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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रति॒ त्यं चारु॑मध्व॒रं गो॑पी॒थाय॒ प्र हू॑यसे। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । त्यम् । चारु॑म् । अ॒ध्व॒रम् । गो॒ऽपी॒थाय॑ । प्र । हू॒य॒से॒ । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे। मरुद्भिरग्न आ गहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति। त्यम्। चारुम्। अध्वरम्। गोऽपीथाय। प्र। हूयसे। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ भौतिकाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    योऽग्निर्मरुद्भिः सहागहि समन्तात्प्राप्नोति स विद्वद्भिस्त्यं तं चारुमध्वरं प्रति गोपीथाय प्रहूयसे प्रकृष्टतया शब्द्यते॥१॥

    पदार्थः

    (प्रति) वीप्सायाम् (त्यम्) तम् (चारुम्) श्रेष्ठम् (अध्वरम्) यज्ञम् (गोपीथाय) पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय। निशीथगोपीथावगथाः। (उणा०२.९) अनेनायं निपातितः। (प्र) प्रकृष्टार्थे (हूयसे) अध्वरसिद्ध्यर्थं शब्द्यते। अत्र व्यत्ययः। (मरुद्भिः) वायुविशेषैः सह (अग्ने) भौतिकः (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च॥१॥

    भावार्थः

    यो भौतिकोऽग्निः प्रसिद्धः विद्युद्रूपेण वायुभ्यः प्रदीप्यते सोऽयं विद्वद्भिः प्रशस्तबुद्ध्या प्रतिक्रियासिद्धिः सर्वस्य रक्षणाय तद्गुणज्ञानपुरःसरमुपदेष्टव्यः श्रोतव्यश्चेति॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    जो (अग्ने) भौतिक अग्नि (मरुद्भिः) विशेष पवनों के साथ (आगहि) सब प्रकार से प्राप्त होता है, वह विद्वानों की क्रियाओं से (त्यम्) उक्त (चारुम् अध्वरम् प्रति) प्रत्येक उत्तम-उत्तम यज्ञ में उनकी सिद्धि वा (गोपीथाय) अनेक प्रकार की रक्षा के लिये (प्रहूयसे) अच्छी प्रकार क्रिया में युक्त किया जाता है॥१॥

    भावार्थ

    जो यह भौतिक अग्नि प्रसिद्ध सूर्य्य और विद्युद्रूप करके पवनों के साथ प्रदीप्त होता है, वह विद्वानों की प्रशंसनीय बुद्धि से हर एक क्रिया की सिद्धि वा सबकी रक्षा के लिये गुणों के विज्ञानपूर्वक उपदेश करना वा सुनना चाहिये॥१॥

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    विषय

    अब उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः अग्निः मरुद्भिः सह आगहि समन्तात् प्राप्नोति स विद्वद्भिः  त्यं  चारुम् अध्वरम्  प्रति गोपीथाय प्रहूयसे प्रकृष्टतया शब्द्यते ॥१॥ 

    पदार्थ

    (यः)=जो, (अग्निः)=भौतिक अग्नि, (मरुद्भिः) वायु विशेषै सह=विशेष पवनों के, (सह)=साथ, (आ) समन्तात्=सब प्रकार से, (गहि) गच्छति=प्राप्त होता है, (समन्तात्)= प्राप्त होता है, (प्राप्नोति)=प्राप्त होता है,   (सः)=वह अग्नि, (विद्वद्भिः)=विद्वानों के द्वारा, (त्यम्)=उक्त, (चारुम्) श्रेष्ठम्=श्रेष्ठ, (अध्वरम्) यज्ञम्=यज्ञ के, (प्रति)=प्रति, (गोपीथाय) पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय=पृथिवी इन्द्रिय आदि की  रक्षा के लिये, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छी प्रकार से, (हूयसे) अध्वरसिद्धर्थं शब्द्यते=यज्ञ की सिद्धि के लिये बोला गया, (प्रकृष्टतया)=अच्छी प्रकार से, (शब्द्यते)=बोला जाता है॥१॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो यह भौतिक अग्नि प्रसिद्ध सूर्य्य और विद्युत् रूप से पवनों के साथ प्रदीप्त होता है, वह विद्वानों की प्रशंसनीय बुद्धि से हर एक क्रिया की सिद्धि या सबकी रक्षा के लिये गुणों के विशेष ज्ञानपूर्वक उपदेश करना या सुनना चाहिये॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (अग्निः) भौतिक अग्नि (मरुद्भिः) विशेष पवनों के (सह) साथ (आ) सब प्रकार से (गहि) प्राप्त होता है, (सः) वह अग्नि (विद्वद्भिः) विद्वानों के द्वारा (त्यम्) कहे गये (चारुम्) श्रेष्ठ (अध्वरम्) यज्ञ के (प्रति) प्रति (गोपीथाय) पृथिवी इन्द्रिय आदि की  रक्षा के लिये (प्र) अच्छी प्रकार से (हूयसे) यज्ञ की सिद्धि के लिये बोला गया है (प्रकृष्टतया) और अच्छी प्रकार से (शब्द्यते) बोला जाता है॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्रति) वीप्सायाम् (त्यम्) तम् (चारुम्) श्रेष्ठम् (अध्वरम्) यज्ञम् (गोपीथाय) पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय। निशीथगोपीथावगथाः। (उणा०२.९) अनेनायं निपातितः। (प्र) प्रकृष्टार्थे (हूयसे) अध्वरसिद्ध्यर्थं शब्द्यते। अत्र व्यत्ययः। (मरुद्भिः) वायुविशेषैः सह (अग्ने) भौतिकः (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च॥१॥
    विषयः- तत्रादौ भौतिकाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।   

    अन्वयः- यो ऽग्निर्मरुद्भिः सह आगहि समन्तात्प्राप्नोति स विद्वद्भिस्त्यं तं चारुमध्वरम्  प्रति गोपीथाय प्रहूयसे प्रकृष्टतया शब्द्यते ॥महर्षिकृत:॥१॥            

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो भौतिकोऽग्निः प्रसिद्धः विद्युद्रूपेण वायुभ्यः प्रदीप्यते सोऽयं विद्वद्भिः प्रशस्तबुद्ध्या प्रतिक्रियासिद्धिः सर्वस्य रक्षणाय तद्गुणज्ञानपुरःसरमुपदेष्टव्यः श्रोतव्यश्चेति॥१॥

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    विषय

    तीन निर्देश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के प्रभु - दर्शन करनेवाले जीव को प्रभु कहते हैं कि तू (त्यम् , चारुम् , अध्वरम् , प्रति) - उस सुन्दर यज्ञ के प्रति (प्रहूयसे) - बुलाया जाता है । जैसे एक पिता पुत्र को बैठकर पढ़ने के लिए बुलाता है , इसी प्रकार प्रभु कहते हैं कि मैं तुझे यज्ञ के लिए बुलाता हूँ , उस सुन्दर यज्ञ के लिए जिसके द्वारा तुझे इस संसार में फूलना - फलना है और जो यज्ञ तेरी सब इष्ट कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है । 

    २. तू मुझसे (गोपीथाय) - [गावः वाचः] ज्ञान की वाणियों के पान के लिए 'प्रहूयसे' बुलाया जाता है । तू नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा अपने ज्ञान को निरन्तर बढ़ानेवाला बन । ज्ञान के अभाव में मनुष्य की वृत्ति यज्ञात्मक न होकर भोगप्रवण हो जाती है । 'जीवन यज्ञमय बना रहे' , इसके लिए ज्ञान - प्राप्ति आवश्यक है । ज्ञानी यज्ञशील होता है एवं ज्ञान प्रवृत्ति का साधन हो जाता है । 

    ३. प्रभु तीसरी बात कहते हैं कि हे (अग्ने) - प्रगतिशील जीव! तू (मरुद्धिः) - प्राणों के द्वारा (आगहि) - हमारे समीप आनेवाला बन । प्राणसाधना से चित्तवृत्ति - निरोध होगा और चित्तवृत्ति - निरोध ही प्रभु का दर्शन करानेवाला होगा । चित्तवृत्ति का निरोध होने पर ही द्रष्टा स्व स्वरूप में अवस्थित होता है और प्रभु - दर्शन करता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के तीन निर्देश हैं - [क] यज्ञमय जीवनवाला बन , [ख] ज्ञान का पान कर और [ग] प्राणसाधना को अपना । 

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    विषय

    अग्नि, विद्वान्, परमेश्वर, राजा, भौतिकाग्नि, का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्नि के समान अति तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! विद्वन् ! परमेश्वर ! ( त्वं ) उस जगत्प्रसिद्ध ( अध्वरम् ) नित्य विद्यमान, ब्रह्माण्ड मय ( चारुम् ) उत्तम यज्ञ की ( गोपीथाय ) रक्षा के लिये तू ( प्रति प्र हूयसे ) प्रतिदिन स्तुति किये जाने योग्य है । तू ( मरुद्भिः ) विद्वानों एवं वायुओं के समान व्यापक पदार्थों के साथ ( आगहि ) आ, हमें प्राप्त हो । राजा के पक्ष में—हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! अग्रणी राजन् ! (मरुद्भिः) तू शत्रुओं को मारने वाले, वायु के समान तीव्र वेग से जाने वाले वीर पुरुषों सहित आ । तू इस श्रेष्ठ, न नाश होने वाले, यज्ञ राष्ट्र के रक्षार्थ अच्छी प्रकार प्रस्तुत किया जाता है । भौतिकाग्नि पक्ष में—अग्नि ( मरुद्भिः ) वायु से अधिक प्रदीप्त होता है, वह यज्ञ की रक्षा के लिये उपदेश किया जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    अठराव्या सूक्तात सांगितलेल्या बृहस्पती इत्यादी पदार्थांबरोबर या सूक्तात ज्या अग्नी व वायूचे प्रतिपादन केलेले आहे त्यांच्या विद्येची एकता असल्यामुळे या एकोणिसाव्या सूक्ताची संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    हा भौतिक अग्नी, प्रसिद्ध सूर्य व विद्युत, वायूंबरोबर प्रदीप्त होतो तो विद्वानांच्या प्रशंसनीय बुद्धीने प्रत्येक क्रियेची सिद्धी किंवा सर्वांचे रक्षण करतो. या गुणांचा विज्ञानपूर्वक उपदेश केला व ऐकला पाहिजे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, fire energy of nature, come with the winds, you are invoked and kindled for the preservation and promotion of the beautiful holy yajna (of the earth for her children).

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    Subject of the mantra

    Now, at the start of nineteenth hymns, in its first mantra qualities of fire have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=That, (agniḥ)=physical fire, (marudbhiḥ)=of especial winds, (saha)=with, (ā)=in all respects, (gahi)=gets obtained, (saḥ)=that fire, (vidvadbhiḥ)=by scholars, (tyam)= propounded, (cārum)=best, (adhvaram)=of the Yagya, (prati)=to, (gopīthāya)= to protect the earth and senses etc. (pra)=well, (hūyase)=It is said for the accomplishment of Yagya, (prakṛṣṭatayā)=and well (śabdyate)=is spoken.

    English Translation (K.K.V.)

    The physical fire, which is obtained in every way with especial winds for the protection of the earth and senses et cetera. This fire has been propounded by the scholars for the accomplishment of the best yajan and is spoken well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    This physical fire, which ignites with the famous Sun and electrical form winds, should be preached or listened to by the laudable intellect of scholars with special knowledge of virtues for the accomplishment of every action or for the protection of all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the first Mantra, the attributes of the material fire are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The fire in the form of electricity which comes with the winds, is invoked or used by the learned scientists to the fair yajna (of various works of art) for the protection of the earth and senses etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गोपीथाय) पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय = For the protection of the earth and senses etc. निशीथगोपीथावगथा: (उणादि २.९ ) इति निपातितः ( मरुद्भिः) वायु विशेषैः सह = With special kinds of airs. There is also a spiritual meaning of this mantra (though not paritcularly mentioned by the revered commentator). But as he himself has taken the word Agni for God also in the next few mantras, the meaning given here is in accordance with his principle that there are spiritual and external meanings of all the Vedic Mantras (as mentioned by him in the introduction to the Aryaabhivinaya). O God our Supreme Leader, Thou art invoked by us for the noble sacrifice in the form of our life. Manifest Thyself through the knowledge, acquired with the help of the wise and the practice of Pranayama etc. In this case, the spiritual meanings of the words used in the Mantras are as follows- अध्वरम्-हिंसारहितं जीवनरूपं यज्ञम् अध्वरो वै यज्ञः (शतपथ १.३.३.३८ ) । अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः (निरुक्त १.७ ) । = Non-violent sacrifice in the form of noble life. मरुतः-मरुत इति ऋत्विङ्नाम (निघ० ३.१८) अथवा प्राणा वै मरुतः । ( शत० ९.३.१.७ ) = Priests and Pranas.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The fire in the form of electricity is kindled by the particular airs. The scientists should give instructions to all to utilize it intelligently for the accomplishment of various works with the knowledge of its properties in order to protect all. The students must hear about it from the learned.

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