Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 20 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - ऋभवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं दे॒वाय॒ जन्म॑ने॒ स्तोमो॒ विप्रे॑भिरास॒या। अका॑रि रत्न॒धात॑मः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । दे॒वाय॑ । जन्म॑ने । स्तोमः॑ । विप्रे॑भिः । आ॒स॒या । अका॑रि । र॒त्न॒ऽधात॑मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया। अकारि रत्नधातमः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। देवाय। जन्मने। स्तोमः। विप्रेभिः। आसया। अकारि। रत्नऽधातमः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र पूर्वमृभुस्तुतिः प्रकाश्यते।

    अन्वयः

    ऋभुभिर्विप्रेभिरासया देवाय जन्मने यादृशो रत्नधातमोऽयँ स्तोमोऽकारि क्रियते स तादृशजन्मभोगकारी जायते॥१॥

    पदार्थः

    (अयम्) विद्याविचारेण प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानः (देवाय) दिव्यगुणभोगयुक्ताय (जन्मने) वर्त्तमानदेहोपयोगाय पुनः शरीरधारणेन प्रादुर्भावाय वा (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (विप्रेभिः) मेधाविभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिसः स्थान ऐसभावः। (आसया) मुखेन। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यास्यशब्दस्य यलोपः। सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्याजादेशश्च। (अकारि) क्रियते। अत्र लडर्थे लुङ्। (रत्नधातमः) रत्नानि रमणीयानि सुखानि दधाति येन सोऽतिशयितः॥१॥

    भावार्थः

    अत्र पुनर्जन्मविधानं विज्ञेयम्। मनुष्यैर्यादृशानि कर्माणि क्रियन्ते तादृशानि जन्मानि भोगाश्च प्राप्यन्ते॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब दूसरे अध्याय का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में ऋभु की स्तुति का प्रकाश किया है।

    पदार्थ

    (विप्रेभिः) ऋभु अर्थात् बुद्धिमान् विद्वान् लोग (आसया) अपने मुख से (देवाय) अच्छे-अच्छे गुणों के भोगों से युक्त (जन्मने) दूसरे जन्म के लिये (रत्नधातमः) रमणीय अर्थात् अतिसुन्दरता से सुखों की दिलानेवाली जैसी (अयम्) विद्या के विचार से प्रत्यक्ष की हुई परमेश्वर की (स्तोमः) स्तुति है, वह वैसे जन्म के भोग करनेवाली होती है॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पुनर्जन्म का विधान जानना चाहिये। मनुष्य जैसे कर्म किया करते हैं, वैसे ही जन्म और भोग उनको प्राप्त होते हैं॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब दूसरे अध्याय का प्रारम्भ है। उसके पहले मन्त्र में ऋभु की स्तुति का प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ऋभुभिः विप्रेभिः आसया देवाय जन्मने यादृशः रत्नधातमःअयं  स्तोमः अकारि क्रियते स तादृशानि जन्मभोगकारी जायते॥१॥

    पदार्थ

    (ऋभुभिः) [(विप्रेभिः) मेधाविभिः]=प्रशस्त विद्वानों के द्वारा (आसया) मुखेन=मुख से, (देवाय) दिव्यगुणभोगयुक्ताय=जो दिव्य गुणों से भोग किये हुए हैं, उनके लिये, (जन्मने) वर्त्तमानदेहोपयोगाय पुनः शरीरधारणेन प्रादुर्भावाय वा=वर्त्तमान देह के उपयोग हो जाने पर पुनः शरीर धारण करने, यादृशः=जैसा,  (रत्नधातमः) रत्नानि रमणीयानि सुखानि दधाति येन सोऽतिशयितः=रत्नों के द्वारा रममीय अतिशय सुखों को देने वाला, (अयम्) विद्याविचारेण प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानः=विद्या के विचार से परमेश्वर को प्रत्यक्ष करने वाले (स्तोमः) स्तुतिसमूहः=स्तुतियों के समूह  (अकारि) क्रियते=करते हैं, (स)=वह, (तादृशानि)=उस प्रकार से,  (जन्मभोगकारी)=जन्म के भोग करने वाले (जायते)=होते हैं॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

     इस मन्त्र में पुनर्जन्म का विधान जानना चाहिये। मनुष्य जैसे कर्म किया करते हैं, वैसे ही जन्म और भोग उनको प्राप्त होते हैं॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ऋभुभिः) प्रशस्त विद्वानों के द्वारा (आसया) मुख से (देवाय) जो दिव्य गुणों से भोग किये हुए हैं, उनके लिये (जन्मने) वर्त्तमान देह के उपयोग हो जाने पर पुनः शरीर धारण करने (यादृशः) जैसा और (रत्नधातमः) रत्नों के द्वारा रमणीय और अतिशय सुखों को देने वाले (अयम्) विद्या के विचार से परमेश्वर को प्रत्यक्ष करने वाली (स्तोमः) स्तुतियों के समूह का जो गान (अकारि) करते हैं, (स) वह स्तुतियां (तादृशानि) उस प्रकार से  (जन्मभोगकारी) जन्म के भोग करने वाली (जायते) होते हैं॥१॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अयम्) विद्याविचारेण प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानः (देवाय) दिव्यगुणभोगयुक्ताय (जन्मने) वर्त्तमानदेहोपयोगाय पुनः शरीरधारणेन प्रादुर्भावाय वा (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (विप्रेभिः) मेधाविभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिसः स्थान ऐसभावः। (आसया) मुखेन। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यास्यशब्दस्य यलोपः। सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्याजादेशश्च। (अकारि) क्रियते। अत्र लडर्थे लुङ्। (रत्नधातमः) रत्नानि रमणीयानि सुखानि दधाति येन सोऽतिशयितः॥१॥
    विषयः- तत्र पूर्वमृभुस्तुतिः प्रकाश्यते।

    अन्वयः- ऋभुभिर्विप्रेभिरासया देवाय जन्मने यादृशो रत्नधातमोऽयँ स्तोमोऽकारि क्रियते स तादृशजन्मभोगकारी जायते॥१॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र पुनर्जन्मविधानं विज्ञेयम्। मनुष्यैर्यादृशानि कर्माणि क्रियन्ते तादृशानि जन्मानि भोगाश्च प्राप्यन्ते॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    रत्नधातम स्तोम

    पदार्थ

    १. इस सूक्त का देवता 'ऋभवः' हैं । "ऋभु' शब्द का अर्थ यास्क इस रूप में करते हैं कि "उरु भान्ति , ऋतेन भान्ति , ऋतेन भवन्तीति वा" [नि० ११/१५/२] खूब देदीप्यमान होते हैं , ऋत - सत्य से चमकते हैं अथवा सदा ऋत - व्यवस्था से चलते हैं , सब कामों को ठीक समय व स्थान पर करते हैं । वस्तुतः इसीलिए ये अपने जीवन को दिव्य बना पाते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि ' ऋभवो हि मनुष्याः सन्तः तपसा देवत्वं प्राप्ताः' - ये मनुष्य होते हुए भी तप से देवत्व को प्राप्त हुए हैं । 

    २. मन्त्र में कहते हैं कि (विप्रेभिः) - विशेष रूप से अपना पूर्ण करने की कामनावाले इन पुरुषों से (देवाय जन्मने) - दिव्य जन्म की प्राप्ति के लिए , जीवन को दिव्य बनाने के लिए (आसया) - मुख से (अयम् स्तोमः) - यह प्रभु का स्तवन (अकारि) - किया जाता है । ये सदा प्रभु का स्तवन करते हैं । यह स्तवन ही तो इनके सामने जीवन के लक्ष्य को उपस्थित करता है , जिसकी ओर निरन्तर बढ़ते हुए ये अपने जीवन में कमी नहीं आने देते और ऊँचा उठते जाते हैं । 

    ३. यह सोम (रत्नधातमः) - इनके जीवन में रमणीयतम तत्त्वों को धारण करनेवाला होता है , इनके जीवन को बड़ा ही सुन्दर बना देता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - विप्र लोग मुख से प्रभु के गुणों का उच्चारण करते हैं । यह गुणगायन उनके जीवन को दिव्य बनाता है । उनमें रमणीयतम तत्त्वों को धारण कराता है । ये लोग मनुष्य से देव बन जाते हैं । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऋभुगण, विद्वान ज्ञानी ईश्वरोपासक जन ।

    भावार्थ

    ( विप्रेभिः ) बुद्धिमान् पुरुष ( आसया ) अपने मुख से ( देवाय ) दिव्य, उत्तम गुणों से युक्त ( जन्मने ) जन्म, इस देह रचना, एवं पुनर्जन्म ग्रहण के निमित्त ( रत्नधातमः ) उत्तम २ रमण योग्य सुखों के देने वाले ( अयम् ) इस प्रकार के ( स्तोमः ) स्तुति समूह को ( अकारि ) करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—८ मेधातिथि: काणव ऋषिः ॥ देवता—ऋभवः ॥ छन्दः—३ विराड् गायत्री । ४ निचृद्गायत्री । ५,८ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री ॥ १, २, ६, ७ गायत्री ॥ षड्जः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    एकोणिसाव्या सूक्तात सांगितलेल्या पदार्थांचा उपयोग करून घेण्यासाठी बुद्धिमानच समर्थ असतात. या अभिप्रायाने या विसाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती मागच्या एकोणिसाव्या सूक्ताबरोबर जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात पुनर्जन्माचे विधान केलेले आहे, हे जाणले पाहिजे. माणसे जसे कर्म करतात तसेच जन्म व भोग त्यांना प्राप्त होतात. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    This song of celebrity full of divine treasure of joy sung by sagely poets in their own voice leads to a new birth full of divine happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now, in the beginning of the hymn, the praise of ṛbhu (excellent scholar) has been elucidated in its first mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ṛbhubhiḥ)=by excellent scholars, (āsayā)=by speech, (devāya)=those who have utilised with divine virtues, After having lived full life in present body, (janmane)=having rebirth again in another body. (yādṛśaḥ)=as, (ratnadhātamaḥ)=providers of pleasance and excessive delights by gems, (ayam)=From the point of view of knowledge, discerning God, (stomaḥ)=chanting of groups of hymns of Vedas, (akāri)=sing, (sa)=those groups of hymns of Vedas, (tādṛśāni)=in that way, (janmabhogakārī)=utilizing the birth, (jāyate)=occur.

    English Translation (K.K.V.)

    Those, who have utilized with divine virtues and by speech of excellent scholars, after having lived full life in the present body and having rebirth again in another body. As providers of pleasance and excessive delights by gems and from the point of view of knowledge, discerning God, chanting the groups of hymns of Vedas, sing; those groups of hymns of Vedas occur, in the same way, there are those who enjoy birth.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The law of reincarnation should be known in this mantra. As human beings do deeds, so do they receive birth and delights.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The glory of the Ribhus is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Whatever kind of praise or song (to God) and enlightened persons) which gives charming happiness is made by wise men with their mouths for divine birth and enjoyment, becomes the giver of the same kind of delight and enjoyment (in the next life.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विप्रेभिः) मेधाविभिः विप्र इति मेधाविनाम ( निघo ३.१५) By wise men. (देवाय जन्मने) दिव्यगुणभोगयुक्ताय वर्तमानदेहोपयोगाय पुनः शरीरधारणेन प्रादुर्भावाय वा = For the divine enjoyment in this life and birth in the next. (रत्नधातमः ) रत्नानि रमणीयानि सुखानि दधाति सोऽतिशयितः ।।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In this Mantra, the doctrine of Re-birth is enunciated. Whatever kinds of actions are performed by men, they get the same kinds of birth and enjoyment in the next.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top