ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 177/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ च॑र्षणि॒प्रा वृ॑ष॒भो जना॑नां॒ राजा॑ कृष्टी॒नां पु॑रुहू॒त इन्द्र॑:। स्तु॒तः श्र॑व॒स्यन्नव॒सोप॑ म॒द्रिग्यु॒क्त्वा हरी॒ वृष॒णा या॑ह्य॒र्वाङ् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः । वृ॒ष॒भः । जना॑नाम् । राजा॑ । कृ॒ष्टी॒नाम् । पु॒रु॒ऽहू॒तः । इन्द्रः॑ । स्तु॒तः । श्र॒व॒स्यन् । अव॑सा । उप॑ । म॒द्रिक् । यु॒क्त्वा । हरी॑ । वृ॒ष॒णा । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ चर्षणिप्रा वृषभो जनानां राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्र:। स्तुतः श्रवस्यन्नवसोप मद्रिग्युक्त्वा हरी वृषणा याह्यर्वाङ् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। चर्षणिऽप्राः। वृषभः। जनानाम्। राजा। कृष्टीनाम्। पुरुऽहूतः। इन्द्रः। स्तुतः। श्रवस्यन्। अवसा। उप। मद्रिक्। युक्त्वा। हरी। वृषणा। याहि। अर्वाङ् ॥ १.१७७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 177; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविद्वद्गुणानाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् तथा वृषभो जनानां चर्षणिप्रा राजा कृष्टीनां पुरुहूतः स्तुतः श्रवस्यन्मद्रिगिन्द्रो वृषणा हरी युक्त्वा अर्वाङ् याति तथाऽवसा त्वमस्मानुपा याहि ॥ १ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (चर्षणिप्राः) यश्चर्षणीन्मनुष्यान् प्राति विद्यया पिपर्त्ति सः (वृषभः) अतीव बलवान् (जनानाम्) शुभगुणेषु प्रादुर्भूतानाम् (राजा) प्रकाशमानः (कृष्टीनाम्) मनुष्याणाम् (पुरुहूतः) बहुभिः सत्कृतः (इन्द्रः) ऐश्वर्यप्रदः (स्तुतः) प्रशंसितः (श्रवस्यन्) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन् (अवसा) रक्षणादिना (उप) (मद्रिक्) यो मद्रं काममञ्चति सः (युक्त्वा) संयोज्य (हरी) हरणशीलौ (वृषणा) बलिष्ठावश्वौ (याहि) प्राप्नुहि (अर्वाङ्) योऽर्वागधो देशमञ्चति गच्छति तम् ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शुभगुणकर्मस्वभावा सभाध्यक्षाः प्रजासु चेष्टेरँस्तथा प्रजास्थैश्चेष्टितव्यम्। यथा कश्चिद्विमानमारुह्योपरि गत्वाऽध आयाति तथा विद्वांसः पराऽवरज्ञा स्युः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ सतहत्तर सूक्त का आरम्भ है। उसमें राजा और विद्वानों के गुणों को कहते हैं ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! जैसे (वृषभः) अतीव बलवान् (जनानाम्) शुद्ध गुणों में प्रसिद्ध हुए जनों में (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को विद्या से पूर्ण करनेवाला (राजा) प्रकाशमान और (कृष्टीनाम्) मनुष्यों में (पुरुहूतः) बहुतों से सत्कार को प्राप्त हुआ (स्तुतः) प्रशंसित (श्रवस्यन्) अपने को अन्न की इच्छा करता हुआ (मद्रिक्) जो काम को प्राप्त होता वह (इन्द्रः) ऐश्वर्य का देनेवाला (वृषणा) अति बली (हरी) हरणशील घोड़ों को (युक्त्वा) जोड़कर (अर्वाङ्) नीचली भूमियों में जाता है वैसे (अवसा) रक्षा आदि के साथ हम लोगों के (उप, आ, याहि) समीप आओ ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शुभ, गुण, कर्म, स्वभाववाले सभाध्यक्ष प्रजाजनों में चेष्टा करें, वैसे प्रजाजनों को भी चेष्टा करनी चाहिये। जैसे कोई विमान पर चढि और ऊपर को जायकर नीचे आता है, वैसे विद्वान् जन अगले-पिछले विषय को जाननेवाले हों ॥ १ ॥
विषय
चर्षणि, जन, कृष्टि
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = हे परमैश्वर्यशाली प्रभु! आप (आचर्षणिप्राः) = सूक्ष्मदृष्टिवाले पुरुषों को सम्यक् पूरण करनेवाले हैं। (जनानाम्) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले लोगों पर (वृषभ: =) सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (कृष्टीनां राजा) = श्रमशील मनुष्यों के जीवन को दीप्त करनेवाले हैं। वे 'चर्षणि' [Seeing, observing] ब्राह्मण-वृत्ति के पुरुष हैं। सूक्ष्मता से तत्त्व का दर्शन करनेवाले ये व्यक्ति ज्ञानप्रधान जीवन बिताते हैं। प्रभु इनकी कमियों को दूर करते हैं। 'जन' क्षत्रिय हैं । ये अपनी शक्तियों का विकास करते हैं। यह शक्ति विकास ही जीवन को सुखी बनाता है। 'कृष्टि' वैश्य हैं। ये कृषि आदि श्रमप्रधान कार्यों को करते हुए अपने ऐश्वर्यों का वर्धन करते हैं । २. ये (इन्द्र पुरुहूतः) = बहुतों से पुकारे जाते हैं। वस्तुतः प्रभु के उपासक बनकर ही हम 'चर्षणि, जन व कृष्टि' बन पाते हैं। प्रभु कहते हैं कि (स्तुत:) = [स्तुतमस्यास्तीति] स्तुति करता हुआ, (श्रवस्यन्) = ज्ञान की कामनावाला, (अवसा) = रक्षण के हेतु से (मद्रिक्) = मेरी ओर आनेवाला तू (वृष्णा हरी) = शक्तिशाली इन्द्रियाश्वों को (युक्त्वा) = शरीर-रथ में जोतकर (अर्वाङ्) = अन्दरहृदयान्तरिक्ष में (उप आ याहि) = मेरे समीप प्राप्त हो । ३. हमारे जीवन के उत्कर्ष के लिए प्रभु के निर्देश स्पष्ट हैं— [क] हमारी वृत्ति स्तवन की हो [स्तुतः], [ख] हम ज्ञान की रुचिवाले हों [शरवस्यन्], [ग] प्रभु-प्रवण हों नकि प्रकृति-प्रवण [मद्रिक्], [घ] इन्द्रियाश्वों को शरीररथ में जोतनेवाले अर्थात् क्रियाशील हों [युक्त्वा हरी वृषणा] । इस मार्ग पर चलते हुए ही हम ‘चर्षणि, जन व कृष्टि' बनेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'चर्षणि' बनें, प्रभु हमारा पूरण करेंगे। हम 'जन' बनें, प्रभु हमपर सुखों का वर्षण करेंगे। हम 'कृष्टि' बनें, प्रभु हमारे जीवन को दीप्त बनाएँगे ।
विषय
बलवान् नायकों का आह्वान, शासक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(चर्षणिप्राः) मनुष्यों को विद्या और ऐश्वर्य से पूर्ण करने वाला (वृषभः) मेघ के समान सबको विद्या और ऐश्वर्यो का देने वाला बलवान्, ( जनानां ) सब मनुष्यों का ( राजा ) राजा, स्वामी, ( कृष्टीनां ) सब प्रजाओं के बीच में ( पुरुहूतः ) सबसे सत्कार करने योग्य पुरुष ही ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् ‘इन्द्र’ है, वह ( आ ) प्राप्त हो । हे राजन् ! तू ( स्तुतः ) प्रशंसित होकर ( श्रवस्यन् ) यश और धन का अभिलाषी होकर ( अवसा ) अपने रक्षणसमर्थ्य से ( मद्रिक् ) समस्त कामनाओं को प्राप्त कराने और स्वयं करने वाला ( वृषणा ) बलवान् ( हरी युक्ता ) घोड़ों को जोड़कर ( अर्वाङ् ) हमारे समीप ( उपयाहि ) आ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ स्वरः—१—४ धैवतः । ५ पञ्चमः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
येथे राजा इत्यादी विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे हे जाणले पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शुभ गुण, कर्म स्वभावाचा सभाध्यक्ष प्रजेशी जसा व्यवहार करतो तसा प्रजेचाही व्यवहार असावा. जशी एखादी व्यक्ती विमानात बसून वर खाली जाते येते तसे विद्वानानेही मागचा पुढचा विषय जाणावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
First and foremost power among the people, virile and valorous, brilliant ruler of the living world, invoked, invited, honoured and worshipped by all, such is Indra, lord of honour, power and glory. O generous, strong and leading light of life, invoked, invited and celebrated as you are by us with song, reverence and worship, yoke the horses and come right here for the sake of our protection and your own self-fulfilment and covenant of Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king and learned person are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you give much wealth and cherish men with knowledge. You are benefactor of mankind, mighty and brilliant among the virtuous men and adored by them. You come to us. We praise you, desirous of good reputation and are concerned about our welfare. We harness your vigorous virtues and therefore reach us for our preservation (stability).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As Presidents of the Assemblies of noble merits, actions and temperaments deal with their subjects properly, likewise the people should reciprocate them lovingly and respectfully. As a passenger in an aero plane goes up and down, so should enlightened persons be aware of the complexities in human beings and their important dealings.
Foot Notes
(चर्षणिप्राः ) यः चर्षणनीन् मनुष्यान् प्राति विद्यया पिपर्ति सः । चर्षणय इति मनुष्यनाम । (NG. 2-3 ) (पृ) पालनपूरणयोः = He who fills men with knowledge.
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