ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 184/ मन्त्र 1
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
ता वा॑म॒द्य ताव॑प॒रं हु॑वेमो॒च्छन्त्या॑मु॒षसि॒ वह्नि॑रु॒क्थैः। नास॑त्या॒ कुह॑ चि॒त्सन्ता॑व॒र्यो दि॒वो नपा॑ता सु॒दास्त॑राय ॥
स्वर सहित पद पाठता । वा॒म् । अ॒द्य । तौ । अ॒प॒रम् । हु॒वे॒म॒ । उ॒च्छन्त्या॑म् । उ॒षसि॑ । वह्निः॑ । उ॒क्थैः । नास॑त्या । कुह॑ । चि॒त् । सन्तौ॑ । अ॒र्यः । दि॒वः । नपा॑ता । सु॒दाःऽत॑राय ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता वामद्य तावपरं हुवेमोच्छन्त्यामुषसि वह्निरुक्थैः। नासत्या कुह चित्सन्तावर्यो दिवो नपाता सुदास्तराय ॥
स्वर रहित पद पाठता। वाम्। अद्य। तौ। अपरम्। हुवेम। उच्छन्त्याम्। उषसि। वह्निः। उक्थैः। नासत्या। कुह। चित्। सन्तौ। अर्यः। दिवः। नपाता। सुदाःऽतराय ॥ १.१८४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 184; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकोपदेशकविषयमाह ।
अन्वयः
हे नपाता नासत्या वयमद्य उच्छन्त्यामुषसि ता वां हुवेम तावपरं स्वीकुर्य्याम युवां कुह चित् सन्तौ यथा वह्निरिवार्य्यः सुदास्तरायोक्थैर्दिवो मध्ये वर्त्तेते तथा वयमपि वर्त्तेमहि ॥ १ ॥
पदार्थः
(ता) तौ (वाम्) युवाम् (अद्य) (तौ) (अपरम्) पश्चात् (हुवेम) (उच्छन्त्याम्) विविधवासदात्र्याम् (उषसि) प्रभातवेलायाम् (वह्निः) वोढा (उक्थैः) प्रशंसनीयैर्वचोभिः (नासत्या) असत्यात् पृथग्भूतौ (कुह) कस्मिन् (चित्) अपि (सन्तौ) (अर्य्यः) वणिग्जनः (दिवः) व्यवहारस्य (नपाता) न विद्यते पातो ययोस्तौ (सुदास्तराय) अतिशयेन सुष्ठुप्रदात्रे ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो द्यावापृथिवीभ्यामुपकारान् कुर्वन्ति तथा वयं विद्वद्भ्य उपकृता भवेम ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब द्वितीयाष्टक के पञ्चम अध्याय के प्रथम सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक विषय को कहा है ।
पदार्थ
हे (नपाता) जिनका पात विद्यमान नहीं वे (नासत्या) मिथ्या व्यवहार से अलग हुए सत्यप्रिय विद्वानो ! हम लोग (अद्य) आज (उच्छन्त्याम्) नाना प्रकार का वास देनेवाली (उषसि) प्रभात वेला में (ता) उन (वाम्) तुम दोनों महाशयों को (हुवेम) स्वीकार करें (तौ) और उन आपको (अपरम्) पीछे भी स्वीकार करें तुम (कुह, चित्) किसी स्थान में (सन्तौ) हुए हो और जैसे (वह्निः) पदार्थों को एक स्थान को पहुँचानेवाले अग्नि के समान (अर्य्यः) वणियाँ (सुदास्तराय) अतीव सुन्दरता से उत्तम देनेवाले के लिये (उक्थैः) प्रशंसा करने के योग्य वचनों से (दिवः) व्यवहार के बीच वर्त्तमान है वैसे हम लोग वर्त्तें ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन आकाश और पृथिवी से उपकार करते हैं, वैसे हम लोग विद्वानों से उपकार को प्राप्त हुए वर्त्तें ॥ १ ॥
विषय
दैनिक साधना
पदार्थ
१. हे (नासत्या) = असत्य को दूर करनेवाले प्राणापानो ! (ता वाम्) = उन आपको (अद्य हुवेम) = आज पुकारते हैं तथा (तौ) = उन आपको (अपरम्) = अगले दिन भी (उषसि उच्छन्त्याम्) = उषाकाल के उदय होते ही हम उसी प्रकार पुकारते हैं जैसे (वह्निः) = उत्तम कर्मों का वहन करनेवाला (अर्यः) = जितेन्द्रिय पुरुष (उक्थैः) = स्तोत्रों के द्वारा आराधना करता है । २. हे प्राणापानो! आप (कुह चित् सन्तौ) = शरीर में कहीं भी होते हुए (सुदास्तराय) = उत्तमता से वासनाओं का क्षय करनेवाले के लिए (दिवः नपाता) = ज्ञान के नष्ट न होने देनेवाले होते हो । प्राणसाधना से जहाँ हम प्राणों का निरोध करते हैं, वहीं ये प्राण मलों का क्षय करते हैं। निर्मलता बुद्धि की तीव्रता का कारण बनती है। बुद्धि की तीव्रता से हमारा जीवन ज्ञान की ज्योतिवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रतिदिन प्रातः प्राणसाधना करनी ही चाहिए। यह मलों को नष्ट करके हमारे ज्ञान को उज्ज्वल करेगी ।
विषय
विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( नासत्यौ) असत्याचरण से रहित विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( कुह चित् सन्तौ ) चाहे कहीं भी रहें, तो भी ( वह्निः ) ज्ञान का वहन करने या दूसरों तक पहुंचाने वाला विद्वान् व हम लोग ( उच्छन्त्याम् उषसि ) प्रभात वेला के खुल जाने पर ( ता वाम् अद्य ) तुम दोनों को आज ( हुवेम ) नित्य उत्तम उपदेश दें । ( तौ ) उन तुम दोनों को ही ( अपरम् ) अगले दिन भी ( हुवेम ) प्रेम से उपदेश करें । अथवा ( ता वाम् अद्य तौ अपरंहुवेम ) हम विद्वान् जन तुम दोनों को आज और आगे भी यही उपदेश देते हैं कि ( वाम् ) तुम दोनों में से ( उच्छन्त्याम् उषसि वन्हिः उक्थैः ) उषा के समान नित्य अपने रूप को उज्ज्वल प्रसन्न दिखाने वाली कमनीय स्त्री के निमित्त ( वन्हिः ) विवाह करने वाला पुरुष ( ऊक्थः ) उत्तम वचनों से बोले। (कुह चित् सन्तौ) चाहे तुम दोनों किसी भी दशा या देश में रहो, पर ( नासत्या ) असत्य व्यवहार कभी न करने वाले होकर रहो। (अर्यः सुदास्तराय दिवः नपाता) और जिस प्रकार वैश्य अपना माल सब से उत्तम मूल्य देने वाले को देता है उसी प्रकार (वां अर्यः) तुम दोनों में जो स्वामी है वह (सुदास्तराय) अधिक सुख देने वाले दूसरे अंगके लिये ( दिवः नपाता ) परस्पर की कामना या प्रेम को कभी नीचे न गिरने देना वाला ही रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६, निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अध्यापक व उपदेशकाची लक्षणे सांगितलेली असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती समजली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक आकाश व पृथ्वीद्वारे उपकार करतात तसे आम्हीही विद्वानांकडून उपकृत होऊन वागावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, infallible children of the light of heaven, committed to the law of truth and right, today and also later we invoke and invite you both at the rise of the glorious dawn with songs of adoration. The fire is lit, the songs are sung. Wherever you be, come like the waves of light-rays to bless the man of masterly business and noble charity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the teachers and preachers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ever-progressive and never falling absolutely truthful teachers and preachers! we invoke you to day; we invoke you on other days here after during the dawns. Whereevere you may be, we may have that reverential dealings with you like a trader (Vaishya) carrying on his business with a liberal customer in polite words.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned persons take due benefits from the earth and the sky; likewise, we may be benefited by the enlightened persons.
Foot Notes
(वह्वि:) वोढा वह्वि is derived from वहप्रापणे – One who carries on. (अर्य:) वणिग्जन: (अर्य:) स्वामिवैश्ययौः अष्टाः ३.१.१०३, = A businessman (सुदास्तराय) अतिशयेन सुष्ठु प्रदात्ने = For a good liberal donor. दास-दाने ( धातुपाठ ) = For a good liberal donor.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal