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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रा॒वरु॑णयोर॒हं स॒म्राजो॒रव॒ आ वृ॑णे। ता नो॑ मृळात ई॒दृशे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॒वरु॑णयोः । अ॒हम् । स॒म्ऽराजोः॑ । अवः॑ । आ । वृ॒णे॒ । ता । नः॒ । मृ॒ळा॒तः॒ । ई॒दृशे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे। ता नो मृळात ईदृशे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रावरुणयोः। अहम्। सम्ऽराजोः। अवः। आ। वृणे। ता। नः। मृळातः। ईदृशे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रेन्द्रावरुणगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    अहं ययोः सम्राजोरिन्द्रावरुणयोः सकाशादव आवृणे तावीदृशे नोऽस्मान् मृडातः॥१॥

    पदार्थः

    (इन्द्रावरुणयोः) इन्द्रश्च वरुणश्च तयोः सूर्य्याचन्द्रमसोः। इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) वरुण इति च। (निघं०५.४) अनेन व्यवहारप्रापकौ गृह्येते। (अहम्) होमशिल्पादिकर्मानुष्ठाता (सम्राजोः) यौ सम्यग्राजेते दीप्येते तयोः (अवः) अवनं रक्षणम्। अत्र भावेऽसुन्। (आ) समन्तात् (वृणे) स्वीकुर्वे (ता) तौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (नः) अस्मान् (मृळातः) सुखयतः। अत्र लडर्थे लेट्। (ईदृशे) चक्रवर्त्तिराज्यसुखस्वरूपे व्यवहारे॥१॥

    भावार्थः

    यथा प्रकाशमानौ जगदुपकारकौ सर्वसुखव्यवहारहेतु चक्रवर्त्तिराज्यवद्रक्षकौ सूर्य्याचन्द्रमसौ वर्त्तेते तथैवाऽस्माभिरपि भवितव्यम्॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में इन्द्र और वरुण के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    मैं जिन (सम्राजोः) अच्छी प्रकार प्रकाशमान (इन्द्रावरुणयोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के गुणों से (अवः) रक्षा को (आवृणे) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूँ, और (ता) वे (ईदृशे) चक्रवर्त्ति राज्य सुखस्वरूप व्यवहार में (नः) हम लोगों को (मृळातः) सुखयुक्त करते हैं॥१॥

    भावार्थ

    जैसे प्रकाशमान, संसार के उपकार करने, सब सुखों के देने, व्यवहारों के हेतु और चक्रवर्त्ति राजा के समान सब की रक्षा करनेवाले सूर्य्य और चन्द्रमा हैं, वैसे ही हम लोगों को भी होना चाहिये॥१॥

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    विषय

    अब इस सूक्त क आरम्भ है। इस प्रथम मन्त्र में इन्द्र और वरुण के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहम्ययोः सम्राजोः इन्द्रावरुणयो:  सकाशात्अवः आ वृणे तौ ईदृशे न: अस्मान्मृडातः ॥ महर्षिकृतः॥१॥ 

    पदार्थ

    (अहम्)=मैं, (ययोः)=जिस, (सम्राजोः) यौ सम्यग्राजेते दीप्यते (तयोः)=जो दोनों अच्छी प्रकार प्रकाशित होते हैं, (इन्द्रावरुणयो:)=इन्द्रश्च वरुणश्च तयोः सूर्य्याचन्द्रमसोः=सूर्य और चन्द्रमा के गुणों से,   (सकाशात्) निकट से, (अवः) अवनं  रक्षणम्=रक्षा को, (आ) समन्तात्= हर ओर से, (वृणे) स्वीकुर्वे=स्वीकार करता हूँ, (तौ)=वे दोनों,   (ईदृशे) चक्रवर्तिराज्यसुखस्वरुपे व्यवहारे=चक्रवर्ति राज्य सुखस्वरुप व्यवहार में, (न:) अस्मान्=हमें, (मृळातः) सुखयतः=सुखयुक्त करते हैं ॥१॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे प्रकाशमान, संसार के उपकार करने, सब सुखों के  व्यवहारों के हेतु और चक्रवर्त्ति राजा के समान सब की रक्षा करनेवाले सूर्य्य और चन्द्रमा हैं, वैसे ही हम लोगों को भी होना चाहिये॥१॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्)  मैं (ययोः) जिनमें से (सम्राजोः)  जो दोनों अच्छी प्रकार प्रकाशित होते हैं (इन्द्रावरुणयो) उन सूर्य और चन्द्रमा के गुणों से (सकाशात्) निकट से (अवः) रक्षा को (आ) हर ओर से (वृणे) स्वीकार करता हूँ। (तौ) वे दोनों (ईदृशे) चक्रवर्ति राज्य सुखस्वरुप व्यवहार में (नः) हमें (मृळातः) सुखयुक्त करते हैं। ॥१॥   

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रावरुणयोः) इन्द्रश्च वरुणश्च तयोः सूर्य्याचन्द्रमसोः। इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) वरुण इति च। (निघं०५.४) अनेन व्यवहारप्रापकौ गृह्येते। (अहम्) होमशिल्पादिकर्मानुष्ठाता (सम्राजोः) यौ सम्यग्राजेते दीप्येते तयोः (अवः) अवनं रक्षणम्। अत्र भावेऽसुन्। (आ) समन्तात् (वृणे) स्वीकुर्वे (ता) तौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (नः) अस्मान् (मृळातः) सुखयतः। अत्र लडर्थे लेट्। (ईदृशे) चक्रवर्त्तिराज्यसुखस्वरूपे व्यवहारे॥१॥
    विषयः- तत्र इन्द्रारुपगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- अहं ययोः सम्राजोरिन्द्रा वरुणयो: ह: सकाशादवः आवृणे तावीदृशे नोऽस्मान्मृडातः ॥महर्षिकृतः॥१॥      
           
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा प्रकाशमानौ जगदुपकारकौ सर्वसुखव्यवहारहेतु चक्रवर्त्तिराज्यवद्रक्षकौ सूर्य्याचन्द्रमसौ वर्त्तेते तथैवाऽस्माभिरपि भवितव्यम्॥१॥ 

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    विषय

    जितेन्द्रियता व व्रतबन्धन

    पदार्थ

    १. (अहम्) - मैं (सम्राजोः) - उत्तम दीप्तिवाले (इन्द्रावरुणयोः) - इन्द्र और वरुण के (अवः) - रक्षण का (आवृणे) - सर्वथा वरण करता हूँ । मुझे इन्द्र और वरुण का रक्षण प्राप्त हो । 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का प्रतीक है । यह असुरों का संहार करनेवाला है , सब आसुरी वृत्तियों को यह समाप्त कर देता है । जितेन्द्रिय होने पर हम वासनाओं के शिकार नहीं होते । 'वरुण' पाशी है , पाशों से जकड़नेवाला है । जब हम अपने को ही व्रतों के बन्धन में बाँधते हैं तब हम वरुण बनते हैं । यह व्रतबन्धन ही हमें श्रेष्ठ वरुण बनाता है [वरुणो नाम वरः श्रेष्ठ] । इस व्रतबन्धन से ही हम 'प्रचेताः' प्रकृष्ट ज्ञानवाले बनते हैं । इसी से हम 'अप्पतिः' [अपां रेतसां पतिः] सोमकणों के रक्षणवाले होते हैं । हम इन्द्र व वरुण के रक्षण का वरण करते हैं , अर्थात् जितेन्द्रिय व व्रतों के बन्धनवाले बनकर आत्मरक्षण करनेवाले होते हैं । ये इन्द्र और वरुण सम्राट् हैं , हमारे जीवनों को व्यवस्थित व दीप्त करनेवाले हैं । 

    २. (ईदृशे) - ऐसा होने पर , अर्थात् जब हम इनके रक्षण का वरण करते हैं तब (ताः) - वे दोनों (नः) - हमें (मृळातः) - सुखी करते हैं । सुख - प्राप्ति का मार्ग ही यह है कि हम इन्द्रियों के दास न हों तथा सदा व्रतों के बन्धन में अपने - आपको बाँधकर ले - चलें । ऐसा होने पर हमारा जीवन सुखी तो होगा ही , यह जीवन चमक भी उठेगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन को दीप्त व सुखी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम जितेन्द्रिय बनें तथा जीवन को व्रतों के बन्धन में बाँधकर चलें । 

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    विषय

    इन्द्र, वरुण, राजा और सेनापति ।

    भावार्थ

    ( अहम् ) मैं प्रजाजन ( सम्राजोः ) अच्छी प्रकार प्रकाशित होने वाले ( इन्द्रावरुणयोः ) इन्द्र और वरुण, राजा और सेनापति, दोनों के ( अवः ) रक्षा कार्य को ( आ वृणे ) स्वीकार करूँ, दोनों के रक्षा कार्य को आवश्यक जानता हूं । ( ता ) वे दोनों ( नः ) हमें सूर्य और चन्द्र के समान या वायु और मेघ या विद्युत और मेघ के समान ( ईदृशे ) इस प्रकार साक्षात् राज्यकार्य में ( मृळातः ) सुखी करते हैं । अध्यात्म में—इन्द्र जीव, वरुण = परमेश्वर दोनों में से एक ब्रह्माण्ड और दूसरा देह में राजा के समान प्रकाशित होने से दोनों को मैं प्राप्त करूँ । वे दोनों हमें ( ईदृशे ) ऐसे लोक और परलोक में सुखी करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेध्यातिथिः । इन्द्रावरुणौ देवते । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    पूर्वोक्त सोळाव्या सूक्ताचे अनुयोगी मित्र व वरुण यांच्या अर्थाचे या सूक्ताबरोबर प्रतिपादन करून या सतराव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर सोळाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती लावली पाहिजे.

    भावार्थ

    जसे प्रकाशमान, जगाचे उपकारकर्ते, सर्व सुखदाते, व्यवहाराचे कारण व चक्रवर्ती राजाप्रमाणे सर्वांचे रक्षक सूर्य व चंद्र आहेत, तसे आम्हीही व्हावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I pray for the gifts and protection of the glorious and brilliant Indra and Varuna, sun and moon. May they be good and gracious to bless us with a similar state of brilliance in our life.

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    Subject of the mantra

    In this first mantra of the hymn, virtues of Indra and Varuna have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham)=I, (yayoḥ)= of which, (samrājoḥ)=thise two are illuminated well, (indrāvaruṇayo)=by qualities of those both sun and moon, (sakāśāt)=from proximity, (avaḥ)=for protection, (ā)=from every direction, (vṛṇe)=accept, (tau)=both of them, (īdṛśe)=in Chakravarti kingdom and delightful behavior, (naḥ)=to us, (mṛḻātaḥ)=make us fully happy.

    English Translation (K.K.V.)

    I accept from all sides for close protection from the qualities of the Sun and the Moon, both of whom are well lit. Both those Chakravarti kingdoms make us happy.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as the luminaries Sun and the Moon are the cause of the benevolence of the world and all the pleasures and to protect all like the Chakravarti king, so we should be as well.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The Chakravarti state is explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I desiring homa (Sacrifice) and art, crave protection from the shining Indra and Varuna (sun and moon). They give us delight in our activities like that got from the happiness of a good and vast kingdom.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रावरुणयोः) इन्द्रश्च वरुणश्चैतयोः सूर्याचन्द्रमसोः इन्द्र इति पदनामसु पठितम् (निघ० ५.४ ) = The sun and the moon. वरुण इति पदनामसु पठितम् ( निघ० ५.४ ) अनेन व्यवहारप्रापकौ गृह्येते (ईदृशे ) चन्द्रवर्तिराज्यसुखस्त्ररूपे व्यवहारे ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    We should be like the shining sun and moon which are benefactors of the world causing happiness to us in all worldly activities and are protectors like a vast empire.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted इन्द्रावरुणौ as the sun and the moon and has given the authority of the Vedic Lexicon Nighantu to show that as they lead to the proper activities of life, they are called. इन्द्रावरुणौ पद -गतौ गतेस्त्रयोऽर्थां:- ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Here the third meaning of has been taken. Besides the above according to the Aitareya Brahmana and Shatapath 13.3.6.5 रात्रिर्वैवरुण: and वारुणी रात्रिः Taittiriya Brahmanad 10-10-1 the night is connected with वरुण, so Varuna stands for the moon which is the lord of the night.

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