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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अबोषधिसूर्याः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    कङ्क॑तो॒ न कङ्क॒तोऽथो॑ सती॒नक॑ङ्कतः। द्वाविति॒ प्लुषी॒ इति॒ न्य१॒॑दृष्टा॑ अलिप्सत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कङ्क॑तः । न । कङ्क॑तः । अथो॒ इति॑ । स॒ती॒नऽक॑ङ्कतः । द्वौ । इति॑ । प्लुषी॒ इति॑ । इति॑ । नि । अ॒दृष्टाः॑ । अ॒लि॒प्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः। द्वाविति प्लुषी इति न्य१दृष्टा अलिप्सत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कङ्कतः। न। कङ्कतः। अथो इति। सतीनऽकङ्कतः। द्वौ। इति। प्लुषी इति। इति। नि। अदृष्टाः। अलिप्सत ॥ १.१९१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विषौषधिविषवैद्यानां च विषयमाह ।

    अन्वयः

    यो मनुष्यः कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतो द्वाविति यथा प्लुषी इत्यन्येन सह सज्जेरन् तथाऽदृष्टा न्यलिप्सत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (कङ्कतः) विषवान् (न) इव (कङ्कतः) चञ्चलः (अथो) आनन्तर्ये (सतीनकङ्कतः) सतीनमिव चञ्चलः। सतीनमित्युदकनामसु पठितम् । निघं० १। १२। (द्वौ) (इति) प्रकारे (प्लुषी इति) दाहकौ दुःखप्रदौ (नि) (अदृष्टाः) येन दृश्यन्ते ते विषधारिणो जीवाः (अलिप्सत) लिम्पन्ति ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा कश्च्चिच्चञ्चलो जनोऽध्यापकोपदेष्टारौ प्राप्य कङ्कते तथाऽदृष्टा विषधारिणः क्षुद्रा जीवाः पुनः पुनर्निवारिता अप्युपरि पतन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ एक्यानवे सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से विषौषधि और विषवैद्यों के विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    जो मनुष्य (कङ्कतः) विषवाले प्राणी के (न) समान (कङ्कतः) चञ्चल (अथो) और जो (सतीनकङ्कतः) जल के समान चञ्चल हैं वे (द्वाविति) दोनों इस प्रकार के जैसे (प्लुषी, इति) जी जलानेवाले दुःखदायी दूसरे के सङ्ग लगें वैसे (अदृष्टाः) जो नहीं दीखते विषधारी जीव वे (नि, अलिप्सत) निरन्तर चिपटते हैं ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई चञ्चल जन अध्यापक और उपदेशक को पाकर चञ्चलता देता है, वैसे न देखे हुए छोटे-छोटे विषधारी मत्कुण, डांश आदि क्षुद्र जीव बार-बार निवारण करने पर भी ऊपर गिरते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    द्विविध विषधर

    पदार्थ

    १. (कङ्कतः) = अल्पविषवाला, (न कङ्कत:) = अल्पविष से विपरीत महाविषवाला (अथो) = और (सतीनकङ्कत:) = [सतीनम् - उदकम्] उदकचारी अल्पविषवाला डुण्डुभादि- इस प्रकार अल्पविष व महाविष भेद से अथवा जलचर व स्थलचर भेद से (द्वौ इति) = दो प्रकार के ये विषैले कृमि (प्लुषी इति) = [प्लुष दाहे] दो प्रकार से दाहकत्ववाले हैं। अल्पविषवालों का दहन भी अल्प है, तीव्रविषवालों के दहन में तीव्रता है। २. इनके अतिरिक्त कितने ही विषकृमि (अदृष्टाः) = अदृश्यमान रूप हैं। इस प्रकार के जो भी विषधर प्राणी हैं वे सब निश्चय से मुझे (नि+अलिप्सत) = विशेषेण लिप्त करते हैं। मेरे सब अङ्ग उनके विष से आवृत हो जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- विषधर प्राणी अल्पविष व महाविष भेद से, जलचर व स्थलचर भेद से अथवा दृष्ट-अदृष्ट भेद से दो प्रकार के हैं ।

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    विषय

    विषैले जीवों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( कंकतः न ) अति चञ्चल के समान ( कंकतः ) विष वाला जीव होता है । ( अथो ) और ( सतीन कङ्कतः ) वह विषैला जीव जल धारा के समान कुटिल चाल से चलने वाला होता है। (द्वौ इति) इन दोनों ही प्रकारों के जीव देखे जाते हैं। और वे दोनों ( प्लषी ) काटने पर भिन्न २ प्रकार से दाहकारी होते हैं । वे जीव (अदृष्टाः) प्रायः देखने में नहीं आते तो भी ( नि अलिप्सत ) वे छुपे रूप से अपने शिकार को पकड़ते हैं और काट लेते हैं। डांस आदि उड़ने और फुदकने वाले जानवर और जल के समान तरल वा कुटिल गति से जाने या सरकने वाले सांप गोह आदि विषैले जन्तु छुपे ही रहते हैं, वे काट भी लेते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विष नष्ट करणारी औषधी, विष नष्ट करणारे जीव व विष नाहीसे करणाऱ्या वैद्याचे गुण वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चंचल लोक अध्यापक व उपदेशक यांचा संग प्राप्त करूनही चंचल असतात, तसे अदृष्ट छोटे छोटे विषाणू, ढेकूण, डास इत्यादी क्षुद्र जीवांचे वारंवार निवारण करूनही पुन्हा पुन्हा जवळ येतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The poisonous as well as the slithering, and the essentially poisonous as well as the slightly poisonous, both bite and burn, and yet they both sprinkle and anoint as antidotes too, and both smear, bite and bum unseen, and they harbour the unseen.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The treatment of poison and its doctors is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    There are some creatures of mild (poison) while others of strong venom. Some are aquatic (living in water), some reptiles snakes and some are insects, but they all are either destructive of life or create burning in the body. The anoint with their poison, we should have fully knowledge about them, so that proper treatment may be resorted to.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As an unsteady man goes hither and thither, even after getting good teachers and preachers, in the same way some subtle poisonous creatures and insects attack the body, and escape from them sometimes becomes a problem.

    Foot Notes

    (कङ्कतः ) विषवान् = Poisonous. चञ्चल:= Unsteady. (सतीन कङ्कत: ) सतीनमिव चञ्चलः | सतीनमित्युदक नाम सुपठितम् (NG. 1.12) (प्लुषी) दाहकौ दुःखप्रदौ । प्लुष – स्नेहनसेचनपूरणेषु (क्रयादिः) | धातूनामनेकार्थत्वादन प्रकरणवशाद् दाहार्थग्रहणम् = Burning and causing pain.

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