ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं राजे॑न्द्र॒ ये च॑ दे॒वा रक्षा॒ नॄन्पा॒ह्य॑सुर॒ त्वम॒स्मान्। त्वं सत्प॑तिर्म॒घवा॑ न॒स्तरु॑त्र॒स्त्वं स॒त्यो वस॑वानः सहो॒दाः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । राजा॑ । इ॒न्द्र॒ । ये । च॒ । दे॒वाः । रक्ष॑ । नॄन् । पा॒हि । अ॒सु॒र॒ । त्वम् । अ॒स्मान् । त्वम् । सत्ऽप॑तिः । म॒घऽवा॑ । नः॒ । तरु॑त्रः । त्वम् । स॒त्यः । वस॑वानः । स॒हः॒ऽदाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नॄन्पाह्यसुर त्वमस्मान्। त्वं सत्पतिर्मघवा नस्तरुत्रस्त्वं सत्यो वसवानः सहोदाः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। राजा। इन्द्र। ये। च। देवाः। रक्ष। नॄन्। पाहि। असुर। त्वम्। अस्मान्। त्वम्। सत्ऽपतिः। मघऽवा। नः। तरुत्रः। त्वम्। सत्यः। वसवानः। सहःऽदाः ॥ १.१७४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजकृत्यवर्णनमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं सत्पतिर्मघवा नस्तरुत्रोऽसि त्वं सत्यो वसवानः सहोदा असि त्वं राजासि। अतो हे असुर त्वमस्मान् नॄन्पाहि ये च देवाः सन्ति तान् रक्ष ॥ १ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (राजा) न्यायविनयाभ्यां राजमानः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (ये) (च) (देवाः) सद्गुणिनो धर्मात्मानो विद्वांसः (रक्ष)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नॄन्) मनुष्यान् (पाहि) (असुर) मेघइव वर्त्तमानः (त्वम्) (अस्मान्) (त्वम्) (सत्पतिः) सतां वेदानां सत्पुरुषाणां वा पालकः (मघवा) परमपूजितधनयुक्तः (नः) अस्माकम् (तरुत्रः) दुःखादुल्लङ्घयिता (त्वम्) (सत्यः) सत्सु साधुः (वसवानः) वसोर्धनस्यानः प्राप्तिर्यतः (सहोदाः) बलप्रदः ॥ १ ॥
भावार्थः
यो राजा भवितुमिच्छेत्स धार्मिकान् सत्पुरुषान् विदुषोऽमात्यान् संरक्ष्यैतैः प्रजाः पालयेत्। यो हि सत्याचारी बलवान् सत्सङ्गी भवति स राज्यमाप्नोति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ चौहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें आरम्भ से राजकृत्य का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त ! (त्वम्) आप (सत्पतिः) वेद वा सज्जनों को पालनेवाले (मघवा) परमप्रशंसित धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः) धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) मेघ के समान (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो (ये, च) और जो (देवाः) श्रेष्ठा गुणोंवाले धर्मात्मा विद्वान् हैं उनकी (रक्ष) रक्षा करो ॥ १ ॥
भावार्थ
जो राजा होना चाहे वह धार्मिक सत्पुरुष विद्वान् मन्त्री जनों को अच्छे प्रकार रखके उनसे प्रजाजनों की पालना करावे, जो ही सत्याचारी बलवान् सज्जनों का सङ्ग करनेवाला होता है, वह राज्य को प्राप्त होता है ॥ १ ॥
विषय
वह महान् शासक [राजेन्द्र]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं राजा) = आप ही इस ब्रह्माण्ड के शासक व व्यवस्थापक हो। आप (च) = और (ये देवा:) = जो आपके सूर्यादि देव हैं, उन देवों के साथ आप (नॄन् पाहि) = उन्नतिपथ पर चलनेवालों का रक्ष रक्षण कीजिए । हे असुर-शत्रुओं का निरसन करनेवाले प्रभो ! (असु क्षेपणे) त्वम् अस्मान् पाहि= आप हमारा रक्षण कीजिए। 'असुर' शब्द का भाव 'असून् राति' व्युत्पत्ति से यह है कि वे प्रभु बलदाता हैं । वस्तुतः बल प्राप्त कराके वे हमें अपना रक्षण कर सकने के योग्य बनाते हैं । २. (त्वम्) = आप (सत्पतिः) = सज्जनों के रक्षक हैं, (मघवा) = ऐश्वर्यशाली हैं, नः तरुत्रा- हमें विघ्नों से तारनेवाले हैं, त्वं सत्यः = आप सत्यस्वरूप हैं, (वसवान:) = हमें अपनी गोद में आच्छादित करनेवाले, वसुओं को प्राप्त करानेवाले हैं, (सहोदा:) = हमारे लिए सहस् अर्थात् शत्रुओं का मर्षण करनेवाले बल को देनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ - इस संसार-संग्राम में प्रभु हमारे रक्षक हैं। हम उन्नति-पथ पर चलने का निश्चय व प्रयत्न करते हैं (नृन्) तो प्रभु हमारा रक्षण करते हैं, हमें बल देते हैं ।
विषय
उत्तम राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) परम ऐश्वर्य युक्त ! ( त्वं ) तू (राजा) राजा, सबका स्वामी, तेज, पराक्रम, न्याय, विद्या और प्रभाव से देदीप्यमान हो । तू ( नॄन् ) मनुष्यों और उत्तम नायक लोगों और ( ये च ) जो ( देवाः ) दानशील, धनाढ्य और विद्यादाता, ज्ञान से चमकने वाले, सूर्य की किरणों के समान ज्ञान के प्रकाशक विद्वान् हैं उनकी भी ( रक्ष ) रक्षा कर । हे (असुर) मेघ के समान सुखों के वर्षक! हे बलवन् ! (त्वं) तू (अस्मान् पाहि) हम प्रजाजनों का पालन कर । ( त्वं ) तू (नः) हमारा (सत्पतिः) उत्तम पुरुषों और उत्तम वेदमय सत्य ज्ञान का पालक और स्वामी, ( मघवा ) ऐश्वर्यवान्, श्रेष्ठ पूज्य है । ( त्वं ) तू ( नः ) हमें ( तरुत्रः ) दुखों से तारने वाला, (सत्यः) बलवान्, सज्जनों में भी सर्वश्रेष्ठ, ( वसवानः ) सब धन को ला देने वाला एवं बसी प्रजाओं को अपनी छत्रछाया में रखने वाला और ( सहोदाः ) बलप्रदान करने वाला है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वोक्त सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
जो राजा बनू इच्छितो त्याने धार्मिक सत्पुरुष, विद्वान, मंत्री लोकांचे चांगल्या प्रकारे संरक्षण करावे. त्यांच्याकडून प्रजेचे पालन करवून घ्यावे. जो सत्याचरणी, बलवान, सज्जनांचा संग करणारा असतो त्याला राज्य प्राप्त होते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, you are the ruler, lord of life and giver of energy. You and those powers and personalities that are generous and brilliant in nature and humanity protect us and the people. You are the protector of truth. You are the lord of wealth and glory of the world. You are our saviour, you are the truth of existence. You are the shelter and support of all that is. You are the strength and the giver of strength and constancy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you are possessor of abundant riches. You are protector of the Vedas and of good persons. You are endowed with admirable great wealth. You solve our miseries and difficulties. You are the source of wealth and giver of strength. You shine with justice and humility. Therefore, you are benevolent like the cloud. You protect ordinary men as well as the most virtuous, righteous and enlightened persons without any distinction.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He who desires to become a ruler should protect good men, learned persons, officials and statesmen and through them the subjects. He can attain and retain kingdom, only when he is truthful and mighty and associates with noble persons.
Foot Notes
(असुर) मेघ इव वर्तमान = Behaving like a cloud-benevolent. (तरुत्र:) दुःखादुल्लंङ्घयिता = Extractor from misery. (राजा) न्याय्विनयाभ्याम्राज्मानः = Shining with justice and humility.
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