ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 175/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मत्स्यपा॑यि ते॒ मह॒: पात्र॑स्येव हरिवो मत्स॒रो मद॑:। वृषा॑ ते॒ वृष्ण॒ इन्दु॑र्वा॒जी स॑हस्र॒सात॑मः ॥
स्वर सहित पद पाठमत्सि॑ । अपा॑यि । ते॒ । महः॑ । पात्र॑स्यऽइव । ह॒रि॒ऽवः । म॒त्स॒रः । मदः॑ । वृषा॑ । ते॒ । वृष्णे॑ । इन्दुः॑ । वा॒जी । स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मत्स्यपायि ते मह: पात्रस्येव हरिवो मत्सरो मद:। वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः ॥
स्वर रहित पद पाठमत्सि। अपायि। ते। महः। पात्रस्यऽइव। हरिऽवः। मत्सरः। मदः। वृषा। ते। वृष्णे। इन्दुः। वाजी। सहस्रऽसातमः ॥ १.१७५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 175; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयं प्रकारान्तरेणाह ।
अन्वयः
हे हरिवो महः पात्रस्येव यस्ते मत्सरो मदस्त्वपायि तेन त्वं मत्सि स च वाजी सहस्रसातमो वृष्णे ते वृषेन्दुर्भवति ॥ १ ॥
पदार्थः
(मत्सि) हृष्यसि (अपायि) (ते) तव (महः) महतः (पात्रस्येव) यथा पात्रस्य मध्ये (हरिवः) प्रशस्ताश्व (मत्सरः) हर्षकरः (मदः) मदन्ति हर्षन्ति नैरोग्येण येनाऽसौ (वृषा) बलकरः (ते) तुभ्यम् (वृष्णे) सेचकाय बलवते (इन्दुः) ऐश्वर्यकरः (वाजी) वेगवान् (सहस्रसातमः) अतिशयेन सहस्रस्य विभाजकः ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽश्वा दुग्धादिकं पीत्वा घासं जग्ध्वा बलिष्ठा वेगवन्तो जायन्ते तथा पथ्योषधिसेविन आनन्दिता भवन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजविषय को प्रकारान्तर से कहते हैं ।
पदार्थ
हे (हरिवः) प्रशंसित घोड़ोंवाले ! (महः) बड़े (पात्रस्येव) पात्र के बीच जैसे रक्खा हो वैसे जो (ते) आपका (मत्सरः) हर्ष करनेवाला (मदः) नीरोगता के साथ जिससे जन आनन्दित होते हैं वह ओषधियों का सार अपने (अपायि) पिया है उससे आप (मत्सि) आनन्दित होते हैं और वह (वाजी) वेगवान् (सहस्रसातमः) अतीव सहस्र लोगों का विभाग करनेवाला (वृष्णे) सींचनेवाले बलवान् जो (ते) आप उनके लिये (वृषा) बल और (इन्दुः) ऐश्वर्य करनेवाला होता है ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे घोड़े दूध आदि पी, घास खा बलवान् और वेगवान् होते हैं, वैसे पथ्य ओषधियों के सेवन करनेवाले मनुष्य आनन्दित होते हैं ॥ १ ॥
विषय
शक्ति व आनन्द का मूल 'सोम'
पदार्थ
१. हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले जीव ! (पात्रस्य इव ते) = जैसे एक पात्र में सोम [रस] का रक्षण होता है, उसी प्रकार शरीर में उत्पन्न हुए हुए सोम के पात्रभूत तेरे लिए यह सोम (महः) = पूज्य होता है- इसे तू आदर की दृष्टि से देखता है, इसीलिए (अपायि) = यह सोम तुझसे पिया जाता है। इस सोम को तू शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करता है। (परिणामतः मत्सि) = [माद्यसि] तू आनन्द का अनुभव करता है। २. (वृष्णे ते) = शक्तिशाली तेरे लिए यह सोम (मत्सरः) = आनन्द का सञ्चार करनेवाला है, (मदः) = [तर्पयिता] तृप्ति करनेवाला है, (वृषा) = तुझपर सुखों का वर्षण करनेवाला है, (इन्दुः) = [इन्द् to be powerful] तुझे शक्तिशाली बनानेवाला है। यह सोम (वाजी) = [quick] गतिशील बनानेवाला व स्फूर्ति देनेवाला है तथा (सहस्त्रसातमः सहस्रशः) = ऐश्वर्यों को देनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- हमें शरीर में उत्पन्न सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही शक्ति व आनन्द तथा सभी ऐश्वर्यों का आधार है।
विषय
पात्रस्थ ओषधि रसवत् उत्तम पालक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( पात्रस्य इव ) जिस प्रकार पात्र में रखा हुआ ( मदः ) आनन्ददायक नीरोगजनक उत्तम ओषधियों का सार देह में ( मत्सरः ) हर्ष का सञ्चार और तृप्ति करने वाला होता है और वह मनुष्यों द्वारा पान किया जाता है ( ते ) तुझ ( पात्रस्य ) समस्त प्रजा के पालक का ( मदः = दमः ) दमन कारी सामर्थ्य ही ( महः ) महान् है और ( मत्सरः ) सबको हर्ष देने वाला होता है जिससे तू स्वयं भी ( मत्सि ) अति हर्ष युक्त रहता है और वह ही जनों द्वारा ( अपायि ) पालन किया जाता है, अर्थात् सब उसके अधीन रहते हैं । हे ( हरिवः ) उत्तम घोड़ों, अश्वसैन्य और विद्वानों के स्वामिन् ! हे (वृष्णः ते) प्रजा पर सुखों की मेघ के समान वर्षा करने वाले ! (ते) तेरा ( वृषा ) अति बलवान् ( वाजी ) ऐश्वर्यवान्, अश्ववत् बलवान् प्रजावर्ग या शासक वर्ग, प्रजाजन ही (इन्दुः) चन्द्र के समान आल्हादकारी और ऐश्वर्य उत्पन्न करने वाला और ( सहस्रसातमः ) सर्वोत्तम सहस्त्रों ऐश्वर्यो को देने वाला, सहस्रों को ऐश्वर्य विभक्त कर देने वाला हो । (२) हे समस्त लोकों के स्वामिन् ! प्रभो ! तेरा परमानन्द महान् आह्लाददायक है। उससे तू पूर्ण आनन्दमय है। वह हमें भी प्राप्त हो । वह ऐश्वर्यमय, तेरा आनन्द सुखों का वर्षक सहस्त्रों में सुखों का विभाग कर रहा है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १ स्वराडनुष्टुप् । २ विराडनुष्टुप । ५ अनुष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् त्रिष्टुप । उष्णिक् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राज्यव्यवहाराच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे घोडे दूध इत्यादी पितात, गवत खातात व बलवान व वेगवान होतात तसे पथ्य करून औषधींचे सेवन करणारी माणसे आनंदित होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of energy and paradisal bliss, rejoice. You have drunk of the great and exhilarating soma, the divinity and ecstasy of life fresh from the very flask of existence. Vibrant lord of the knights of horse, that joy of the drink of life is exciting, the very thrill of being. Lord virile and generous, you are the shower of bliss and that soma is soothing like the moon, tempestuous as waves of energy, yes, and a thousand-fold invitation to live, the call of life, for you. (The call of life is the call of existence for the human soul too to be born into this wonderful world of beauty, joy and peace.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler are told in different way.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O LORD of steeds ! you are exhilarated on accepting the Soma juice (the juice of nourishing plants). It has been kept in big and appropriate vessels for you. O Mighty, virile and showerer of happiness! this juice is invigorating, and gives the delight. It makes you prosperous (by toning up the vigor of body and mind). It makes you active and is the giver of unlimited pleasures and powers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The horses become mighty and speedy by taking milk and grass. Like wise, the persons take diet and medicines properly to get healthy and happy.
Foot Notes
(वृषा) वलकर: Invigorating. (इन्द्रः) ऐश्वर्यकर: = One who creates property.
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