ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 182/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
अभू॑दि॒दं व॒युन॒मो षु भू॑षता॒ रथो॒ वृष॑ण्वा॒न्मद॑ता मनीषिणः। धि॒यं॒जि॒न्वा धिष्ण्या॑ वि॒श्पला॑वसू दि॒वो नपा॑ता सु॒कृते॒ शुचि॑व्रता ॥
स्वर सहित पद पाठअभू॑त् । इ॒दम् । व॒युन॑म् । ओ इति॑ । सु । भू॒ष॒त॒ । रथः॑ । वृष॑ण्ऽवान् । मद॑त । म॒नी॒षि॒णः॒ । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वा । धिष्ण्या॑ । वि॒श्पला॑वसू॒ इति॑ । दि॒वः । नपा॑ता । सु॒ऽकृते॑ । शुचि॑ऽव्रता ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभूदिदं वयुनमो षु भूषता रथो वृषण्वान्मदता मनीषिणः। धियंजिन्वा धिष्ण्या विश्पलावसू दिवो नपाता सुकृते शुचिव्रता ॥
स्वर रहित पद पाठअभूत्। इदम्। वयुनम्। ओ इति। सु। भूषत। रथः। वृषण्ऽवान्। मदत। मनीषिणः। धियम्ऽजिन्वा। धिष्ण्या। विश्पलावसू इति। दिवः। नपाता। सुऽकृते। शुचिऽव्रता ॥ १.१८२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 182; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वत्कृत्यमाह ।
अन्वयः
ओ मनीषिणो याभ्यामिदं वयुनमभूदुत्पन्नं स्यात्। वृषण्वान्नथश्चाभूतौ सुकृते धियंजिन्वा दिवो नपाता धिष्ण्या शुचिव्रता विश्पलावसू अध्यापकोपदेशकौ यूयं सुभूषत तत्सङ्गेन मदत ॥ १ ॥
पदार्थः
(अभूत्) भवति (इदम्) (वयुनम्) प्रज्ञानम् (ओ) सम्बोधने (सु) (भूषत) अलंकुरुत। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (रथः) यानम् (वृषण्वान्) अन्ययानानां वेगशक्तिबन्धयिता (मदत) आनन्दत। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (मनीषिणः) मेधाविनः (धियंजिन्वा) यौ धियं प्रज्ञां जिन्वतः प्रीणीतस्तौ (धिष्ण्या) दृढौ प्रगल्भौ (विश्पलावसू) विशां पालयितारौ च तौ वासकौ (दिवः) प्रकाशस्य (नपाता) प्रपातरहितौ (सुकृते) शोभने मार्गे (शुचिव्रता) पवित्रकर्मशीलौ ॥ १ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या न तौ वराऽध्यापकोपदेशौ ययोः सङ्गेन प्रजापालनसुशीलतेश्वरधर्मशिल्पव्यवहारविद्या न वर्द्धेरन् ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ बयासीवें सूक्त का आरम्भ है। इसमें आरम्भ से विद्वानों के कार्य को कहते हैं ।
पदार्थ
(ओ) ओ (मनीषिणः) धीमानो ! जिनसे (इदम्) यह (वयुनम्) उत्तम ज्ञान (अभूत्) हुआ और (वृषण्वान्) यानों की वेग शक्ति को बाँधनेवाला (रथः) रथ हुआ उन (सुकृते) सुकर्मरूप शोभन मार्ग में (धियंजिन्वा) बुद्धि को तृप्त रखते (दिवः) विद्यादि प्रकाश के (नपाता) पवन से रहित (धिष्ण्या) दृढ़ प्रगल्भ (शुचिव्रता) पवित्र कर्म करने के स्वभाव से युक्त (विश्पलावसू) प्रजाजनों की पालना करने और वसानेवाले अध्यापक और उपदेशकों को तुम (सु, भूषत) सुशोभित करो और उनके सङ्ग से (मदत) आनन्दित होओ ॥ १ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो वे श्रेष्ठ अध्यापक और उपदेशक नहीं है कि जिनके सङ्ग से प्रजा पालना, सुशीलता, ईश्वर, धर्म और शिल्प व्यवहार की विद्या न बढ़ें ॥ १ ॥
विषय
धियञ्जिन्वा शुचिव्रता
पदार्थ
१. हे (मनीषिणः) = बुद्धिमान् पुरुषो! (मदत) = यह जानकर तुम प्रसन्न होओ कि (इदं वयुनम् अभूत्) = यह प्रज्ञान उत्पन्न हुआ है। (आ उ षु भूषत) = उस प्रभु के स्तवन के लिए होओ। (रथः वृषण्वान्) - तुम्हारा यह शरीररूप रथ शक्तिशाली बना है। मस्तिष्क में ज्ञान की ज्योति जगी है, हृदय में प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले बने हो, शरीर दृढ़ हुआ है। इस त्रिविध उन्नति को करके तुम प्रसन्नता का अनुभव करो। २. तुम्हारे ये प्राणापान (धियञ्जिन्वा) = बुद्धियों को प्रीणित करनेवाले हैं, (धिष्ण्या) = स्तुति में उत्तम हैं। इनकी साधना से मनुष्य की चित्तवृत्ति एकाग्र होकर प्रभु की ओर झुकाववाली होती है। (विश्-पला-वसू) = ये प्रजाओं के पालक धनवाले हैं, आवश्यक सब धनों को प्राप्त कराते हैं। हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम सब आवश्यक धनों को प्राप्त कर सकें । (दिवः न पाता) = ये ज्ञान को नष्ट न होने देनेवाले हैं तथा सुकृते उत्तमता से साधना करनेवाले के लिए (शुचिव्रता) = पवित्र व्रतोंवाले हैं। प्राणसाधना से हमारे कर्म भी पवित्र होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से शरीर दृढ़ बनता है, हृदय प्रभुस्तवनवाला बनता है, मस्तिष्क ज्ञानवाला होता है ।
विषय
विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ओ मनीषिणः ) हे बुद्धिमान् पुरुषो ! ( इदं ) यह ( वयुनम् ) सब से उत्तम देह है, इसमें ( वृषण्वान् ) बलवान् पुरुषों के समान बलवान् प्राणों का स्वामी ( रथः ) रमण करने और चलाने हारा, सर्वत्र रमने हारा एवं रस रूप से ( अभूद् ) है । उसको ( सु भूषत ) उत्तम रीति से अलंकृत करो । उसमें उत्तम गुण और बल धारण कराओ ( मदत ) उसको अच्छी प्रकार प्रसन्न करो। उससे स्वयं भी आनन्द लाभ करो। (दिवः नपाता) सूर्य के समान तेजःस्वरूप उस आत्मा के पुत्र के समान उसको न गिरने देने हारे, उसको देह में सदा बनाये रखने हारे ( धियञ्जिन्वा ) ज्ञान कर्म दोनों को प्रेरने वाले, ( धिष्ण्या ) सर्वोत्तम, उत्तम प्रज्ञा को उत्पन्न करने वाले, ( विश्पलावसू ) प्रजाओं को पालने वाले, धन बल से सम्पन्न, ( सुकृते ) उत्तम कर्म और आचारण में सदा ( शुचिव्रता ) पवित्र व्रत का पालन करने वाले, देह में सदा शुद्धि बनाये रखने वाले, दो प्रधान पुरुषों के समान देह में प्राण और अपान हैं। उनको (आ भूषत ) उत्तम सामर्थ्यवान् करो और ( आ मदत ) सब प्रकार से अन्नादि द्वारा हृष्ट पुष्ट करो और तृप्त होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ५, ७ निचृज्जगती । २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ जगती। ४ विराड् जगती । ६, ८ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वानांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे. ॥
भावार्थ
हे माणसांनो! ते श्रेष्ठ अध्यापक व उपदेशक नसतात ज्यांच्या संगतीने प्रजापालन, सुशीलता, ईश्वर, धर्म व शिल्पव्यवहाराची वाढ होत नाही. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Men of knowledge and wisdom, honour and adore those teachers and scholars and rejoice with them who give us this knowledge and create this mighty and versatile chariot of ours which is fit for the Ashvins to move at the speed of winds and light. They are the agents of intellectual and scientific evolution, strong and inviolable treasure-givers of health and wealth and home, keepers of the light of heaven on earth, and firmly committed to the paths of knowledge, action and progress along the lines of purity and rectitude.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wisemen ! adore those teachers and preachers from whome true knowledge originates, and are capable to manufacture a strong vehicle. Such people are satisfiers of intellect, steady and wise and are rich in benevolence to mankind. They preserve the light of wisdom, and observe pure vows. Be delighted by their association.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O man ! those are not good teachers and preachers and therefore avoid them, because they do not protect the people of good character and temperament. The knowledge of God, Dharma (righteousness) and technology would there may not grow more and more.
Foot Notes
(वयुनम्) प्रज्ञानम् = Good knowledge. (दिव:) प्रकाशस्य = Of the light.
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