ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कदु॒ प्रेष्ठा॑वि॒षां र॑यी॒णाम॑ध्व॒र्यन्ता॒ यदु॑न्निनी॒थो अ॒पाम्। अ॒यं वां॑ य॒ज्ञो अ॑कृत॒ प्रश॑स्तिं॒ वसु॑धिती॒ अवि॑तारा जनानाम् ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ऊँ॒ इति॑ । प्रेष्ठौ॑ । इ॒षाम् । र॒यी॒णाम् । अ॒ध्व॒र्यन्ता॑ । यत् । उ॒त्ऽनि॒नी॒थः । अ॒पाम् । अ॒यम् । वा॒म् । य॒ज्ञः । अ॒कृ॒त॒ । प्रऽश॑स्तिम् । वसु॑धिती॒ इति॑ वसु॑ऽधिती । अवि॑तारा । ज॒ना॒ना॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदु प्रेष्ठाविषां रयीणामध्वर्यन्ता यदुन्निनीथो अपाम्। अयं वां यज्ञो अकृत प्रशस्तिं वसुधिती अवितारा जनानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठकत्। ऊँ इति। प्रेष्ठौ। इषाम्। रयीणाम्। अध्वर्यन्ता। यत्। उत्ऽनिनीथः। अपाम्। अयम्। वाम्। यज्ञः। अकृत। प्रऽशस्तिम्। वसुधिती इति वसुऽधिती। अवितारा। जनानाम् ॥ १.१८१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाश्विदृष्टान्तेनाध्यापकोपदेशकगुणानाह ।
अन्वयः
हे इषां रयीणां प्रेष्ठौ जनानामवितारा वसुधिती अध्यापकोपदेशकौ युवां कदु कदाचिददध्वर्यन्ता यदपामुन्निनीथः सोऽयं वां यज्ञो प्रशस्तिमकृत ॥ १ ॥
पदार्थः
(कत्) कदा (उ) (प्रेष्ठौ) प्रीणीत इति प्रियौ इगुपधेति कः। अतिशयेन प्रियौ प्रेष्ठौ। (इषाम्) अन्नानाम् (रयीणाम्) (अध्वर्यन्ता) आत्मनोऽध्वरमिच्छन्तौ (यत्) (उन्निनीथः) उत्कर्षं प्राप्नुथः (अपाम्) जलानां प्राणानां वा (अयम्) (वाम्) युवयोः (यज्ञः) (अकृत) करोति (प्रशस्तिम्) प्रशंसाम् (वसुधिती) यौ वसूनि धरतस्तौ (अवितारा) रक्षितारौ (जनानाम्) मनुष्याणाम् ॥ १ ॥
भावार्थः
यदा विद्वांसो मनुष्यान् विद्या नयन्ति तदा ते सर्वप्रिया ऐश्वर्यवन्तो भवन्ति। यदाऽध्ययनाऽध्यापनेन सुगन्ध्यादिहोमेन च जीवात्मनो जलानि च शोधयन्ति तदा प्रशंसामाप्नुवन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ इक्यासी सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अश्विपद वाच्यों के दृष्टान्त से अध्यापक और उपदेशक के गुणों का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे (इषाम्) अन्न और (रयीणाम्) धनादि पदार्थों के विषय (प्रेष्ठौ) अत्यन्त प्रीतिवाले (जनानाम्) मनुष्यों की (अवितारा) रक्षा और (वसुधिती) धनादि पदार्थों को धारण करनेवाले अध्यापक और उपदेशको ! तुम (कत्, उ) कभी (अध्वर्यन्ता) अपने को यज्ञ की इच्छा करते हुए (यत्) जो (अपाम्) जल वा प्राणों की (उत्, निनीथः) उन्नति को पहुँचाते अर्थात् अत्यन्त व्यवहार में लाते हैं सो (अयम्) यह (वाम्) तुम्हारा (यज्ञः) द्रव्यमय वा वाणीमय यज्ञ (प्रशस्तिम्) प्रशंसा को (अकृत) करता है ॥ १ ॥
भावार्थ
जब विद्वान् जन मनुष्यों को विद्याओं की प्राप्ति कराते हैं, तब वे सबके पियारे ऐश्वर्यवान् होते हैं। जब पढ़ने और पढ़ाने से और सुगन्धादि पदार्थों के होम से जीवात्मा और जलों की शुद्धि कराते हैं, तब प्रशंसा को प्राप्त होते हैं ॥ १ ॥
विषय
जीवनयज्ञ का सञ्चालन
पदार्थ
१. हे (प्रेष्ठौ) = प्रियतम प्राणापानो ! (कत् उ) = वह समय कब होगा (यत्) = जब कि आप (अध्वर्यन्ता) = हमारे जीवन-यज्ञ के चलाने की कामनावाले होते हुए (इषाम् अपां रयीणाम्) = अन्नों, जलों व धनों के (उन्निनीथः) = प्राप्त करानेवाले होओगे? 'इष्' अन्न है तो 'आप्' जल है। प्राणापान हमें शक्तिसम्पन्न करके अन्न-जल को प्राप्त करानेवाले होते हैं तथा जीवन के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं। प्राणसाधक को चाहिए कि खान-पान को सादा रखे और धन को साधन के रूप में ही प्राप्त करे, धन को जीवन का साध्य न बनाए। ऐसा होने पर ही जीवन-यज्ञ सुन्दरता से चलता है। २. हे प्राणापानो ! (अयं यज्ञः) = यह सुन्दरता से चलता हुआ जीवन-यज्ञ (वाम्) = आपकी (प्रशस्तिं अकृत) = प्रशंसा करता है। आपकी शक्ति से सुन्दरता से चलता हुआ जीवन-यज्ञ आपकी प्रशंसा का कारण बन जाता है। इसकी सुन्दरता आपकी महिमा का स्मरण कराती है। ३. आप ही (वसुधिती) = सब वसुओं-जीवन के लिए आवश्यक सब तत्त्वों के धारण करनेवाले हैं और इन वसुओं के धारण के द्वारा (जनानाम् अवितारा) = लोगों का रक्षण करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान जीवन-यज्ञ के अध्वर्यु हैं । ये ही जीवन-यज्ञ को सुन्दरता से चलाते हैं। सब वसुओं को प्राप्त कराके जीवन का रक्षण करते हैं ।
विषय
उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे उत्तम स्त्री और पुरुषो ! राष्ट्र सम्पत्ति और व्यापक अधिकार का भोग करने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (इषां) उत्तम अन्न आदि अभिलाषा योग्य ( रयीणां ) धनैश्वर्यो के लिये (प्रेष्ठौ) अति लोकप्रिय होकर (अध्वर्यन्ता) यज्ञ करने की इच्छा करते हुए (कत् उ) कभी (अपाम्) सूर्य चन्द्र, या वायु सूर्य के समान जलकणों के सदृश तुच्छ प्रजाजनों को (यत्) जब भी ( उत्निनीथः ) उन्नत करते हो ( अयं ) यही (वां) आप दोनों का (यज्ञः) बड़ा भारी दान है जो तुम दोनों की बड़ी कीर्ति (अकृत) उत्पन्न करता है। क्योंकि तुम दोनों ही (वसुधिती) सबको बसाने वाले राष्ट्र को धारण करने में समर्थ होकर (जनानाम्) मनुष्यों के (अवितारौ) रक्षा करने हारे हो । राजा, रानी, सभा सभाध्यक्ष, सेना, सेनापति आदि युगल ‘अश्विनौ’ हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अश्विच्या दृष्टान्ताने अध्यापक व उपदेशकांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची संगती मागच्या सूक्ताबरोबर समजली पाहिजे. ॥
भावार्थ
जेव्हा विद्वान लोक माणसांना विद्येची प्राप्ती करवितात तेव्हा ते सर्वांचे प्रिय बनतात व ऐश्वर्यवान होतात. जेव्हा अध्ययन अध्यापनाने व सुगंधी पदार्थ होमात घालण्याने जीवात्म्याची व जलाची शुद्धी करवितात, तेव्हा ते प्रशंसेस पात्र ठरतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Dearest Ashvins, source and wielders of the treasures of wealth, saviours and protectors of humanity, ever keen to organise and conduct the yajnic development of water, energy and wealth, when you advance to the non-violent projects of development, you take the results to the heights of success. This yajna does honour to you both.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Comparable with Ashivinau (2), the attributes of teachers and preachers are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! you are the most liked source of food and and wealth, protect men and uphold practical and spiritual itches. Desirous of Yajna, always you carry the lives of men forward and purify the water. This sort of noble act of sacrifice makes you most admirable.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When the enlightened persons lead men to the attainment of knowledge, they become endeared and prosperous. By the process of study and teaching and by putting the oblations of fragrant and nourishing substances in the fire, (in the Yajna), they purify the souls and waters, thus get commendation from all.
Foot Notes
(अपाम् ) जलानां प्राणानां वा । आपो वै प्राणाः । (Shtph. 3.8.2.4 ) = Of the waters of the Pranas. ( इषम् ) अन्नाम् इषामित्यन्ननाम NG. 2.7 ) = Of food of various kinds.
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