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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अश्वि॑ना॒ यज्व॑री॒रिषो॒ द्रव॑त्पाणी॒ शुभ॑स्पती। पुरु॑भुजा चन॒स्यत॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । यज्व॑रीः । इषः॑ । द्रव॑त्पाणी॒ इति॒ द्रव॑त्ऽपाणी । शुभः॑ । प॒ती॒ इति॑ । पुरु॑ऽभुजा । च॒न॒स्यत॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। यज्वरीः। इषः। द्रवत्पाणी इति द्रवत्ऽपाणी। शुभः। पती इति। पुरुऽभुजा। चनस्यतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादावश्विनावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! युष्माभिर्द्रवत्पाणी शुभस्पती पुरुभुजावश्विनौ यज्वरीरिषश्च चनस्यतम्॥१॥

    पदार्थः

    (अश्विना) जलाग्नी। अत्र सुपामित्याकारादेशः। या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑। अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे॥ (ऋ०१.२२.२) न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः। (ऋ०१.२२.४) वयं यौ सुरथौ शोभना रथा सिद्ध्यन्ति याभ्यां तौ, रथीतमा भूयांसो रथा विद्यन्ते ययोस्तौ रथी, अतिशयेन रथी रथीतमौ देवौ शिल्पविद्यायां दिव्यगुणप्रकाशकौ, दिविस्पृशा विमानादियानैः सूर्य्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्षे मनुष्यादीन् स्पर्शयन्तौ, उभा उभौ ता तौ हवामहे गृह्णीमः॥१॥ यत्र मनुष्या वां तयोरश्विनोः साधियित्वा चलितयोः सम्बन्धयुक्तेन रथेन हि यतो गच्छन्ति तत्र सोमिनः सोमविद्यासम्पादिनो गृहं विद्याधिकरणं दूरं नैव भवतीति यावत्॥२॥ अथातो द्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ भवतोऽश्विनौ यद्ध्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषाऽन्योऽश्वैरश्विनावित्यौर्णवाभस्तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येकेऽहोरात्रावित्येके सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके ........हि मध्यमो ज्योतिर्भाग आदित्यः। (निरु०१२.१)। तथाऽश्विनौ चापि भर्त्तारौ जर्भरी भर्त्तारावित्यर्थस्तुर्फरीतु हन्तारौ। (निरु०१३.५। तयोः काल ऊर्ध्वमर्द्धरात्रात् प्रकाशीभावस्यानुविष्टम्भमनु तमो भागः। (निरु०१२.१)(अथातो०) अत्र द्युस्थानोक्तत्वात् प्रकाशस्थाः प्रकाशयुक्ताः सूर्य्याग्निविद्युदादयो गृह्यन्ते, तत्र यावश्विनौ द्वौ द्वौ सम्प्रयुज्येते यौ च सर्वेषां पदार्थानां मध्ये गमनशीलौ भवतः। तयोर्मध्यादस्मिन् मन्त्रेऽश्विशब्देनाग्निजले गृह्येते। कुतः? यद्यस्माज्जलमश्वैः स्वकीयवेगादिगुणै रसेन सर्वं जगद्व्यश्नुते व्याप्तवदस्ति। तथाऽन्योऽग्निः स्वकीयैः प्रकाशवेगादिभिरश्वैः सर्वं जगद्व्यश्नुते तस्मादग्निजलयोरश्विसंज्ञा जायते। तथैव स्वकीयस्वकीयगुणैर्द्यावापृथिव्यादीनां द्वन्द्वानामप्यश्विसंज्ञा भवतीति विज्ञेयम्। शिल्पविद्याव्यवहारे यानादिषु युक्त्या योजितौ सर्वकलायन्त्रयानधारकौ यन्त्रकलाभिस्ताडितौ चेत्तदाहननेन गमयितारौ च तुर्फरीशब्देन यानेषु शीघ्रं वेगादिगुणप्रापयितारौ भवतः। अश्विनाविति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेनापि गमनप्राप्तिनिमित्ते अश्विनौ गृह्येते। (यज्वरीः) शिल्पविद्यासम्पादनहेतून् (इषः) विद्यासिद्धये या इष्यन्ते ताः क्रियाः (द्रवत्पाणी) द्रवच्छीघ्रवेगनिमित्ते पाणी पदार्थविद्याव्यवहारा ययोस्तौ (शुभस्पती) शुभस्य शिल्पकार्य्यप्रकाशस्य पालकौ। ‘शुभ शुंभ दीप्तौ’ एतस्य रूपमिदम्। (पुरुभुजा) पुरूणि बहूनि भुञ्जि भोक्तव्यानि वस्तूनि याभ्यां तौ। पुर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) भुगिति क्विप्प्रत्ययान्तः प्रयोगः। सम्पदादिभ्यः क्विप्। रोगाख्यायां। (अष्टा०३.३.१०८) इत्यस्य व्याख्याने। (चनस्यतम्) अन्नवदेतौ सेव्येताम्। चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययान्ताच्चनस्शब्दात् क्यच्प्रत्ययान्तस्य नामधातोर्लोटि मध्यमस्य द्विवचनेऽयं प्रयोगः॥१॥

    भावार्थः

    अत्रेश्वरः शिल्पविद्यासाधनमुपदिशति। यतो मनुष्याः कलायन्त्ररचनेन विमानादियानानि सम्यक् साधयित्वा जगति स्वोपकारपरोपकारनिष्पादनेन सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयुः॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब तृतीय सूक्त का प्रारम्भ करते हैं। इसके आदि के मन्त्र में अग्नि और जल को अश्वि नाम से लिया है-

    पदार्थ

    हे विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो ! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहारसिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खाने-पीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतु (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देनेवाली कारीगरी की क्रियाओं को (चनस्यतम्) अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो। अब अश्विनौ शब्द के विषय में निरुक्त आदि के प्रमाण दिखलाते हैं-(या सुरथा) हम लोग अच्छी अच्छी सवारियों को सिद्ध करने के लिये (अश्विना) पूर्वोक्त जल और अग्नि को, कि जिनके गुणों से अनेक सवारियों की सिद्धि होती है, तथा (देवा) जो कि शिल्पविद्या में अच्छे-अच्छे गुणों के प्रकाशक और (दिविस्पृशा) सूर्य्य के प्रकाश से युक्त अन्तरिक्ष में विमान आदि सवारियों से मनुष्यों को पहुँचानेवाले होते हैं, (ता) उन दोनों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ग्रहण करते हैं। (न हि वामस्ति) मनुष्य लोग जहाँ-जहाँ साधे हुए अग्नि और जल के सम्बन्धयुक्त रथों से जाते हैं, वहाँ सोमविद्यावाले विद्वानों का विद्याप्रकाश निकट ही है। (अथा०) इस निरुक्त में जो कि द्युस्थान शब्द है, उससे प्रकाश में रहनेवाले और प्रकाश से युक्त सूर्य्य अग्नि जल और पृथिवी आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, उन पदार्थों में दो-दो के योग को अश्वि कहते हैं, वे सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाले हैं, उनमें से यहाँ अश्वि शब्द करके अग्नि और जल का ग्रहण करना ठीक है, क्योंकि जल अपने वेगादि गुण और रस से तथा अग्नि अपने प्रकाश और वेगादि अश्वों से सब जगत् को व्याप्त होता है। इसी से अग्नि और जल का अश्वि नाम है। इसी प्रकार अपने-अपने गुणों से पृथिवी आदि भी दो-दो पदार्थ मिलकर अश्वि कहाते हैं। (तथाऽश्विनौ) जबकि पूर्वोक्त अश्वि धारण और हनन करने के लिये शिल्पविद्या के व्यवहारों अर्थात् कारीगरियों के निमित्त विमान आदि सवारियों में जोड़े जाते हैं, तब सब कलाओं के साथ उन सवारियों के धारण करनेवाले, तथा जब उक्त कलाओं से ताड़ित अर्थात् चलाये जाते हैं, तब अपने चलने से उन सवारियों को चलानेवाले होते हैं, उन अश्वियों को तुर्फरी भी कहते हैं, क्योकि तुर्फरी शब्द के अर्थ से वे सवारियों में वेगादि गुणों के देनेवाले समझे जाते हैं। इस प्रकार वे अश्वि कलाघरों में संयुक्त किये हुए जल से परिपूर्ण देखने योग्य महासागर हैं। उनमें अच्छी प्रकार जाने-आने वाली नौका अर्थात् जहाज आदि सवारियों में जो मनुष्य स्थित होते हैं, उनके जाने-आने के लिये होते हैं॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या को सिद्ध करने का उपदेश किया है, जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त सवारियों को बनाकर संसार में अपना तथा अन्य लोगों के उपकार से सब सुख पावें॥१॥

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    विषय

    द्रवत्पाणी - शुभस्पती

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! आप (यज्वरीः) - मुझे यज्ञशील बनानेवाले , सात्त्विक (इषः) - अन्नों को (चनस्यतम्) - खाने की इच्छा करो । सात्त्विक अन्नों के सेवन से ही बुद्धि सात्त्विक बनेगी । सात्त्विक बुद्धि के होने पर ही हमारा जीवन यज्ञशील होगा ।

    २. इन सात्विक अन्नों के सेवन से सात्विक होने पर ये हमारे प्राणापान (द्रवत्पाणी) - गतिशील हाथोंवाले हों , अर्थात् हमारा जीवन क्रियाशील हो , अकर्मण्यता से हम दूर रहें । उस क्रियाशील जीवन में हम (शुभस्पती) - सदा शुभकर्मों के पति बनें । हमारी क्रियाशीलता शुभ कर्मों में प्रकट हो । क्रियाशीलता का अभिप्राय चपलता व दुष्टता न हो । (पुरुभुजा) - हम बहुतों का पालन करनेवाले बनें । शुभ का अभिप्राय यही तो है कि वह कार्य अधिक-से-अधिक लोगों का पालन करनेवाला हो । "यद् भूतहितमत्यन्तं तत् सत्यमिति धारणा" = अधिक-से-अधिक लोगों का जिससे हित हो , वही सत्य है , वही शुभ है ।

    ३. प्राणापान को 'अश्विना' शब्द से स्मरण इसलिए किया गया है कि ये 'न श्वः' - यह निश्चित नहीं कि ये कल भी रहेंगे , अथवा 'अश् व्याप्तौ' ये क्रिया में व्याप्त रहते हैं । इन्हीं के कारण भूख लगती है , अतः मन्त्र में कहा है कि तुम्हें सात्विक अन्नों की ही कामना करनी है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे प्राणापान सात्त्विक अन्नों का ही सेवन करें ताकि हम क्रियाशील बनें , शुभकर्म करें , बहुतों का पालन करनेवाले कार्यों को ही करें ।

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    विषय

    अब तृतीय सूक्त का प्रारम्भ करते हैं। इसके आदि के मन्त्र में अग्नि और जल को अश्वि नाम से लिया है-

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः ! युष्माभिः द्रवत्पाणी शुभस्पती पुरुभुजौ अवश्विनौ यज्वरी इषः च चनस्यतम्॥१॥

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः) = विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो ! (युष्माभिः)= तुम लोगों के द्वारा, (द्रवत्पाणी) द्रवच्छीघ्रवेगनिमित्ते पाणी पदार्थविद्याव्यवहारा ययोस्तौ= शीघ्र वेग के निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहारसिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभस्य शिल्पकार्य्यप्रकाशस्य पालकौ= शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) पुरूणि बहूनि भुञ्जि भोक्तव्यानि वस्तूनि याभ्यां तौ= अनेक खाने-पीने के पदार्थों से युक्त, (अश्विना) जलाग्नी= जल और अग्नि तथा, (यज्वरीः) शिल्पविद्यासम्पादनहेतून्= शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली, (इषः) विद्यासिद्धये या इष्यन्ते ताः क्रियाः= अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देनेवाली कारीगरी की क्रियाओं को, (च)= भी, (चनस्यतम्) अन्नवदेतौ सेव्येताम्= अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या के साधनों का का उपदेश किया है। जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त यन्त्रों को बनाकर विमान आदि यान अच्छी तरह से बनाकर संसार में अपने तथा अन्य लोगों के उपकार करके सब सुख प्राप्त करायें॥१॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसः) विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो ! (युष्माभिः) तुम लोगों के द्वारा (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग के निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहार की सिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खाने-पीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतु, (अश्विना) जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली, (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देनेवाली कारीगरी की क्रियाओं को (च) भी (चनस्यतम्) अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अश्विना) जलाग्नी। अत्र सुपामित्याकारादेशः। या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑। अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे॥ (ऋ०१.२२.२) न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः। (ऋ०१.२२.४) वयं यौ सुरथौ शोभना रथा सिद्ध्यन्ति याभ्यां तौ, रथीतमा भूयांसो रथा विद्यन्ते ययोस्तौ रथी, अतिशयेन रथी रथीतमौ देवौ शिल्पविद्यायां दिव्यगुणप्रकाशकौ, दिविस्पृशा विमानादियानैः सूर्य्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्षे मनुष्यादीन् स्पर्शयन्तौ, उभा उभौ ता तौ हवामहे गृह्णीमः॥१॥ यत्र मनुष्या वां तयोरश्विनोः साधियित्वा चलितयोः सम्बन्धयुक्तेन रथेन हि यतो गच्छन्ति तत्र सोमिनः सोमविद्यासम्पादिनो गृहं विद्याधिकरणं दूरं नैव भवतीति यावत्॥२॥ अथातो द्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ भवतोऽश्विनौ यद्ध्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषाऽन्योऽश्वैरश्विनावित्यौर्णवाभस्तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येकेऽहोरात्रावित्येके सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके ........हि मध्यमो ज्योतिर्भाग आदित्यः। (निरु०१२.१)। तथाऽश्विनौ चापि भर्त्तारौ जर्भरी भर्त्तारावित्यर्थस्तुर्फरीतु हन्तारौ। (निरु०१३.५। तयोः काल ऊर्ध्वमर्द्धरात्रात् प्रकाशीभावस्यानुविष्टम्भमनु तमो भागः। (निरु०१२.१)। (अथातो०) अत्र द्युस्थानोक्तत्वात् प्रकाशस्थाः प्रकाशयुक्ताः सूर्य्याग्निविद्युदादयो गृह्यन्ते, तत्र यावश्विनौ द्वौ द्वौ सम्प्रयुज्येते यौ च सर्वेषां पदार्थानां मध्ये गमनशीलौ भवतः। तयोर्मध्यादस्मिन् मन्त्रेऽश्विशब्देनाग्निजले गृह्येते। कुतः? यद्यस्माज्जलमश्वैः स्वकीयवेगादिगुणै रसेन सर्वं जगद्व्यश्नुते व्याप्तवदस्ति। तथाऽन्योऽग्निः स्वकीयैः प्रकाशवेगादिभिरश्वैः सर्वं जगद्व्यश्नुते तस्मादग्निजलयोरश्विसंज्ञा जायते। तथैव स्वकीयस्वकीयगुणैर्द्यावापृथिव्यादीनां द्वन्द्वानामप्यश्विसंज्ञा भवतीति विज्ञेयम्। शिल्पविद्याव्यवहारे यानादिषु युक्त्या योजितौ सर्वकलायन्त्रयानधारकौ यन्त्रकलाभिस्ताडितौ चेत्तदाहननेन गमयितारौ च तुर्फरीशब्देन यानेषु शीघ्रं वेगादिगुणप्रापयितारौ भवतः। अश्विनाविति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेनापि गमनप्राप्तिनिमित्ते अश्विनौ गृह्येते। (यज्वरीः) शिल्पविद्यासम्पादनहेतून् (इषः) विद्यासिद्धये या इष्यन्ते ताः क्रियाः (द्रवत्पाणी) द्रवच्छीघ्रवेगनिमित्ते पाणी पदार्थविद्याव्यवहारा ययोस्तौ (शुभस्पती) शुभस्य शिल्पकार्य्यप्रकाशस्य पालकौ। 'शुभ शुंभ दीप्तौ' एतस्य रूपमिदम्। (पुरुभुजा) पुरूणि बहूनि भुञ्जि भोक्तव्यानि वस्तूनि याभ्यां तौ। पुर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) भुगिति क्विप्प्रत्ययान्तः प्रयोगः। सम्पदादिभ्यः क्विप्। रोगाख्यायां। (अष्टा०३.३.१०८) इत्यस्य व्याख्याने। (चनस्यतम्) अन्नवदेतौ सेव्येताम्। चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययान्ताच्चनस्शब्दात् क्यच्प्रत्ययान्तस्य नामधातोर्लोटि मध्यमस्य द्विवचनेऽयं प्रयोगः॥१॥
    विषयः- तत्रादावश्विनावुपदिश्येते।
     
    अन्वयः- हे विद्वांसो! युष्माभिर्द्रवत्पाणी शुभस्पती पुरुभुजावश्विनौ यज्वरीरिषश्च चनस्यतम्॥१॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरः शिल्पविद्यासाधनमुपदिशति। यतो मनुष्याः कलायन्त्ररचनेन विमानादियानानि सम्यक् साधयित्वा जगति स्वोपकारपरोपकारनिष्पादनेन सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयुः॥१॥

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    विषय

    आश्विनी नाम से रथी और अश्वारोही, जल और अग्नि, सूर्य चन्द्र, राजा सेनापति, दिन रात्रि, पृथिवी और अग्नि, का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ ) शीघ्र जाने वाले रथ और अश्व के स्वामी स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (द्रवत्पाणी ) शीघ्र गतिशील हाथों, या व्यवहारों वाले, ( शुभस्पती ) उत्तम गुणों के पालक और ( पुरुभुजौ ) बहुतसे भोग्य पदार्थों से युक्त होकर ( यज्वरीः इषः ) बल देने वाले, उत्तम अन्नों को ( चनस्यतम् ) प्राप्त करो । ‘इषः चनस्थतम्’ यह प्रयोग ‘समूल काषं कषति’ के समान जानना चाहिये । जल और अग्नि के पक्ष में—जल और अग्नि, रस और प्रकाश, वेग आदि व्यापक गुणों से युक्त होने से दोनों ‘अश्विनौ’ हैं । वे दोनों शीघ्र वेग के लिये व्यवहार में आने से ‘द्रवत्पाणी’ हैं । दीप्ति के पालक होने से ‘शुभस्पती’ हैं । नाना भोग्य सुखकर पदार्थों को उत्पन्न करते हैं। उन दोनों को उचित रीति सेवन किया जाय । इसी प्रकार राजा और अमात्य या राजा रानी, दोनों ( यज्वरी: इषः ) परस्पर सुसंगत, प्रेमयुक्त प्रजाओं को या अन्नादि ऐश्वर्यों को (चनस्यतम्) अन्न के समान भोग करें । वे दोनों ( शुभस्पती ) तेजस्वी और अति ऐश्वर्य के भोक्ता हो ।

    टिप्पणी

    द्यु स्थान देवगण में अश्वि दोनों मुख्य हैं। एक रस से और दूसरा तेज से जगत् को व्यापता है। इसी से दोनों ‘अश्वि’ हैं । आचार्य और्णवाभ के मत में अश्वों, किरणों वाले सूर्य, चन्द्र, राजा, सेनापति ‘अश्वी’ हैं । द्यौ पृथिवी, दिन रात्रि, सूर्य, चन्द्र और राजा रानी ये ‘अश्वि’ कहते हैं । पृथिवी में अग्नि और द्यौलोक में सूर्य दोनों पुष्टिकारक होने से पुष्कर हैं। उनके धारक द्यौ और पृथिवी दोनों पुष्कर-स्त्रक् अश्वि हैं । देह में कान, नाक, आंख दोनों जोड़े ‘अश्वि’ हैं। दो मुख्य पुरुष भी ‘अश्वि’ कहाते हैं । ‘अश्विनौ’ – अथातो द्यु स्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमगामिनौभवतः । अश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्वं, रसेन अन्यो, ज्योतिषा अन्यः । अश्वैरश्विनावित्योर्णनाभः । तत्कावश्विनौ ? द्यावापृथिव्यावित्येके । अहोरात्रावित्येके । सूर्याचन्द्रमसावित्येके । राजानौ पुण्यकृतावित्यैतिहासिकाः । निरु ० १० । १ ॥ १॥ इमे ह वै द्यावापृथिव्यौ प्रत्यक्षमश्विनौ । इमे हि इदं सर्वमश्नुवातां । पुष्करस्त्रजौ इत्यग्निरेवास्यै ( पृथिव्यै ) पुष्करमादित्योऽमुष्यै ( दिवे ) । श० ४ । १ । ५ । १६ ॥ श्रोत्रे अश्विनौ । नासिके अश्विनौ । तद्यौ ह वा इमौ पुरुषाविवाक्ष्यौः । एतावेवाश्विनौ । श० १२ । ९ । १२-१४ ॥ मुख्यौ वा अश्विनौ । श० ४ । १ । ५ । १९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    दुसऱ्या सूक्तात विद्येचा प्रकाश, क्रियांचा हेतू असलेल्या अश्वि शब्दाचा अर्थ, ते सिद्ध करणाऱ्या विद्वानांचे लक्षण व विद्वान होण्याचा हेतू, सरस्वती शब्दाने सर्व विद्याप्राप्तीचे निमित्त असणारी वाणी प्रकाशयुक्त असते हे जाणून घ्यावे. दुसऱ्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर तिसऱ्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती आहे.

    भावार्थ

    या मंत्रात ईश्वराने शिल्पविद्या (हस्तकौशल्ययुक्त विद्या) सिद्ध करण्याचा उपदेश केलेला आहे. जिच्याद्वारे माणसांनी कलायुक्त याने तयार करावीत व या जगात स्वतःवर व इतरांवर उपकार करावेत आणि सर्वांना सुखी करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Ashvins, fire and water, are powers of the Divine for quick motion through yajnic science. They are sources of splendour, food and energy, comfort and joy. Men of learning and science, let the two be developed in a spirit of delight and dedication.

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    Translation

    O the twin faculties—mental and vital, O cherishers of the noble deeds, with which we all benefit, may you derive gains at the sacred cosmic creation with spontaneity and without reservation.

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    Subject of the mantra

    In the first mantra of third hymn Agni(fire) and Jal(water) have been called Ashvi.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)=scholars, (yuṣmābhiḥ)= by you people, (dravatpāṇī)= For the best in accomplishment of material science for the sake of speedy velocity, (śubhaspatī)= to nurture the light of auspicious qualities, [aura]=and, (purubhujā)= containing many foodstuffs, (aśvinā)=water and fire, [tathā]=and, (yajvarīḥ)=artificer, (iṣaḥ)= to the workmanship activities of giving one's desired food etc. (ca)= as well, (canasyatam)= eat with great love as for food.

    English Translation (K.K.V.)

    O people who love knowledge! Best in accomplishing the treatment of material science by you people for the sake of speed, for the best in nurturing the light of auspicious qualities and in giving many food and drink items, water and fire for the best of craftsmanship and the food you want, et cetera. Enjoy the activities of giving craftsmanship with as much love as for food.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, God has preached the means of craftsmanship. By which human beings can make well-crafted instruments by making aircraft etc. vehicles well and get all happiness helping themselves and other people in the world.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! You should make proper use of Ashvinau (fire and water) like the food, which in the Science of arts and crafts manifest divine qualities, which make people touch sky through aero planes and other vehicles, which are instrumental in quickening the movements, which are protectors of arts and crafts and which produce various enjoyable objects. You should perform all such acts which may be useful for the science of arts and crafts.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God instructs in this Mantra the means of the Science of arts and crafts, so that with the manufacture of various machines, men may enjoy happiness by making aero planes and other conveyances for their own as well as for others' benefit. Authorities quoted by the Commentator regarding the meanings of the अश्विनौ as जलाग्नी water and fire etc. या सुरथा॑ र॒थीत॑म॒नो॒भा देवा दि॑वि॒स्पृशा। अश्विना ता हवामहे ।। न॒हि वा॒मिस्त॑ दूर॒के यत्रा रथेन गच्छ॑थः ॥ Rig.1.22.2-4 In these Mantras, it is said about the Ashvinau that with their help, one can travel very far on earth and also in the sky through the conveyances like aero planes etc. It is clear that by Ashvinau here fire and water are meant. In Nirukta 12. 1 Yaskacharya has given several meanings of Ashvinau as (1) The earth and the sky, (2) The sun and moon, (3) Day and night, (4) Expert physicians etc. In Nighantu 5.1 Ashvinau has been enumerated among पदनामसु by which are meant according to पगतौ गते त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च i. e. the means of quick movement and attainment of happiness. Therefore in this Mantra the meaning of the Ashvinau is taken as जलाग्नी, ie the water and Agni (fire, electricity etc.)

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