ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
ती॒व्राः सोमा॑स॒ आ ग॑ह्या॒शीर्व॑न्तः सु॒ता इ॒मे। वायो॒ तान्प्रस्थि॑तान्पिब॥
स्वर सहित पद पाठती॒व्राः । सोमा॑सः । आ । ग॒हि॒ । आ॒शीःऽव॑न्तः । सु॒ताः । इ॒मे । वायो॒ इति॑ । तान् । प्रऽस्थि॑तान् । पि॒ब॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे। वायो तान्प्रस्थितान्पिब॥
स्वर रहित पद पाठतीव्राः। सोमासः। आ। गहि। आशीःऽवन्तः। सुताः। इमे। वायो इति। तान्। प्रऽस्थितान्। पिब॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादिमेन वायुगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
य इमे तीव्रा आशीर्वन्तः सुताः सोमासः सन्ति तान् वायुरागहि समन्तात् प्राप्नोत्ययमेव तान् प्रस्थितान् पिबान्तःकरोति॥१॥
पदार्थः
(तीव्राः) तीक्ष्णवेगाः (सोमासः) सूयन्त उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः। अत्र अर्तिस्तुसुहुसृ० (उणा०१.१४०) अनेन षु धातोर्मन् प्रत्ययः। आज्जसरेसुग् इत्यसुक् च। (आ) सर्वतोऽर्थे (गहि) प्राप्नोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (आशीर्वन्तः) आशिषः प्रशस्ताः कामना भवन्ति येषां ते। अत्र शास इत्वे आशासः क्वावुपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०६.४.३४) अनेन वार्त्तिकेनाशीरिति सिद्धम्। ततः प्रशंसार्थे मतुप्। छन्दसीर इति वत्वञ्च। सायणाचार्येण ‘श्रीञ् पाके’ इत्यस्मादिदं पदं साधितं तदिदं भाष्यविरोधादशुद्धमस्तीति बोध्यम्। (सुताः) उत्पन्नाः (इमे) प्रत्यक्षा अप्रत्यक्षाः (वायो) पवनः (तान्) सर्वान् (प्रस्थितान्) इतस्ततश्चलितान् (पिब) पिबत्यन्तःकरोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥१॥
भावार्थः
प्राणिनो यान् प्राप्तुमिच्छन्ति यान् प्राप्ता सन्त आशीर्वन्तो भवन्ति, तान् सर्वान् वायुरेव प्रापय्य स्वस्थान् करोति, येषु पदार्थेषु तीक्ष्णाः कोमलाश्च गुणाः सन्ति, तान् यथावद्विज्ञाय मनुष्या उपयोगं गृह्णीयुरिति॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब तेईसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके पहिले मन्त्र में वायु के गुण प्रकाशित किये हैं-
पदार्थ
जो (इमे) (तीव्राः) तीक्ष्णवेगयुक्त (आशीर्वन्तः) जिनकी कामना प्रशंसनीय होती है (सुताः) उत्पन्न हो चुके वा (सोमासः) प्रत्यक्ष में होते हैं (तान्) उन सबों को (वायो) पवन (आगहि) सर्वथा प्राप्त होता है तथा यही उन (प्रस्थितान्) इधर-उधर अति सूक्ष्मरूप से चलायमानों को (पिब) अपने भीतर कर लेता है, जो इस मन्त्र में आशीर्वन्तः इस पद को सायणाचार्य ने श्रीञ् पाके इस धातु का सिद्ध किया है, सो भाष्यकार की व्याख्या से विरुद्ध होने से अशुद्ध ही है।
भावार्थ
प्राणी जिनको प्राप्त होने की इच्छा करते और जिनके मिलने में श्रद्धालु होते हैं, उन सबों को पवन ही प्राप्त करके यथावत् स्थिर करता है, इससे जिन पदार्थों के तीक्ष्ण वा कोमल गुण हैं, उन को यथावत् जानके मनुष्य लोग उन से उपकार लेवें॥१॥
विषय
अब तेईसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके पहले मन्त्र में वायु के गुण प्रकाशित किये हैं।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
य इमे तीव्रा आशीर्वन्तः सुताः सोमासः सन्ति तान् वायुः आगहि समन्तात् प्राप्नोति अयम् एव तान् प्रस्थितान् पिब अन्तः करोति॥१॥
पदार्थ
(यः)=जो, (इमे) प्रत्यक्षा= प्रत्यक्ष में, (तीव्राः) तीक्ष्णवेगाः=तीक्ष्ण वेगयुक्त, (आशीर्वन्तः) आशिषः प्रशस्ताः कामना भवन्ति येषां ते=जिनकी कामना प्रशंसनीय होती है, (सोमासः) सूयन्त उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः= वे पदार्थ जो उत्पन्न होते, (सन्ति)=हैं, (तान्)=उन सभी को, (वायो) पवनः=पवन, (आ) सर्वतोऽर्थे=सबके लिये , (गहि) प्राप्नोति= प्राप्त होता है, (अयम्)=यह, (एव)=ही, (तान्) सर्वान्=उन सबको, (प्रस्थितान्) इतस्ततश्चलितान्= इधर-उधर चलायमान को, (पिब) पिबत्यन्तःकरोति=अपने भीतर कर लेता है॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
प्राणी जिनको प्राप्त करने की इच्छा करते और जिनके प्राप्त करने में आशीर्वाद वाले होते हैं, उन सबों को पवन ही प्राप्त करके अपने स्थान पर स्थिर करता है। जिन पदार्थों के तीक्ष्ण और कोमल गुण हैं, उन को यथावत् जानके मनुष्य लोग उन से उपकार लेवें॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) जो (इमे) इन प्रत्यक्ष में (तीव्राः) तीक्ष्णवेगयुक्त (आशीर्वन्तः) जिनकी कामना प्रशंसनीय होती है (सोमासः) वे पदार्थ जो उत्पन्न होते (सन्ति) हैं। (तान्) उन सभी को (वायो) पवन, (आ) सबके लिये (गहि) प्राप्त होता है। (अयम्) यह वायु (एव) ही (तान्) उन सबको (प्रस्थितान्) इधर-उधर चलायमान को (पिब) अपने भीतर कर लेता है॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तीव्राः) तीक्ष्णवेगाः (सोमासः) सूयन्त उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः। अत्र अर्तिस्तुसुहुसृ० (उणा०१.१४०) अनेन षु धातोर्मन् प्रत्ययः। आज्जसरेसुग् इत्यसुक् च। (आ) सर्वतोऽर्थे (गहि) प्राप्नोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (आशीर्वन्तः) आशिषः प्रशस्ताः कामना भवन्ति येषां ते। अत्र शास इत्वे आशासः क्वावुपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०६.४.३४) अनेन वार्त्तिकेनाशीरिति सिद्धम्। ततः प्रशंसार्थे मतुप्। छन्दसीर इति वत्वञ्च। सायणाचार्येण 'श्रीञ् पाके' इत्यस्मादिदं पदं साधितं तदिदं भाष्यविरोधादशुद्धमस्तीति बोध्यम्। (सुताः) उत्पन्नाः (इमे) प्रत्यक्षा अप्रत्यक्षाः (वायो) पवनः (तान्) सर्वान् (प्रस्थितान्) इतस्ततश्चलितान् (पिब) पिबत्यन्तःकरोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥१॥
विषयः- तत्रादिमेन वायुगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- य इमे तीव्रा आशीर्वन्तः सुताः सोमासः सन्ति तान् वायुरागहि समन्तात् प्राप्नोत्ययमेव तान् प्रस्थितान् पिबान्तःकरोति॥१॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- प्राणिनो यान् प्राप्तुमिच्छन्ति यान् प्राप्ता सन्त आशीर्वन्तो भवन्ति, तान् सर्वान् वायुरेव प्रापय्य स्वस्थान् करोति, येषु पदार्थेषु तीक्ष्णाः कोमलाश्च गुणाः सन्ति, तान् यथावद्विज्ञाय मनुष्या उपयोगं गृह्णीयुरिति॥१॥
विषय
वायु का सोमपान
पदार्थ
१. यहाँ जीव को "वायो" कहकर सम्बोधित किया गया है । [वा गतिगन्धनयोः] हे गति व क्रियाशीलता के द्वारा सब बुराइयों का संहार करनेवाले जीव ! (सोमासः) - ये शरीर में उत्पन्न होनेवाले सोम - [वीर्य] - कण (तीव्राः) - बड़े तीव्र और तेजस्विता को देनेवाले हैं । (आगहि) - तू इन्हें सर्वथा ग्रहण करनेवाला बन ।
२. (सुताः) - शरीर में उत्पन्न हुए - हुए (इमे) - ये सोमकण (आशीर्वन्तः) - इच्छाओंवाले हैं [आशीः - इच्छा] । ये सोमकण हमारी सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं ।
३. प्राणादि की साधना के द्वारा (प्रस्थितान्) - प्रकृष्ट मार्ग की ओर चलते हुए [उत्तरवेदिं प्रति आनीतात् - सा०] शरीर में मस्तिष्क ही उत्तरवेदी है । मस्तिष्क की ओर लाये हुए (तान्) - उन सोमकणों को हे (वायो) - जीव ! तू (पिब) - पीनेवाला बन । प्राणसाधना से इन रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती है । यही सोम का प्रस्थान है । इन सोमकणों को जब हम शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करते हैं तब ये हमारी सब ऐहिक और आमुष्मिक कामनाओं को पूर्ण करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - सोमकण तेजस्विता को देनेवाले हैं , सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं । इनका पान वही कर पाता है जो 'वायु' बनता है - गति के द्वारा सब बुराइयों का संहार करता है ।
विषय
सोम, जीवगण, वीरजन विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (वायो) ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! ( इमे ) ये ( सुताः ) उत्पन्न हुए ( आशीर्वन्तः ) नाना प्रकार की उत्तम कामना और आशाओं वाले ( तीव्राः ) तीव्र, वेग से जाने वाले, देह से देहान्तर में गति करने वाले ( सोमासः ) जीवगण हैं । तू (आगहि ) आ, दर्शन दे और ( तान् ) उन समस्त जीवों ( प्रस्थितान् ) प्रस्थान करने वाले, तेरी तरफ़ आने वाले मुक्ति के अभिलाषियों को ( पिब ) अपने भीतर ले, अपनी शरण में ले। वीरों के पक्ष में—वे तीव्र वेगवाले ( सुता: ) अभिषिक्त, प्रोक्षित, या दीक्षित वीरजन हैं विजय के लिए प्रस्थित उनको तू प्राप्त हो और अपनी शरण में ले। इसी प्रकार आचार्य दीक्षित कर तीव्र बुद्धि वाले शिष्यों को लेबे । वायुपक्ष में—उत्तम कामनाओं को पूर्ण करनेवाले, तीक्ष्ण वेगवाले अस्थिर जलों को वायु पान करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
पूर्व सूक्तात सांगितलेल्या अश्वी इत्यादी पदार्थांचे अनुषंगी वायू इत्यादी जे पदार्थ आहेत, त्यांच्या वर्णनाने मागील बाविसाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर या तेविसाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
प्राणी ज्या पदार्थांना प्राप्त करण्याची इच्छा करतात व जे मिळाल्यावर आशीर्वाद देतात, त्या सर्वांना वायूच स्वस्थ ठेवतो. त्यासाठी ज्या पदार्थांचे तीक्ष्ण किंवा कोमल गुण असतात त्यांना यथायोग्य जाणून माणसांनी त्यांचा उपयोग करून घ्यावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Sharp and lovely tonics are these somas, distilled essences of herbs. Vayu, vitality of the winds, take them on as they flow and energise them as food for the mind and soul.
Subject of the mantra
Now, at the start of twenty third hymn, in its first mantra qualities of air have been enunciated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ)=which, (ime)=these evidently, (tīvrāḥ)=fast paced, (āśīrvantaḥ)=whose wishes are commendable, (somāsaḥ)=the substances that are produced, (santi)=are, (tān)=all those, (vāyo)=air, (ā)=for the sake of all, (gahi)=gets obtained, (ayam)=this, (eva)=only, (tān)=to all those, (prasthitān)=those moving here and there, (piba)=inhales within itself.
English Translation (K.K.V.)
Which of these evidently, fast paced, whose wishes are commendable are the substances that are produced. To all those, air gets obtained for the sake of all. This air only, inhales within itself those all moving here and there.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Living beings who desire to attain and who are blessed in attaining, the air receives all of them and fixes them on his ground. The substances which have sharp and soft qualities, knowing them as they are, human beings should take help from them.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the first Mantra of this hymn the attributes of Vayu are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
These sharp and desirable substances are present here. it is the Vayu (wind) that covers them from all sides and it is again the wind that takes them in, when they move.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सोमास:) सूयन्ते उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः । अत्र अर्तिस्तु सुहृ (उणादि० १.१३९) अनेन षु-प्रसवश्वर्ययोः इति धातोर्मन् प्रत्ययः । आज्जसेर सुक् इत्यसुक्च (आगहि) सर्वतः प्राप्नोति । अत्र व्यत्ययो लड्थें लोट् । बहुलं छन्दसीति शपो लुक्च | (आशीर्वन्तः ) आशिष : प्रशस्ताः कामना भवन्ति येषां ते । अत्र शास इत्वे आशास:क्वावुपसंख्यानम् || (अष्टा० ६.४.३४ ) अनेन वार्तिकेनाशीरिति सिद्धम् । = desirable. (प्रस्थितान ) इतस्तत: चलितान् । = moving hither and thither.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the Vayu (wind) that makes all substances which are desired by all and by attaining which they consider themselves to be lucky, givers of health. Men should know well the attributes whether sharp or mild of all objects and then take proper benefit from them.
Translator's Notes
विप्रास इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५ ) विपन्यवः is derived from पन व्यवहारे स्तुतौ च Here it is the praisers of God-devotees. So according to this Mantra, it is by the combination of knowledge, devotion and action that it is possible to attain God.
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