ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निर्मित्रावरुणौ, रात्रिः, सविता
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
ह्वया॑म्य॒ग्निं प्र॑थ॒मं स्व॒स्तये॒ ह्वया॑मि मि॒त्रावरु॑णावि॒हाव॑से । ह्वया॑मि॒ रात्रीं॒ जग॑तो नि॒वेश॑नीं॒ ह्वया॑मि दे॒वं स॑वि॒तार॑मू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठह्वया॑मि । अ॒ग्निम् । प्र॒थ॒मम् । स्व॒स्तये । ह्वया॑मि । मि॒त्रावरु॑णौ । इ॒ह । अव॑से । ह्वया॑मि । रात्री॑म् । जग॑तः । नि॒वेश॑नीम् । ह्वया॑मि । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे । ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥
स्वर रहित पद पाठह्वयामि । अग्निम् । प्रथमम् । स्वस्तये । ह्वयामि । मित्रावरुणौ । इह । अवसे । ह्वयामि । रात्रीम् । जगतः । निवेशनीम् । ह्वयामि । देवम् । सवितारम् । ऊतये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(ह्वयामि) स्पर्धामि (अग्निम्) रूपगुणम् (प्रथमम्) जीवनस्यादिमनिमित्तम् (स्वस्तये) सुशोभनमिष्टं सुखमस्ति यस्मात्तस्मै सुखाय (ह्वयामि) स्वीकरोमि (मित्रावरुणौ) मित्रः प्राणो वरुण उदानस्तौ (इह) अस्मिन् शरीरधारणादिव्यवहारे (अवसे) रक्षणाद्याय (ह्वयामि) प्राप्नोमि (रात्रिम्) सूर्याभावादंधकाररूपाम् (ह्वयामि) गृह्णामि (देवम्) द्योतनात्मकं (सवितारम्) सूर्यलोकम् (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै ॥१॥
अन्वयः
अग्न्यादिगुणान् विज्ञाय कृत्यं सिद्धं कुर्य्यादित्युपदिश्यन्ते।
पदार्थः
अहमिह स्वस्तये प्रथममग्निं ह्वयाम्यवसे मित्रावरुणौ ह्वयामि जगतो निवेशनीं रात्रीं ह्वयाम्यूतये सवितारं देवं ह्वयामि ॥१॥
भावार्थः
मनुष्यैरहर्निशं सुखायाग्निवायुसूर्याणां सकाशादुपयोगं गृहीत्वा सर्वाणि सुखानि प्राप्याणि नैतदादिना विना कदाचित् कस्यचित् सुखं संभवतीति ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब पैंतीसवे सूक्त का आरंभ है। उसके पहिले मंत्र से अग्नि आदि के गुणों को जान के सब प्रयोजनों को सिद्ध करे, इस विषय का वर्णन किया है।
पदार्थ
मैं (इह) इस शरीर धारणादि व्यवहार में (स्वस्तये) उत्तम सुख होने के लिये (प्रथमम्) शरीर धारण के आदि साधन (अग्निम्) रूप गुण युक्त अग्नि को (मित्रावरुणौ) तथा प्राण वा उदान वायु को (ह्वयामि) स्वीकार करता हूँ (जगतः) संसार को (निवेशनीम्) निद्रा में निवेश करानेवाली (रात्रीम्) सूर्य के अभाव से अन्धकार रूप रात्रि को (ह्वयामि) प्राप्त होता हूँ (ऊतये) क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये (देवम्) द्योतनात्मक (सवितारम्) सूर्यलोक को (ह्वयामि) ग्रहण करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि दिनरात सुख के लिये अग्नि वायु और सूर्य के सकाश से उपकार को ग्रहण करके सब सुखों को प्राप्त होवें क्योंकि इस विद्या के विना कभी किसी पुरुष को पूर्ण सुख का संभव नहीं हो सकता ॥१॥
विषय
अब पैंतीसवे सूक्त का आरंभ है। उसके पहले मंत्र से अग्नि आदि के गुणों को जान के सब प्रयोजनों को सिद्ध करे, इस विषय का वर्णन किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अहम् इह स्वस्तये प्रथमम् अग्निं ह्वयामि अवसे मित्रावरुणौ ह्वयामि जगतः निवेशनीं रात्रीं ह्वयामि ऊतये सवितारं देवं ह्वयामि ॥१
पदार्थ
(अहम्)=मैं, (इह) अस्मिन् शरीरधारणादिव्यवहारे=इस शरीर धारण करने आदि के व्यवहार में, (स्वस्तये) सुशोभनमिष्टं सुखमस्ति यस्मात्तस्मै सुखाय=जिसमें उत्तम और इष्ट सुख हैं, उसके लिये और (प्रथमम्) जीवनस्यादिमनिमित्तम्=जीवन के आदि निमित्त के लिये, (अग्निम्) रूपगुणम्=रूप गुणयुक्त अग्नि को, (ह्वयामि) गृह्णामि=ग्रहण करता हूँ। (अवसे) रक्षणाद्याय= रक्षण आदि के लिये, और (मित्रावरुणौ) मित्रः प्राणो वरुण उदानस्तौ=मित्र, प्राण वा वरुण और उदान वायु को, (ह्वयामि) प्राप्नोमि=प्राप्त करता हूँ। (जगतः)=संसार में, (निवेशनीम्)=अच्छी तरह से प्रवेश करने के लिये, (रात्रिम्) सूर्याभावादंधकाररूपाम्=सूर्य के अभाव से अन्धकार रूप रात्रि को, (ह्वयामि) गृह्णामि=ग्रहण करता हूँ। (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै=क्रिया की सिद्धि की इच्छा के लिये, (सवितारम्) सूर्यलोकम्=सूर्यलोक के, (देवम्) द्योतनात्मकं=प्रकाश को (ह्वयामि) गृह्णामि=ग्रहण करता हूँ ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को चाहिये कि दिनरात सुख के लिये अग्नि वायु और सूर्य के सकाश से उपकार को ग्रहण करके सब सुखों को प्राप्त होवें क्योंकि इस विद्या के विना कभी किसी पुरुष को पूर्ण सुख का सम्भव नहीं हो सकता ॥१॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- मित्रावरुणौ-मित्र और वरुण का अर्थ है प्राण और उदान वायु। उदान एक प्रकार का प्राण-वायु (जीवन श्वास) है जिसका स्थान कंठ है ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(अहम्) मैं (इह) इस शरीर के धारण आदि व्यवहार में (स्वस्तये) जिसमें उत्तम और इष्ट सुख हैं, उसके लिये और (प्रथमम्) जीवन के आदि निमित्त के लिये (अग्निम्) रूप गुणयुक्त अग्नि को (ह्वयामि) ग्रहण करता हूँ। (अवसे) रक्षण आदि के लिये, (मित्रावरुणौ) मित्र अर्थात् प्राण, वरुण और उदान वायु को (ह्वयामि) प्राप्त करता हूँ। (जगतः) संसार में (निवेशनीम्) अच्छी तरह से प्रवेश करने के लिये (रात्रिम्) सूर्य के अभाव से अन्धकार रूप रात्रि को (ह्वयामि) ग्रहण करता हूँ। (ऊतये) क्रिया की सिद्धि की इच्छा के लिये (सवितारम्) सूर्यलोक के (देवम्) प्रकाश को (ह्वयामि) ग्रहण करता हूँ ॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ह्वयामि) स्पर्धामि (अग्निम्) रूपगुणम् (प्रथमम्) जीवनस्यादिमनिमित्तम् (स्वस्तये) सुशोभनमिष्टं सुखमस्ति यस्मात्तस्मै सुखाय (ह्वयामि) स्वीकरोमि (मित्रावरुणौ) मित्रः प्राणो वरुण उदानस्तौ (इह) अस्मिन् शरीरधारणादिव्यवहारे (अवसे) रक्षणाद्याय (ह्वयामि) प्राप्नोमि (रात्रिम्) सूर्याभावादंधकाररूपाम् (ह्वयामि) गृह्णामि (देवम्) द्योतनात्मकं (सवितारम्) सूर्यलोकम् (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै ॥१॥
विषयः- अग्न्यादिगुणान् विज्ञाय कृत्यं सिद्धं कुर्य्यादित्युपदिश्यन्ते।
अन्वयः- अहमिह स्वस्तये प्रथममग्निं ह्वयाम्यवसे मित्रावरुणौ ह्वयामि जगतो निवेशनीं रात्रीं ह्वयाम्यूतये सवितारं देवं ह्वयामि ॥१॥
॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरहर्निशं सुखायाग्निवायुसूर्याणां सकाशादुपयोगं गृहीत्वा सर्वाणि सुखानि प्राप्याणि नैतदादिना विना कदाचित् कस्यचित् सुखं संभवतीति ॥१॥
विषय
आह्वान [पुकार]
पदार्थ
१. मैं (प्रथमम्) - सबसे पहले (स्वस्तये) - उत्तम स्थिति के लिए, अविनाश के लिए (अग्निम्) - उस अग्रणी प्रभु को (ह्वयामि) - पुकारता हूँ । प्रभु की प्रार्थना से ही अपनी चित्तवृत्ति को हम विषय - पराङ्मुख कर पाते हैं । यह विषयों में न फँसना ही कल्याण का, अविनाश का कारण व साधन है ।
२. (इह) - इस मानव - जीवन में (अवसे) - अपने रक्षण के लिए (मित्रावरुणौ) - प्राण व उदान वायु को अथवा स्नेह व द्वेषनिवारण के देवता को मैं (ह्वयामि) - पुकारता हूँ । शरीर के रक्षण के लिए प्राण व उदान का ठीक से कार्य करना आवश्यक है । प्राण का कार्य ठीक चलने पर हमारे शरीर में शक्ति होती है और हम सबके साथ स्नेह करनेवाले बनते हैं । उदान हमारे कण्ठदेश की ग्रन्थियों को ठीक रखती हुई हमें जितेन्द्रिय बनने में सहायक होती है, और हमें द्वेष से ऊपर उठाती है ।
३. (जगतोः) - सम्पूर्ण क्रियाशील प्राणियों को दिनभर के कार्य के अनन्तर (निवेशनीम्) - अपने अन्दर निवास देनेवाली (रात्रीम्) - रात्रि को, इस रमयित्री निद्रा की गोद में ले - जानेवाली रात को (ह्वयामि) - पुकारता हूँ । वस्तुतः रात्रि की निद्रा स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।
४. (ऊतये) - इस स्वास्थ्य के रक्षण के लिए ही मैं रात्रि की समाप्ति पर उदय होनेवाले (देवम्) - प्रकाशमय, सारे संसार को प्रकाशित करनेवाले तथा प्राणशक्ति देनेवाले [देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा] (सवितारम्) - सबको कर्मों में प्रेरित करनेवाले सूर्य को (ह्वयामि) - पुकारता हूँ । 'सूर्याभिमुख होकर सन्ध्या में स्थित होना' ही सूर्य को पुकारना है । यह 'हिरण्यपाणि' सूर्य हमारे अन्दर अपनी सुनहरी किरणों से प्राणशक्ति को भरनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अविनाश व रक्षण के लिए उस सर्वाग्रणी प्रभु को पुकारते हैं । प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारे प्राण व उदान ठीक हों, हम स्नेह व निर्द्वेषतावाले हों, प्रतिदिन नींद ठीक से आये और हम प्रातः प्रबुद्ध हों, प्राङ्मुख होकर [सूर्याभिमुख] प्रभु - प्रार्थना करनेवाले हों ।
विषय
परमेश्वर का नाना रूपों में स्मरण ।
भावार्थ
(स्वस्तये) सुखपूर्वक समस्त जगत् के विद्यमान रहने के लिये (प्रथमम्) सबसे पूर्व विद्यमान (अग्निम्) सर्वज्ञानी, परमेश्वर की (ह्वयामि) मैं स्तुति करता हूं। (इह) इस जगत् में (अवसे) रक्षा, सत्य ज्ञान और जीवन रक्षा के लिये (मित्रावरुणौ) सबके प्रति स्नेही और दुःखों के दूर करने वाले प्राण और अपान दोनों के समान परमेश्वर के स्नेहमय और दुष्ट नाशक दोनों स्वरूपों की (ह्वयामि) स्मरण या स्तुति करता हूं। (जगतः) जगत् को (निवेशनी) अपने भीतर रखने वाली (रात्रिम्) रात्रि के समान सुखपूर्वक निद्रा में सुलाने वाली, सकल सुखदायिनी उस परमेश्वरी शक्ति की (ह्वयामि) स्तुति करता हूं। (ऊतये) सबकी रक्षा और ज्ञान के लिये भी (सवितारम्) सर्वोत्पादक (देवम्) सर्वप्रकाशक, सर्वद्रष्टा, सर्वसुखदाता परमेश्वर ही सर्व प्रथम, सर्वाग्रणी होने से ‘अग्नि' है। स्नेह और दुष्ट वारण द्वारा रक्षा करने से वही ‘मित्र’ और ‘वरुण’ कहाता है। जगत् को अपने भीतर लेने से परमेश्वर ही ‘रात्री’ कहाता है। ज्ञानप्रद होने से वही ‘सविता’ और ‘देव’ कहाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य, वायू व ईश्वराच्या गुणांचे प्रतिपादन केल्यामुळे चौतिसाव्या सूक्ताबरोबर या सूक्ताची संगती जाणावी.
भावार्थ
माणसांनी दिवस-रात्र सुखासाठी अग्नी, वायू व सूर्यप्रकाश यांचा उपयोग करून घ्यावा व सर्व सुख प्राप्त करावे कारण या विद्येशिवाय कोणत्याही माणसाला पूर्ण सुख प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I invoke Agni, vital heat, first basic sustainer of life, for physical well-being. I invoke Mitra-and-Varuna, pranic energies of the breath of life, for protection and immunity. I invoke the night which envelops the world in restful sleep. And I invoke Savita, the sun, lord of light, refreshment and inspiration for the sake of protection, promotion and advancement here upon the earth.
Subject of the mantra
Now is the start of thirty fifth hymn, In its first mantra after knowing the qualities of fire etc., the accomplishment of their purposes has been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(aham) =I, (iha)=In the practice of holding this body etc. (svastaye)=for the one who has the best and favoured happiness, [aura]=and, (prathamam)=for the purpose of beginning cause of life, (agnim)=to the virtuous fire, (hvayāmi)=I accept, (avase)=for protection etc. [aura]=and, (mitrāvaruṇau)=to Mitra means Prana, Varuna and Udana Vayu, (hvayāmi)=I get obtained, (jagataḥ)=in the world, (niveśanīm)=to enter well (rātrim)=due to the absence of the sun, in the dark form at night, (hvayāmi)=I accept, (ūtaye)=to desire the accomplishment of action, (savitāram)=of the sun-world, (devam)=to light, (hvayāmi)=I accept.
English Translation (K.K.V.)
I have good and favourable pleasures in the holding etc. of this body, for protection et cetera. I receive the Mitra i.e. Prāṇa and Varuṇa i.e. Udāna air. In order to enter the world well, I take the form of darkness in the night due to the absence of the Sun. For the desire of the accomplishment of deeds, I accept the light of the Sun world.
Footnote
Mitrāvaruṇau - Mitra and Varuṇa means Prāṇa and Udāna air. Udāna is a type of Prana-vayu (life breath) whose place is the throat.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings should get all the pleasures by accepting the blessings from the fire, air and from the proximity of the Sun for happiness of day and night, because without this knowledge, it is never possible for a man to have complete happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
One should know the attributes of Agni, Mitra, Varuna and others and then should accomplish all works is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I first invoke Agni (fire here for our protection and happiness. I invoke for protection Mitra and Varuna (Praana and Udana two vital breaths. I invoke or call on Ratri ( Night) which brings rest to the world and I call for preservation and the accomplishment of works the bright solar world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्वस्तये) सुशोभनम् इष्टं सुखमस्ति यस्मात् तस्मै सुखाय = For desirable happiness. (मित्रावरुणौ ) मित्रः प्राणः वरुणः उदानः तौ । = Prana and Udana two vital energies. (सवितारम्) सूर्यलोकम् = The solar world. ( ऊतये ) क्रियासिद्धीच्छाये = For the desire of the accomplishment of the works.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should day and night utilize properly the fire air and sun and then attain happiness. Without this, none can enjoy happiness.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted मित्रावरुणौ here as मित्रः प्राणाः वरुणः उदान: तौ Mitra and Varuna or two vital energies. Though unfortunately, he has not quoted any authority, such authority is clearly found in several passages of the Brahmanas, as the following quotations show. प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ (शतपथ १.८.३२, ३.६.१.१६) प्राणोदानौ मित्रावरुणौ (शतपथ ३.२.२.१३ ) So Rishi Dayananda's interpretation is well-authenticated. The word ऊति: is derived from अव अवतेः क्रिमि ज्वर त्वारश्रीव्यबिमवामुपधायाश्च (अष्टा० ६.४.२०) इत्यादिना वकारस्य उपधायाश्च ऊद् उति यूतिजूति सातिहेति कीर्तयश्च (अष्टा० ३.३.९७) इत्यादिना क्लिन: उदात्तत्वम् । As ooti ( ऊति ) is derived from अव which has 19 meanings Rishi Dayananda has taken it to mean क्रियासिद्धीच्छायै ।
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