह — With proper renouncement of all evil thoughts and acts. ( तुतुर्वणिः) शीघ्रगति = Speedy movement.

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