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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 171 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 171/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रति॑ व ए॒ना नम॑सा॒हमे॑मि सू॒क्तेन॑ भिक्षे सुम॒तिं तु॒राणा॑म्। र॒रा॒णता॑ मरुतो वे॒द्याभि॒र्नि हेळो॑ ध॒त्त वि मु॑चध्व॒मश्वा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । वः॒ । ए॒ना । नम॑सा । अ॒हम् । ए॒मि॒ । सु॒ऽउ॒क्तेन॑ । भि॒क्षे॒ । सु॒ऽम॒तिम् । तु॒राणा॑म् । र॒रा॒णता॑ । म॒रु॒तः॒ । वे॒द्याभिः॑ । नि । हेळः॑ । ध॒त्त । वि । मु॒च॒ध्व॒म् । अश्वा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति व एना नमसाहमेमि सूक्तेन भिक्षे सुमतिं तुराणाम्। रराणता मरुतो वेद्याभिर्नि हेळो धत्त वि मुचध्वमश्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति। वः। एना। नमसा। अहम्। एमि। सुऽउक्तेन। भिक्षे। सुऽमतिम्। तुराणाम्। रराणता। मरुतः। वेद्याभिः। नि। हेळः। धत्त। वि। मुचध्वम्। अश्वान् ॥ १.१७१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 171; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वत्कृत्यमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतोऽहमेना नमसा वः प्रत्येमि। सूक्तेन तुराणां सुमतिं भिक्षे। हे मरुतो यूयं रराणता मनसा वेद्याभिर्हेडो निधत्ताश्वान् विमुचध्वञ्च ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (प्रतिः) (वः) युष्मान् (एना) एनेन (नमसा) नमस्कारेणान्नेन वा (अहम्) (एमि) प्राप्नोमि (सूक्तेन) सुष्ठु कथितेन (भिक्षे) याचे (सुमतिम्) शोभनां मतिम् (तुराणाम्) शीघ्रकारिणाम् (रराणता) रममाणेन मनसा (मरुतः) विद्वांसः (वेद्याभिः) वेदितुं योग्याभिः (नि) (हेळः) अनादरम् (धत्त) (वि) (मुचध्वम्) त्यजत (अश्वान्) अत्युत्कृष्टवेगवतः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शुद्धेनान्तःकरणेन नानाविज्ञानानि लभन्ते ते क्वाप्यनादरं नाप्नुवन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ इकहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें फिर विद्वानों के कृत्य का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) विद्वानो ! (अहम्) मैं (एना) इस (नमसा) नमस्कार सत्कार वा अन्न से (वः) तुम्हारे (प्रति, एमि) प्रति आता हूँ और (सूक्तेन) सुन्दर कहे हुए विषय से (तुराणाम्) शीघ्रकारी जनों की (सुमतिम्) उत्तम मति को (भिक्षे) माँगता हूँ। हे विद्वानो ! तुम (रराणता) रमण करते हुए मन से (वेद्याभिः) दूसरे को बताने योग्य क्रियाओं से (हेडः) अनादर को (नि, धत्त) धारण करो अर्थात् सत्कार-असत्कार के विषयों को विचार के हर्ष-शोक न करो। ओर (अश्वान्) अतीव उत्तम वेगवान् अपने घोड़ों को (वि, मुचध्वम्) छोड़ो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शुद्ध, अन्तःकरण से नाना प्रकार के विज्ञानों को प्राप्त होते हैं, वे कहीं अनादर नहीं पाते ॥ १ ॥

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    विषय

    प्राणायाम के लाभ

    पदार्थ

    १. (अहम्) = मैं (एना नमसा) = इस नमन के साथ हे (मरुतः) = प्राणो ! (वः प्रति एमि) = तुम्हारे प्रति आता हूँ। प्राणायाम करता हुआ मैं जहाँ प्राणसाधना करता हूँ, वहाँ प्रभु के प्रति नमन भी करता हूँ। २. इस प्राणायाम व प्रभु-नमन के साथ मैं (सूक्तेन) = [सु+उक्त] मधुर शब्दों के द्वारा (तुराणाम्) - शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले [त्वरा संभ्रमे] अथवा वासनाओं का संहार करनेवाले [तुर्वी हिंसायाम्] आचार्यों की (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (भिक्षे) = माँगता हूँ । आचार्यों के प्रति सदा मधुर शब्दों का प्रयोग करता हुआ उनसे उत्तम ज्ञान प्राप्त करता हूँ । ३. हे (मरुतः) = प्राणो ! (रराणता) = प्रभु में रमण करनेवाले मन से, प्रभु-उपासना में उल्लास प्राप्त करनेवाले मन से तथा (वेद्याभिः) = ज्ञान के योग्य विद्याओं के द्वारा-हमारी ज्ञानाग्नि को प्रदीप्त करके (हेळ:) = क्रोध को निधत्त [निकृष्टं धारयत] नीचे धारण करो, अर्थात् प्राणसाधना से हमारा मन उपासना व ज्ञान में लगे और क्रोध को हम अपने से दूर कर सकें । हे प्राणो ! आप (अश्वान्) = हमारे इन्द्रियरूप अश्वों को विमुच्यध्वम्-विषयों से पृथक् करो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम [क] मन को प्रभु में रमण करनेवाला बनाएँ, [ख] ज्ञानाग्नि को दीप्त करके ज्ञान-वृद्धि करें, [ग] क्रोध व घृणा से ऊपर उठें, [घ] इन्द्रियों को विषयों से मुक्त करें।

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    विषय

    गुरु का शिष्यों के प्रति उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) पुरुषो ! योग्य शिष्यो ! मैं ( वः ) आप लोगों को ( एना नमसा ) इस नमाने के साधन, विनय को सिखाने वाले उपाय से ( वः प्रति एमि ) तुम्हें प्राप्त होता हूं । ( सूक्तेन ) उत्तम वेद के उपदेश से ( तुराणां ) अतिशीघ्रकारी, चंचल वृत्ति वाले आप लोगों की ( सुमतिम् ) उत्तम मति को ( भिक्षे ) चाहता हूं । आप सब अपना मनोयोग मुझे दें। आप लोग ( वेद्याभिः ) ज्ञान करने योग्य विद्याओं से ( रराणता ) आनन्द युक्त हुए प्रसन्न चित्त से ( हेळः ) क्रोध और हृदय के बीच छुपे अनादर और चंचलता के भाव को ( निधत्त ) वश करो। और ( अश्वान् ) अपने भोक्ता आत्माओं या इन्द्रियों को ( वि मुचध्वम् ) विशेष रूप से वश करो । अथवा अपनी ज्ञानेन्द्रियों को विविध दिशाओं में ज्ञान प्राप्त करने के लिये छोड़ो । ‘उपसृष्टो मुञ्चति र्धारणे प्रयुज्यते’ । राजा या नायक इन्द्र अन्नादि विनयकारी साधन से सैनिकों को वश करे, उनका चित्त अपनी तरफ़ खेंचे, वेतनादि से सुप्रसन्न चित्त होकर ये क्रोध या अनादर को छोड़कर अश्वों को ठंडा करे या शत्रुओं पर छोड़े ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः । मरुतो देवता ॥ छन्द:— १, ५ निचृत् त्रिष्टुप । २ त्रिष्टुप । ४, ६ विराट् त्रिष्टुप । ३ भुरिक पङ्क्तिः ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वानांच्या कृत्यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तातील अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे शुद्ध अंतःकरणाने विविध प्रकारचे विज्ञान प्राप्त करतात त्यांचा कुठेही अनादर होत नाही. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, dynamic powers of nature and humanity, bearers of light, knowledge and power, with this homage and song of celebration and reverence, I come to you and pray for my share of noble thoughts and intelligence from the excellent priests and preceptors. O dynamic scholars of power and force, and of the light of life, keep you anger and passion aside and, exulting in the onward march of humanity, release the powers of progress by the freedom and initiative that comes with knowledge and conscious values of life and love.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a learned person.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Maruts ( learned perrons ) ! you are mighty like the winds. I approach you with reverential homage or offer food with admiring words. I cherish to seek the intellect of the active and strong persons. With pleasing mind and joyful praise and with my worthwhile acts, forgive us for any mistake committed unintentionally and release your swift horses (power of senses).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who acquire the knowledge of various sciences, with crystal pure mind and intellect are not insulted or humiliated anywhere.

    Foot Notes

    ( नमसा ) नमस्कारेण अन्नेन वा = With reverential homage or food. (तुराणाम् ) शीघ्रकारिणाम् = of the active persons doing their work quickly. (हेल:) अनादरम् = Insult.

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