ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 170/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
न नू॒नमस्ति॒ नो श्वः कस्तद्वे॑द॒ यदद्भु॑तम्। अ॒न्यस्य॑ चि॒त्तम॒भि सं॑च॒रेण्य॑मु॒ताधी॑तं॒ वि न॑श्यति ॥
स्वर सहित पद पाठन । नू॒नम् । अस्ति॑ । नो इति॑ । श्वः । कः । तत् । वे॒द॒ । यत् । अद्भु॑तम् । अ॒न्यस्य॑ । चि॒त्तम् । अ॒भि । स॒म्ऽच॒रेण्य॑म् । उ॒त । आऽधी॑तम् । वि । न॒श्य॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद्वेद यदद्भुतम्। अन्यस्य चित्तमभि संचरेण्यमुताधीतं वि नश्यति ॥
स्वर रहित पद पाठन। नूनम्। अस्ति। नो इति। श्वः। कः। तत्। वेद। यत्। अद्भुतम्। अन्यस्य। चित्तम्। अभि। सम्ऽचरेण्यम्। उत। आऽधीतम्। वि। नश्यति ॥ १.१७०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 170; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण विद्वद्गुणानाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यदन्यस्य सञ्चरेण्यं चित्तमुताधीतं नाभि विनश्यति नाद्य भूत्वा नूनमस्ति नो श्वश्च तदद्भुतं को वेद ॥ १ ॥
पदार्थः
(न) निषेधे (नूनम्) निश्चितम् (अस्ति) विद्यते (नो) (श्वः) आगामिदिने (कः) (तत्) (वेद) जानाति (यत्) (अद्भुतम्) आश्चर्य्यभूतमिव वर्त्तमानम् (अन्यस्य) (चित्तम्) अन्तःकरणस्य स्मरणात्मिकां वृत्तिम् (अभि) (सञ्चरेण्यम्) सम्यक् चरितुं ज्ञातुं योग्यम् (उत) अपि (आधीतम्) समन्ताद्धृतम् (वि) (नश्यति) अदृष्टं भवति ॥ १ ॥
भावार्थः
यो जीवो भूत्वा न जायते भूत्वा न विनश्यति नित्य आश्चर्यगुणकर्मस्वभावोऽनादिश्चेतनो वर्त्तते तस्य वेत्ताऽप्याश्चर्य्यभूतः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ सत्तरवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें आरम्भ से प्रकारान्तर करके विद्वानों के गुणों का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जो (अन्यस्य) औरों को (सञ्चरेण्यम्) अच्छे प्रकार जानने योग्य (चित्तम्) अन्तःकरण की स्मरणात्मिका वृत्ति (उत) और (आधीतम्) सब ओर से धारण किया हुआ विषय (न) न (अभि, वि, नश्यति) नहीं विनाश को प्राप्त होता न आज होकर (नूनम्) निश्चित रहता (अस्ति) है और (नो) न (श्वः) अगले दिन निश्चित रहता है (तत्) उस (अद्भुतम्) आश्चर्यस्वरूप के समान वर्त्तमान को (कः) कौन (वेद) जानता है ॥ १ ॥
भावार्थ
जो जीवरूप होकर उत्पन्न नहीं होता और न उत्पन्न होकर विनाश को प्राप्त होता है, नित्य आश्चर्य गुण, कर्म, स्वभाववाला अनादि चेतन है, उसका जाननेवाला भी आश्चर्यस्वरूप होता है ॥ १ ॥
विषय
चित्त की अस्थिरता
पदार्थ
१. इन्द्र और अगस्त्य के संवाद के रूप में यह सूक्त है । इन्द्र परमैश्वर्यशाली प्रभु है, 'अगं अस्यति' कुटिलता को छोड़नेवाला जीव है। जीव व्रत लेता है, परन्तु उसे छोड़ बैठता है या कई बार तो प्रारम्भ ही नहीं करता । प्रभु कहते हैं (नूनं न अस्ति) = निश्चय से पहले तो जीव व्रत लेता ही नहीं, फिर उसे आज ही आरम्भ करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। (नो श्वः) = कल भी वह आरम्भ नहीं होता। 'कल-कल' के रूप में वह टलता ही रहता है । इसी कारण (कः) = कौन है जो तत् वेद उस स्थिति को जाने (यत् अद्भुतम्) = जो अद्भुत है। प्राणसाधना का व्रत लें, उस व्रत का दीर्घकाल तक, निरन्तर, आदरपूर्वक पालन करें तो योग की उन सिद्धियों को क्यों न प्राप्त करेंगे जोकि वस्तुतः ही अद्भुत हैं । २. परन्तु (अन्यस्य) = सामान्य मनुष्य का (चित्तम्) = चित्त (संचरेण्यम्) = चरणशील है, भटकनेवाला है। इसीलिए यह किसी भी व्रत को दीर्घकाल तक निभा नहीं पाता। (उत) = और (आधीतम्) = [आध्यातं चिन्तितम् - सा०] सोची हुई बात भी विनश्यति = [णश अदर्शने] दो दिन बाद जीवन में दिखती नहीं। 'चार दिन की चाँदनी और फिर अँधेरी रात' । यह कहावत ही प्रायः उनके जीवन पर सदा लागू रहती है। उन्नति हो तो कहाँ से हो ?
भावार्थ
भावार्थ – चित्त की अस्थिरता के कारण व्रतों का पालन नहीं होता और उन्नति सम्भव नहीं होती ।
विषय
मन की अस्थिरता, और भविष्य का अज्ञान ।
भावार्थ
जो ( नूनम् ) निश्चय से आज (न अस्ति) नहीं है वह (नो श्वः ) कल भी नहीं । ( तत् कः वेद ) उसको कौन जानता है ( यत् अद्भुतम् ) जो अद्भुत आश्चर्यजनक या जो कभी हुआ ही नहीं ? ( अन्यस्य ) जो सब से भिन्न है उस अन्य का ( चित्तम् ) ज्ञान करने का साधन चित्त, (अभि सञ्चरेण्यम् ) इधर उधर सञ्चार करता है, इधर उधर सर्वत्र विचलित होता रहता है, वह स्थिर नहीं होता ( उत ) और ( अधीतं ) अच्छी प्रकार विचार और स्मरण किया हुआ भी ( वि नश्यति ) विनष्ट हो जाता है । वह भी लुप्त हो जाता है । अर्थात् आज, कल परसों आदि काल के भागों में उत्पन्न अनित्य पदार्थों को कोई नहीं जानता । तब जो आत्मा कभी उत्पन्न नहीं हुआ उसके विषय में भी कोई क्या जाने ! वह आत्मा सबसे पृथक् रहने से ‘अन्य’ है। उसका संकल्प विकल्प साधन चित्त है वह इधर उधर जाता, नाना फल भोग करता, एक स्थान पर नहीं टिकता, इसी कारण पुनः २ चिन्तित भी लुप्त हो जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ स्वराडनुष्टुप् । २ अनुष्टुप । ३ विराडनुष्टुप । ४ निचृदनुष्टुप् । ५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाशी संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
जो जीवरूप बनून उत्पन्न होत नाही व त्याचा विनाशही होत नाही. नित्य आश्चर्य गुण, कर्म स्वभावाचा अनादि चेतन आहे त्याचा जाणणाराही आश्चर्यस्वरूप असतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Nothing that is present is permanent, nor what shall be is constant. Who knows what, in truth, is mysterious: serial yet constant, and constant yet elusive? It is someone else’s mind and consciousness you should be with, otherwise what you know or think you know, that too would fade into the unknown.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned person.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! it is not certain what to-day or what to-morrow will yield to us ? Who knows that what is wonderful? The mind of another man is unsteady and therefore it must be comprehended well. Failing in it, the deep study also goes waste.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The soul is neither born nor does it die. It is eternal and wonderful. It has no beginning or end. One who knows it well, he knows the nature of the soul. Moreover, on moral points, one should act quickly and not postpone its implementation for the next day.
Foot Notes
( नूनम् ) निश्चितम् = Certain ( अद्भुतम् ) आश्चर्यभूतमिव वर्तमानम् = Wonderful. ( संचरेण्यम् ) सम्यक् चरितुं ज्ञातुं योग्यम् = Worthy offering studied or comprehended well.
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