ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
प्र वो॑ य॒ह्वं पु॑रू॒णां वि॒शां दे॑वय॒तीना॑म् । अ॒ग्निं सू॒क्तेभि॒र्वचो॑भिरीमहे॒ यं सी॒मिद॒न्य ईळ॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । य॒ह्वम् । पु॒रू॒णाम् । वि॒शाम् । दे॒व॒ऽय॒तीना॑म् । अ॒ग्निम् । सु॒ऽउ॒क्तेभिः॑ । वचः॑ऽभिः । ई॒म॒हे॒ । यम् । सी॒म् । इत् । अ॒न्ये । ईळ॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् । अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वः । यह्वम् । पुरूणाम् । विशाम् । देवयतीनाम् । अग्निम् । सुउक्तेभिः । वचःभिः । ईमहे । यम् । सीम् । इत् । अन्ये । ईळते॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (यह्वम्) गुणैर्महान्तम्। यह्व इति महन्नामसु पठितम्। निघं० ३।३। (पुरूणाम्) वह्वीनाम् (विशाम्) प्रजानां मध्ये (देवयतीनम्) आत्मनो देवान् दिव्यान् भोगान् गुणाँश्चेत्र्छन्तीनाम् (अग्निम्) परमेश्वरम् (सूक्तेभिः) सुष्टूक्ता विद्या येषु तैः (वचोभिः) वेदार्थज्ञानयुक्तैर्वचनैः (ईमहे) याचामहे। अत्र बहुलंछन्दसि इति श्यनो लुक्। ईमह इति याञ्चाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९। (यम्) उक्तम् (सीम्) सर्वतः। प्रसीमादित्योसृजत्। प्रासृजत्सर्वत इति वा। निरु० १।७। इति सीमव्ययं सर्वार्थे गृह्यते। (इत्) एव (अन्ये) परोपकारका बुद्धिमन्तो धार्मिका विद्वांसः (ईळते) स्तुवन्ति ॥१॥
अन्वयः
तत्रादावग्निशब्देनेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।
पदार्थः
वयं यथान्ये विद्वांसः सूक्तेभिर्वचोभिर्देवयतीनां पुरूणां वो युष्माकं विशां प्रजानां सुखाय यंयह्वमग्निं सीमीडते तथा तमिदेव प्रेमहे प्रकृष्टतया याचामहे प्रकाशयामश्च ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं यथा विद्वांसः प्रजासुखसंपत्तये सर्वव्यापिनं परमेश्वरं निश्चित्योपदिश्य च तद्गुणान् प्रयत्नेन विज्ञापयंति स्तावयंति तथैव वयमपि प्रकाशयामः। यथेश्वरोऽग्न्यादिपदार्थरचनपालनाभ्यां जीवेषु सर्वाणि सुखानि दधाति तथा वयमपि सर्वप्राणिसुखानि सदा निर्वर्त्तयेमेति बुध्यध्वम् ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब छत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके पहिले मंत्र में अग्निशब्द से ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है।
पदार्थ
हम लोग जैसे (अन्ये) अन्यपरोपकारी धर्मात्मा विद्वान् लोग (सूक्तेभिः) जिन में अच्छे प्रकार विद्या कहीं हैं उन (वचोभिः) वेद के अर्थ ज्ञानयुक्त वचनों में (देवयतीनाम्) अपने लिये दिव्यभोग वा दिव्यगुणों की इच्छा करनेवाले (पुरूणाम्) बहुत (वः) तुम (विशाम्) प्रजा लोगों के सुख के लिये (यम्) जिस (यह्वम्) अनन्तगुण युक्त (अग्निम्) परमेश्वर की (सीम+ईडते) सब प्रकार स्तुति करते हैं वैसे उस (इत्) ही की (प्रेमहे) अच्छे प्रकार याचना और गुणों का प्रकाश करें ॥१॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो जैसे तुम लोग पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् लोग प्रजा के सुख की संपत्ति के लिये सर्वव्यापी परमेश्वर का निश्चय तथा उपदेश करके प्रयत्न से जानते हैं वैसे ही हम लोग भी उसके गुण प्रकाशित करें जैसे ईश्वर अग्नि आदि पदार्थों के रचन और पालन से जीवों में सब सुखों को धारण करता है वैसे हम लोग भी सब प्राणियों के लिये सदा सुख वा विद्या को सिद्ध करते रहें ऐसा जानों ॥१॥
विषय
अब छत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके पहले मंत्र में अग्निशब्द से ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
वयं यथा अन्ये विद्वांसः सूक्तेभिः वचोभिः देवयतीनां पुरूणाम् वः युष्माकं विशां प्रजानां सुखाय यं यह्वम् अग्निम् सीम् ईडते तथा तम् इत् एव प्रेमहे प्रकृष्टतया याचामहे प्रकाशयामः च ॥१॥
पदार्थ
(वयम्)=हम लोग, (यथा)=जैसे, (अन्ये) परोपकारका बुद्धिमन्तो धार्मिका विद्वांसः=अन्य परोपकारी धर्मात्मा, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (सूक्तेभिः) सुष्टूक्ता विद्या येषु तैः=जिन में अच्छे प्रकार विद्या कहीं हैं उन, (वचोभिः) वेदार्थज्ञानयुक्तैर्वचनैः=वेद के अर्थ ज्ञानयुक्त वचनों से, (देवयतीनम्) आत्मनो देवान् दिव्यान् भोगान् गुणाँश्चेत्र्छन्तीनाम्=अपने लिये दिव्यभोग वा दिव्यगुणों की इच्छा करनेवाले, (पुरूणाम्) वह्वीनाम्=बहुत लोगों का, (वः) युष्माकम्=तुमको, (विशाम्) प्रजानां मध्ये=प्रजा लोगों के बीच में, (प्रजानाम्)=प्रजा के, (सुखाय)=सुख के लिये, (यम्) उक्तम्=कहे गये, (यह्वम्) गुणैर्महान्तम्=श्रेष्ठ गुणों का, (अग्निम्) परमेश्वरम्=परमेश्वर की, (सीम्) सर्वतः=हर ओर से, (ईळते) स्तुवन्ति=स्तुति करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (तम्)=उसको, (इत्) एव=ही, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छे प्रकार से, (ईमहे) याचामहे= स्तुति करते हुए, (प्रकाशयामः)=गुणों का प्रकाश, (च)=भी करते हैं॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो जैसे तुम लोग पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् लोग प्रजा के सुख की संपत्ति के लिये सर्वव्यापी परमेश्वर का निश्चय तथा उपदेश करके प्रयत्न से जानते हैं, वैसे ही हम लोग भी उसके गुण प्रकाशित करें। जैसे ईश्वर अग्नि आदि पदार्थों के रचने और पालन से जीवों में सब सुखों को धारण करता है, वैसे हम लोग भी सब प्राणियों के लिये सदा सुख वा विद्या को सिद्ध करते रहें ऐसा जानों ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(वयम्) हम लोग (यथा) जैसे (अन्ये) अन्य परोपकारी धर्मात्मा (विद्वांसः) विद्वान् लोग (सूक्तेभिः) जिनमें अच्छे प्रकार से विद्या कही गयीं, हैं उन (वचोभिः) वेद के अर्थ और ज्ञानयुक्त वचनों से (देवयतीनम्) अपने लिये दिव्यभोग वा दिव्यगुणों की इच्छा करनेवाले (वः) तुम (पुरूणाम्) बहुत लोगों के (विशाम्) प्रजा लोगों के बीच में (प्रजानाम्) प्रजा के (सुखाय) सुख के लिये (यम्) कहे गये (यह्वम्) श्रेष्ठ गुणों का और (अग्निम्) परमेश्वर की (सीम्) हर ओर से (ईळते) स्तुति करते हैं। (तथा) वैसे ही (तम्) उस [परमेश्वर] की (इत्) ही (प्र) अच्छे प्रकार से (ईमहे) हम स्तुति करते हैं [और उसके] (प्रकाशयामः) गुणों का प्रकाश (च) भी करते हैं ॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (यह्वम्) गुणैर्महान्तम्। यह्व इति महन्नामसु पठितम्। निघं० ३।३। (पुरूणाम्) वह्वीनाम् (विशाम्) प्रजानां मध्ये (देवयतीनम्) आत्मनो देवान् दिव्यान् भोगान् गुणाँश्चेत्र्छन्तीनाम् (अग्निम्) परमेश्वरम् (सूक्तेभिः) सुष्टूक्ता विद्या येषु तैः (वचोभिः) वेदार्थज्ञानयुक्तैर्वचनैः (ईमहे) याचामहे। अत्र बहुलंछन्दसि इति श्यनो लुक्। ईमह इति याञ्चाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९। (यम्) उक्तम् (सीम्) सर्वतः। प्रसीमादित्योसृजत्। प्रासृजत्सर्वत इति वा। निरु० १।७। इति सीमव्ययं सर्वार्थे गृह्यते। (इत्) एव (अन्ये) परोपकारका बुद्धिमन्तो धार्मिका विद्वांसः (ईळते) स्तुवन्ति ॥१॥
विषयः- तत्रादावग्निशब्देनेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- वयं यथान्ये विद्वांसः सूक्तेभिर्वचोभिर्देवयतीनां पुरूणां वो युष्माकं विशां प्रजानां सुखाय यंयह्वमग्निं सीमीडते तथा तमिदेव प्रेमहे प्रकृष्टतया याचामहे प्रकाशयामश्च ॥१॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं यथा विद्वांसः प्रजासुखसंपत्तये सर्वव्यापिनं परमेश्वरं निश्चित्योपदिश्य च तद्गुणान् प्रयत्नेन विज्ञापयंति स्तावयंति तथैव वयमपि प्रकाशयामः। यथेश्वरोऽग्न्यादिपदार्थरचनपालनाभ्यां जीवेषु सर्वाणि सुखानि दधाति तथा वयमपि सर्वप्राणिसुखानि सदा निर्वर्त्तयेमेति बुध्यध्वम् ॥१॥
विषय
सूक्त - वचनों से प्रभु का आराधन
पदार्थ
१. अब अगले ८ सूक्तों [३६ से ४३ तक] का ऋषि 'कण्वो घौरः' है । कण - कण करके ज्ञान का संचय करने के कारण यह 'कण्व' है और उदात्त जीवनवाला होने से "घौर" - noble है । प्रभु की आराधना से ही जीवन का उत्कर्ष सिद्ध होता है, अतः उस आराधना को करता हुआ वह कहता है कि (पुरूणाम्) - अपना पालन व पूरण करनेवाली (देवयतीनाम्) - दिव्य गुणों की कामनावाली (वः विशाम्) - तुम प्रजाओं के (यह्वम्) - [यातश्च हूतश्च] जाने व पुकारने योग्य (अग्निम्) - उस अग्रणी प्रभु को (सूक्तेभिः वचोभिः) - अत्यन्त मधुर गुणों के प्रतिपादक वचनों से (प्र ईमहे) - प्रकर्षेण याचना करते हैं । उस प्रभु की हम प्रार्थना करते हैं जो उन्नति की इच्छुक प्रजाओं से पुकारा जाता है और सबको उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाला है ।
२. उस प्रभु की हम प्रार्थना करते हैं (यम्) - जिनको (सीम्) - सब ओर (अन्ये) - दूसरे लोग भी (इत्) - निश्चय से (इळते) - अपने में समिद्ध करते हैं । वस्तुतः सामान्य लोग भी, प्रभु का दार्शनिक विश्लेषण न कर सकनेवाले अपठित लोग भी अन्ततः उस प्रभु की ओर झुकते हैं । इस स्थिति में जो [पुरु व देवयति] प्रजाएँ हैं वे तो उस प्रभु का सूक्तवचनों से आराधन करेंगी ही ।
भावार्थ
भावार्थ - विद्वान् व अविद्वान् सभी अन्ततः उस प्रभु की ओर झुकते हैं ।
विषय
ईश्वर और राजा का अग्नि रूप से वर्णन ।
भावार्थ
(यं) जिस परसेश्वर की (सीम्) सब तरह से (अन्ये इत्) और जन भी (ईळते) स्तुति करते हैं उस (अग्निम्) ज्ञानवान् (यह्वं) शरण जाने और स्तुति करने योग्य, महान् परमेश्वर को (देवयतीनां) उत्तम गुणों, दिव्य तेजों और उत्तम विद्वानों की कामना करनेवाली (पुरूणां) बहुतसी (वः विशां) आप प्रजाजनों के हितार्थ (सूक्तेभिः वचोभिः) उत्तम अर्थोंवाले वचनों से (प्र ईमहे) प्रार्थना करते हैं। राजा के पक्ष में—जिसको अन्य लोग भी चाहें, उस महान् शक्तिशाली (देवयतीनां पुरूणां विशाम् वः) देव अर्थात् राजा को बनाने की इच्छा वाली आप बहु संख्यावाली प्रजाओं के हितार्थ आपमें से ही (अग्निम्) नायक पुरुष का (सूक्तेभिः वचोभिः) उत्तम अर्थों वाले वचनों से (प्र ईमहे) प्रार्थना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सर्वांचे रक्षण करणारा परमेश्वर व दूतांचा दृष्टान्त देऊन भौतिक अग्नीचे गुणवर्णन, दूतांच्या गुणांचा उपदेश, अग्नीच्या दृष्टान्ताने राजपुरुषाच्या गुणांचे वर्णन, सभापतीचे कृत्य, सभापती असलेल्या अधिकाऱ्याचे कथन, अग्नी इत्यादी पदार्थांनी उपयोग करून घेण्याची रीत, माणसांची सभापतीला प्रार्थना, सर्व माणसांनी सभाध्यक्षांबरोबर मिळून दुष्टांना मारणे व राजपुरुषाचा सहायक अशा जगदीश्वराच्या उपदेशाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे विद्वान लोक प्रजेच्या सुखसंपत्तीसाठी सर्वव्यापी परमेश्वराचा निश्चय करून व उपदेश करून प्रयत्नपूर्वक जाणतात व स्तुती करतात तसेच आम्हीही त्याच्या गुणांना प्रकट करावे. जसा ईश्वर अग्नी इत्यादी पदार्थांची उत्पत्ती व पालन करून जीवांना सुख देतो, तसे आम्हीही सर्व प्राण्यांना सुख द्यावे हे जाणून घ्या. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
With songs of praise and words of worship we adore Agni, Lord and light of the universe, whom other devotees too adore in many ways, and we pray to the lord of light and power and instant action, worthy of the love and devotion of many people far and wide who are seekers of divine knowledge and bliss for themselves.
Subject of the mantra
Now in the start of thirty sixth hymn, in its first mantra God’s virtues have been preached by the word “Agni”.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(vayam)=we, (yathā)=as, (anye)=other philanthropist godly, (vidvāṃsaḥ)=scholars, (sūktebhiḥ)= In which good kind of knowledge has been said, those, (vacobhiḥ)=with the meaningful and knowledgeable words of Vedas, (devayatīnam)= desirous of divine enjoyment or divine virtues, (vaḥ)=you, (purūṇām)= of many people, (viśām)= among the people, (prajānām)= of the people, (sukhāya)= for pleasure, (yam)= said, (yahvam)= of superior virtues, [aur]=and, (agnim)=of God, (sīm)= from all sides, (īḻate)=praise, (tathā)=in the same way, (tam)=that, [parameśvara]=God, (it)=only, (pra)= in a good way, (īmahe)= we praise [that and] (ca)=also (prakāśayāmaḥ)= elucidate his virtues.
English Translation (K.K.V.)
We people, like other philanthropist godly, scholars, to whom good kind of knowledge has been said, those desirous of divine enjoyment or divine virtues with the meaningful and knowledgeable words of Vedas. You praise from all sides the superior virtues said for the pleasure of the people. In the same way, we praise that God in a good way and also elucidate his virtues.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is vocal silent simile as a figurative in this mantra. O human beings! Just as you people, who are fully educated, learned with determination and preaching for the wealth of the happiness of the subjects, let us also elucidate His virtues, like the God by creating and maintaining things like fire, etc., all happiness in living beings. In the same way, we too should always accomplish happiness and knowledge for all beings, know that.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the first Mantra, by the word Agni, the attributes of God are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
With Vedic hymns and holy eulogies, we supplicate the Supreme Leader and Lord of all His devoted subjects who desire to lead divine lives, Whom other benevolent, wise and righteous persons also inflame in their hearts for the fulfilment of noble desires.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( यह्वम् ) गुणैर्महान्तम् । यह्न इति महन्नामसु पठितम् ( निघ० ३.३ ) = Great, Supreme. ( देवयतीनाम्) आत्मनो देवान् दिव्यान् भोगान् गुणान् च इच्छन्तीनाम् = Desiring divine enjoyments and attributes. (ईमहे) याचामहे ईमह इति याच्या कर्मसु पठितम् ( निघ० ३.१९ ) = Supplicate, beg, pray.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, as learned persons having known with certainty the attributes of the Omnipresent God, teach others about Him and urge upon them to glorify Him, so we also manifest His glory and attributes. As God bestows happiness upon all living beings by the creation and preservation of the fire and other substances, in the same way, we should also try to make all beings happy. This you should know well.
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