ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॑स्य॒ नु वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यानि॑ च॒कार॑ प्रथ॒मानि॑ व॒ज्री । अह॒न्नहि॒मन्व॒पस्त॑तर्द॒ प्र व॒क्षणा॑ अभिन॒त्पर्व॑तानाम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । नु । वी॒र्या॑णि । प्र । वो॒च॒म् । यानि॑ । च॒कार॑ । प्र॒थ॒मानि॑ । व॒ज्री । अह॑न् । अहि॑म् । अनु॑ । अ॒पः । त॒त॒र्द॒ । प्र । व॒क्षणा॑आः॑ । अ॒भि॒न॒त् । पर्व॑तानाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । नु । वीर्याणि । प्र । वोचम् । यानि । चकार । प्रथमानि । वज्री । अहन् । अहिम् । अनु । अपः । ततर्द । प्र । वक्षणाआः । अभिनत् । पर्वतानाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(इन्द्रस्य) सर्वपदार्थविदारकस्य सूर्य्यलोकस्येव सभापते राज्ञः (नु) क्षिप्रम् (वीर्य्याणि) आकर्षणप्रकाशयुक्तादिवत् कर्माणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (वोचम्) उपदिशेयम्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (यानि) (चकार) कृतवान् करोति करिष्यति वा। अत्र सामान्यकाले लिट्। (प्रथमानि) प्रख्यातानि (वज्री) सर्वपदार्थविच्छेदक किरणवानिव शत्रूच्छेदी (अहन्) हन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (अहिम्) मेघम्। अहिरिति मेघनामसु पठितम। निघं० १।१०। (अनु) पश्चादर्थे (अपः) जलानि (ततर्द) तर्दति हिनस्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (प्रवक्षणाः) वहन्ति जलानि यास्ता नद्यः (अभिनत्) विदारयति। अत्र लडर्थे लङन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (पर्वतानाम्) मेघानां गिरीणां वा पर्वत इति मेघनामसु पठितम्। निघं० १।१०। ॥१॥
अन्वयः
तत्रादाविन्द्रशब्देन सूर्यलोकदृष्टान्तेन राजगुणा उपदिश्यन्ते।
पदार्थः
हे विद्वांसो मनुष्या यूयं यथा यस्येन्द्रस्य सूर्य्यस्य यानि प्रथमानि वीर्य्याणि पराक्रमान् प्रवक्ततान्यहं नु प्रवोचम् यथा स वज्र्यहिमहन् तदवयवा अपोधऊर्ध्वं चकार तं ततर्द पर्वतानां सकाशात्प्रवक्षणा अभिनत्तथाऽहं शत्रून् हन्याम् तानऽधऊर्ध्वम् नुतर्देयम् दुर्गादीनां सकाशाद्युद्धायागताः सेना भिन्द्याम् ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणोत्पादितोयमग्निमयः सूर्य्यलोको यथा स्वकीयानि स्वाभाविकगुणयुक्तान्यन्नादीनि प्रकाशाकर्षणदाहछेदनवर्षोत्पत्ति निमित्तानिकर्माण्यहर्निशं करोति तथैव प्रजापालनतत्परैराजपुरुषैरपि भवितव्यम् ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब बतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्यलोक की उपमा करके राजा के गुणों का प्रकाश किया है।
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (इन्द्रस्य) सूर्य्य के (यानि) जिन (प्रथमानि) प्रसिद्ध (वीर्य्याणि) पराक्रमों को कहो उनको मैं भी। (नु) (प्रवोचम्) शीघ्र कहूँ जैसे वह (वज्री) सब पदार्थों के छेदन करनेवाले किरणों से युक्त सूर्य्य (अहिम्) मेघ को (अहन्) हनन करके वर्षाता उस मेघ के अवयव रूप (अपः) जलों को नीचे ऊपर (चकार) करता उसको (ततर्द) पृथिवी पर गिराता और (पर्वतानाम्) उन मेघों के सकाश से (प्रवक्षणाः) नदियों को छिन्न-भिन्न करके वहाता है। वैसे मैं शत्रुओं को मारूँ उनको इधर-उधर फेंकूँ और उनको तथा किला आदि स्थानों से युद्ध करने के लिये आई सेनाओं को छिन्न-भिन्न करूँ ॥१॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ यह अग्निमय सूर्यलोक जैसे अपने स्वाभाविक गुणों से युक्त अनादि प्रकाश आकर्षण दाह छेदन और वर्षा की उत्पत्ति के निमित्त कामों को दिन-रात करता है वैसे जो प्रजा के पालन में तत्पर राजपुरुष हैं उनको भी नित्य करना चाहिये ॥१॥
विषय
इन्द्र के शक्तिशाली कार्य
पदार्थ
१. (नु) - अब (इन्द्रस्य) - इन्द्रियों को वश में करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के (वीर्याणि) - शक्तिशाली कार्यों को (प्रवोचम्) - प्रकर्षेण कहता हूँ । (यानि) - जिन (प्रथमानि) - शक्तियों के विस्तार के साधनभूत मुख्य कार्यों को (वज्री) - [वज गतौ] क्रियाशीलता रूप वज्र को हाथ में लेनेवाले इन्द्र ने (चकार) - किया । इन्द्र व जितेन्द्रिय पुरुष के सब कार्य शक्तिशाली तो होते ही हैं, इन कार्यों से उसकी शक्तियों का और अधिक विस्तार होता है ।
२. क्रियाशीलता ही वह वज्र है जिस वज को हाथ में लेकर यह इन्द्र (अहिं अहन्) - अहि का संहार करता है । यह 'अहि' ही स्थानान्तर में 'वृत्र' है । 'वृत्र' ज्ञान पर आवरण डालता है और यह काम - वासनारूप वृत्र आहन्ति - हमारी सब शक्तियों का संहार करती है, अतः 'अहि' नामवाली हो जाती है ।
३. अहि- वृत्र व वासना के संहार के (अनु) - बाद यह इन्द्र (अपः) - शरीरस्थ रेतः - कणों को [आपः रेतो भूत्वा०] (ततर्द) - [तृद् Treed] अनुकूल गतिवाला करता है । जैसे सूर्य अहिः - बादल को छिन्न - भिन्न करके जलों को पृथिवी पर गिराता है, इसी प्रकार यह इन्द्र वासना को विच्छिन्न करके रेतः कणों को शरीररूप पृथिवी पर पहुंचाता है, इन रेतः - कणों को शरीर में सर्वत्र व्याप्त करता है
४. इस प्रकार रेतः कणों को शरीर में व्याप्त करके (पर्वतानाम्) - मेरुपर्वत की (वक्षणाः) - इडा, पिङ्गला, सुषुम्णारूप नदियों [नाड़ियों] को (प्राभिनत्) - प्रकर्षेण विदीर्ण करता है । इसकी ये नाड़ियाँ बन्द न रहकर ठीक रूप में कार्य करने लगती हैं ।
५. "तर्द" का अर्थ हिंसा ही लिया जाए तो अर्थ इस प्रकार होगा - (अपः अनु) - कर्मों के अनुपात में यह (ततर्द) - वासना का संहार करता है और वासना - संहार से यह 'इडा' आदि नाड़ियों को ठीक रूप में कार्य करनेवाला करता है । पर्वत व आदि शब्द अविद्या के लिए भी आता है । इस अविद्या को सांख्य व योग में 'पञ्चपर्व' कहा है, अतः पर्वोंवाला होने से पर्वत है, इन्द्र इन पर्वतों की वक्षणा - Sides, flanks पार्श्वों का विदारण करनेवाला होता है । अविद्या का विदारण करके ही यह ज्ञानधाराओं को प्रवाहित करनेवाला बनता है ।
६. राजा के पक्ष में 'अहन् अहिम्' आदि शब्दों से बाह्य शत्रुओं के संहार का भाव लेना होगा ।
[क] राजा वज्रहस्त होकर सर्पवत् कुटिल शत्रु का ध्वंस करता है [अहन् अहिम्], शत्रु - सेनाओं को हिंसित करता है [अपः अनुततर्द] तथा राष्ट्र में पर्वतों की नदियों का विदारण करके उन्हें सिंचाई व विद्युत् आदि के लिए प्रयुक्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष क्रियाशीलता के द्वारा तीन महत्त्वपूर्ण कार्य करता है,
[क] कामरूप वासना का नाश,
[ख] रेतः कणों की ऊर्ध्वगति,
[ग] मेरुदण्ड की इडादि नाड़ियों को कार्यक्षम करना, अथवा अविद्यारूप पर्वत को नष्ट करके ज्ञानधाराओं को प्रवाहित करना ।
विषय
अब बतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्यलोक की उपमा करके राजा के गुणों का प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
(ऋषिकृत)- हे विद्वांसो मनुष्या! यूयं यथा यस्य इन्द्रस्य सूर्य्यस्य यानि प्रथमानि वीर्य्याणि पराक्रमान् प्रवक्तानि अहं नु प्र वोचम् । यथा स वज्री अहिम्अहन् तत् अवयवा अपःअध ऊर्ध्वं चकार तं तदर्द पर्वतानां सकाशात् प्र वक्षणाः अभिनत् तथा अहं शत्रून् हन्यां तान् अध ऊर्ध्वम् अनु तर्देयं दुर्गादीनां सकाशात् युद्धाय आगताः सेना भिन्द्याम् ॥ १॥
पदार्थ
हे (विद्वांसो मनुष्या!)= विद्वान् मनुष्यों (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जैसे, (यस्य)=इस, (इन्द्रस्य) सर्वपदार्थविदारकस्य सूर्य्यलोकस्येव सभापते राज्ञः=सब पदार्थों के विदारक सूर्यलोक के समान सभापति राजा, (सूर्य्यस्य)=सूर्य के, (यानि)=जो, (प्रथमानि) प्रख्यातानि=प्रसिद्ध, (वीर्य्याणि) आकर्षणप्रकाशयुक्तादिवत् कर्माणि= आकर्षण और प्रकाश आदि जैसे कर्म हैं और (पराक्रमान्)=पराक्रम के, (प्रवक्तानि)=प्रवक्ता हैं, (अहम्)=मैं, (नु) क्षिप्रम्=शीघ्र, (प्र) प्रकृष्टार्थे=उत्तम, (वोचम्) उपदिशेयम्=उपदेश करता हूँ, (यथा)=जैसे, (सः)=वह, (वज्री) सर्वपदार्थविच्छेदक किरणवानिव शत्रूच्छेदी=किरणों के समान समस्त पदार्थों का छेदन करनेवाला शत्रु विनाशक, (अहिम्) मेघम्=बादलों को, (अहन्) हन्ति=छिन्न-भिन्न करता है, (तत्)=उसके, (अवयवा)=अङ्गो, (अपः) जलानि=जलों को, (अध)=नीचे, (ऊर्ध्वम्)=ऊपर, (चकार) कृतवान् करोति करिष्यति वा=करे, (तम्)=उसको, (तदर्द) तर्दति हिनस्ति=छिन्न-भिन्न करता है, (पर्वतानाम्) मेघानां गिरीणां वा=पर्वतों को, (सकाशात्)=निकट से, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्टरूप से, (वक्षणाः) वहन्ति जलानि यास्ता नद्यः=जो नदियां जलों को बहाती हैं, (अभिनत्) विदारयति=उन्हें छिन्न-भिन्न करता है, (तथा)=वैसे ही, (अहम्)=मैं, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (हन्याम्)=मारूँ, (तान्)=उनको, (अध)=नीचे, (ऊर्ध्वम्)=ऊपर, (अनु) पश्चादर्थे=और बाद में, (इयम्)=इसको, (तर्द)=मारता है या छिन्न-भिन्न करता है, (दुर्गादीनाम्)=किले आदि में, (सकाशात्)=निकट से, (युद्धाय)=युद्ध को लिए, (आगताः)=आई हुई, (सेना)=सेना को, (भिन्द्याम्)=छिन्न-भिन्न करूँ॥ १॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ यह अग्निमय सूर्यलोक जैसे अपने स्वाभाविक गुणों से युक्त अनादि प्रकाश, आकर्षण, दाहन और छेदन से वर्षा की उत्पत्ति के निमित्त कामों को दिन-रात करता है, वैसे ही प्रजा के पालन में तत्पर राजपुरुषों को भी होना चाहिये ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वांसो मनुष्या!) विद्वान् मनुष्यों (यूयम्) तुम सब (यथा) जैसे (यस्य) इस (इन्द्रस्य) सब पदार्थों के विदारक सूर्यलोक के समान सभापति राजा (सूर्य्यस्य) सूर्य के (यानि) जो (प्रथमानि) प्रसिद्ध (वीर्य्याणि) आकर्षण और प्रकाश आदि कर्म हैं और (पराक्रमान्) पराक्रम को के (प्रवक्तानि) सुन्दरता से कहनेवाले हैं, (अहम्) मैं (नु) शीघ्रता से (प्र) उत्तम (वोचम्) उपदेश करता हूँ। (यथा) जैसे (सः) वह (वज्री) किरणों के समान समस्त पदार्थों का छेदन करनेवाला शत्रु विनाशक (अहिम्) बादलों को (अहन्) छिन्न-भिन्न करता है। (तत्) उसके (अवयवा) अङ्गो, अर्थात् (अपः) जलों को (अध) नीचे (ऊर्ध्वम्) ऊपर (चकार) करे। (तम्) उसको (तदर्द) छिन्न-भिन्न करता है। (पर्वतानाम्) पर्वतों को (सकाशात्) निकट से (प्र) प्रकृष्टरूप से (वक्षणाः) जो नदियां जलों को बहाती हैं (अभिनत्) उन्हें छिन्न-भिन्न करता है। (तथा) वैसे ही (अहम्) मैं (शत्रून्) शत्रुओं को (हन्याम्) मारूँ। वह [सूर्य] (तान्) उनको (अध) नीचे (ऊर्ध्वम्) ऊपर मारता है (अनु) और बाद में (इयम्) इसको (तर्द) मारता है या छिन्न-भिन्न करता है। (दुर्गादीनाम्) किले आदि में (युद्धाय) युद्ध के लिए (सकाशात्) निकट (आगताः) आई हुई (सेना) सेना को [मैं] (भिन्द्याम्) छिन्न-भिन्न करूँ॥ १॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रस्य) सर्वपदार्थविदारकस्य सूर्य्यलोकस्येव सभापते राज्ञः (नु) क्षिप्रम् (वीर्य्याणि) आकर्षणप्रकाशयुक्तादिवत् कर्माणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (वोचम्) उपदिशेयम्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (यानि) (चकार) कृतवान् करोति करिष्यति वा। अत्र सामान्यकाले लिट्। (प्रथमानि) प्रख्यातानि (वज्री) सर्वपदार्थविच्छेदक किरणवानिव शत्रूच्छेदी (अहन्) हन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (अहिम्) मेघम्। अहिरिति मेघनामसु पठितम। निघं० १।१०। (अनु) पश्चादर्थे (अपः) जलानि (ततर्द) तर्दति हिनस्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (प्रवक्षणाः) वहन्ति जलानि यास्ता नद्यः (अभिनत्) विदारयति। अत्र लडर्थे लङन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (पर्वतानाम्) मेघानां गिरीणां वा पर्वत इति मेघनामसु पठितम्। निघं० १।१०। ॥१॥
विषयः- तत्रादाविन्द्रशब्देन सूर्यलोकदृष्टान्तेन राजगुणा उपदिस्यन्ते।॥१॥
अन्वयः- हे विद्वांसो मनुष्या! यूयं यथा यस्येन्द्रस्य सूर्य्यस्य यानि प्रथमानि वीर्य्याणि पराक्रमान् प्रवक्ततान्यहं नु प्रवोचम् । यथा स वज्रयहिमहन् तदवयवा अपोऽध ऊर्ध्वं चकार तं ततर्द पर्वतानां सकाशात्प्रवक्षणा अभिनत् तथाऽहं शत्रून् हन्याम् तानऽध ऊर्ध्वमनुतर्देयम् दुर्गादीनां सकाशाद्युद्धायागताः सेना भिन्द्याम् ॥ १॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणोत्पादितोयमग्निमयः सूर्य्यलोको यथा स्वकीयानि स्वाभाविकगुणयुक्तान्यन्नादीनि प्रकाशाकर्षणदाहछेदनवर्षोत्पत्ति निमित्तानिकर्माण्यहर्निशं करोति तथैव प्रजापालनतत्परैराजपुरुषैरपि भवितव्यम् ॥१॥
विषय
सूर्य, वायु, विद्युत् और मेघ के वर्णन से वीर सेना- पतियों के कर्मों का वर्णन ।
भावार्थ
मैं (इन्द्रस्य) सूर्य के समान तेजस्वी, पराक्रमी, वायु के समान बलवान्, राजा और सेनापति के (वीर्याणि) बलयुक्त उन कर्मों का (प्र वोचम्) उपदेश करता हूं (यानि) जिन (प्रथमानि) अति उत्तम बल के कार्यों को (वज्री) छेदन भेदन करने में कुशल वह (चकार) करता है । [१] (अहिम् अहन्) जिस प्रकार सूर्य या वायु मेघ को प्रकाश और प्रबल वेग से आधात करता है उसी प्रकार (अहिम्) जीता न छोड़ने योग्य, शत्रु को राजा भी प्रताप और पराक्रम से (अहन्) आघात करता है (अपः अनु ततर्द) जिस प्रकार सूर्य और वायु मेघ पर आघात करके तदनन्तर उसमें से जलों को नीचे गिराता है। उसी प्रकार पराक्रमी राजा भी शत्रु सेनाओं को (अनुतर्द) वार बार पीड़ित करता है। और (इन्द्रः) विद्युत् और वायु जिस प्रकार (पर्वतानाम्) पर्वतों और मेघों की (वक्षणाः) कोखों और तटों को विदीर्ण करता है और उनमें से (वक्षणाः अभिनत्) नदियों और जल-धाराओं को बहा देता है उसी प्रकार राजा भी (पर्वतानाम्) पर्वत के समान अचल, दृढ़, शन्नु राजाओं के (वक्षणाः) कोखों या पार्श्व के दृढ़ रक्षा स्थानों को (अभिनत्) तोड़ डाले और (वक्षणाः अभिनत्) शत्रु सेना के प्रवाहों को छिन्न भिन्न कर दे। अथवा—प्रजा के हित के लिये पर्वतों के पासों से नदी, नहरों को बहा दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य व मेघांच्या युद्धाचे वर्णन केल्यामुळे या सूक्ताची मागच्या सूक्तातील अग्नी शब्दाच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ईश्वराने उत्पन्न केलेला अग्निमय सूर्यलोक जसा आपल्या स्वाभाविक गुणांनी युक्त अनादी प्रकाश, आकर्षण, दाह, छेदन व पर्जन्याची उत्पत्ती इत्यादी काम दिवस-रात्र करतो तसे प्रजापालन करण्यास तत्पर राजपुरुषांनीही आपले कार्य नित्य करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I recite and celebrate the first and highest exploits of Indra, lord of the thunderbolt, refulgent ruler, which he, like the sun, performs with the shooting rays of His light. He breaks down the cloud like an enemy, releases the waters and opens the paths of mountain streams. (The ruler too, similarly, breaks down the enemies holding up the powers of the nation for movement, releases the energies and resources of the nation, and carves out the paths of progress.)
Subject of the mantra
Now, we start thirty second hymn, in its first mantra, by the illustration of Sun-sphere with the word “Indra” the qualities of the king have been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvāṃso manuṣyā!)= learned men, (yūyam)=all of you, (yathā)=as, (yasya)=this, (inndrasya)=Like the sun-world, the dispersing king of all things, (sūryyasya)=of the Sun, (yāni) =those, (prathamāni)=famous, (vīryyāṇi)=Attraction and light etc. deeds are, [aura]=and, (parākramān)=of might, (pravaktāni)=those who speek in a good way, (aham)=I, (nu)=expeditiously (pra)=perfect, (vocam) =preach,(yathā)=as, (saḥ)=that, (vajrī)=enemy destroyer like Sun rays who shatters the substances, (ahim)=to clouds, (ahan)=shatters (tat)=its,(avayavā)=parts, [arthāt]=in other words, (apaḥ)=to waters, (adha)=downwards, (ūrdhvam)=upwards, (cakāra)=must do, (tam)=to that,(tadarda)=shatters, (parvatānām)=to the mountains, (sakāśāt)=from close quarters, (pra)=in an excellent way, (vakṣaṇāḥ)=rivers that carry water, (abhinat)=shatters them, (tathā)=in the same way, (aham)=I, (śatrūn)=to the enemies, (hanyām)=must kill, [sūrya]=the Sun, (tān)=to them, (adha)=downwards, (ūrdhvam)=upwards,(anu)=and afterwards, (iyam)=to this, (tarda)=kills or shatters, (durgādīnām)=in forts etc. (yuddhāya)=for war, (sakāśāt)=near, (āgatāḥ)=coming, (senā)=to the force, [maiṃ]=I, (bhindyām)=I must dissipate.
English Translation (K.K.V.)
O learned men! All of you are the destroyers of all these things, like the Sun world, the famous charm and light etc. deeds of king Sun and are the ones, who speak beautifully of might. I give good sermons quickly. Just, like the enemy, who pierces all matter like the Sun rays, is a destroyer, it the destroyer of the clouds. Raise its parts, that is, the waters upwards and downwards, shatters it up. The rivers which flow the waters from the close proximity to the mountains, shatter them. That's how I kill my enemies. That Sun shatters them upwards and downwards and later kills or breaks this river. Let me dissipate the army which has come near for war in the fort et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative. This fiery Sun, created by God, with its natural qualities like eternal light, attraction, burning and piercing, works day and night for the creation of rain. In the same way, the royal men should also be ready to cherishing the subjects.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the first Mantra, the attributes of a king are taught by the illustration of the Sun.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, as you declare the former valorous deeds of Indra (Sun) which he the upholder of the thunderbolt in the form of his rays has achieved, he clove the cloud, he cast the waters down to earth, he broke the way for the torrents of the mountain or the cloud. 2. As the Sun destroys the clouds, so a king or President of the Assembly should destroy his wicked enemies and thus should become praise-worthy like the Sun. He should be full of vigor and splendor like the Sun. He should strike down all enemies that come from the fort or other safe places.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[ इन्द्रस्य ] सर्वपदार्थविदारकस्य सूर्यलोकस्येव सभापते राज्ञः = Of the king who is the president of the Assembly and who is like the Sun. [वज्री] सर्वपदार्थविच्छेदक किरणवान् इव शत्रुच्छेदी । The destroyer of his enemies like the Sun dispelling hall darkness by his rays. ( अहम् ) मेघम् अहिरिति मेघनामसु पठितम् ( निघo १.१०) = Cloud. (ततर्द) तर्दति-हिनस्ति अन ळडर्थे लिट् । = Destroys, strikes down. ( वक्षणा:) वहन्ति जलानि यास्ता नघः = Rivers.(वक्षणा) इति नदी नाम ( निघ० १.१३) पर्वतानाम् ) मेघानां गिरीणां वा पर्वत इति मेघनामसु पठितम् ( निघ० १.१०) = Of the clouds or mountains.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in the Mantra. As the sun created by God does all his natural works like giving heat, light, attraction, raining, burning etc. day and night, in the same way, all officers and workers of the state should discharge their duties properly, being engaged day and night in protecting and preserving their subjects.
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