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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 15
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वन्द॑स्व॒ मारु॑तं ग॒णं त्वे॒षं प॑न॒स्युम॒र्किण॑म् । अ॒स्मे वृ॒द्धा अ॑सन्नि॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन्द॑स्व । मारु॑तम् । ग॒णम् । त्वे॒षम् । प॒न॒स्युम् । अ॒र्किण॑म् । अ॒स्मे इति॑ । वृ॒द्धाः । अ॒स॒न् । इ॒ह ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् । अस्मे वृद्धा असन्निह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वन्दस्व । मारुतम् । गणम् । त्वेषम् । पनस्युम् । अर्किणम् । अस्मे इति । वृद्धाः । असन् । इह॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (वन्दस्व) कामय (मारुतम्) मरुतमिमम् (गणम्) समूहम् (त्वेषम्) अग्न्यादिप्रकाशवद्द्रव्ययुक्तम् (पनस्युम्) पनायति व्यवहरति येन तदात्मन इच्छुम् #क्याच्छन्दासि इत्युः प्रत्ययः। (अर्किणम्) प्रशस्तोऽर्कोऽर्चनं विद्यते यस्मिंस्तम्। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (अस्मे) अस्माकम्। अत्र सुपांसुलुक् इत्यामः स्थाने शे। (वृद्धाः) दीर्घविद्यायुक्ताः (असन्) भवेयुः। लेट्प्रयोगः। (इह) अस्मिन् सर्वव्यवहारे ॥१५॥ #[अ० ३।२।१७०। सं०।]

    अन्वयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे विद्वंस्त्वं यथेहास्मे वृद्धा असम् तथाऽर्किणम् त्वेषं पनस्युं मारुतं गणं वन्दस्व ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा वायवः कार्याणि साधकत्वेन सुखप्रदा भवेयुस्तथा विद्यापुरुषार्थाभ्यां प्रयतितव्यम् ॥१५॥ अथास्मिन् वायु दृष्टान्तेन विद्वद्गुणवर्णितेनातीतेन सूक्तेन सहास्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इति सप्तदशो वर्गोऽष्टात्रिशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह विद्वान् क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्य ! तू जैसे (इह) इस सब व्यवहार में (अस्मे) हम लोगों के मध्य में (वृद्धाः) बड़ी विद्या और आयु से युक्त वृद्ध पुरुष सत्याचरण करनेवाले (असन्) होवें वैसे (अर्किणम्) प्रशंसनीय (त्वेषम्) अग्नि आदि प्रकाशवान् द्रव्यों से युक्त (पनस्युम्) अपने आत्मा के व्यवहार की इच्छा के हेतु (मारुतम्) वायु के इस (गणम्) समूह की (वन्दस्व) कामना कर ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे पवन कार्यों को सिद्ध करने के साधन होने से सुख देनेवाले होते हैं वैसे विद्या और अपने पुरुषार्थ से सुख किया करें ॥१५॥ इस सूक्त में वायु के दृष्टान्त से विद्वानों के गुण वर्णन करने से पूर्व सूक्त के साथ इस सूक्त की संगति जाननी चाहिये यह सत्रहवां वर्ग और अड़तीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३८॥

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    विषय

    फिर वह विद्वान् क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् त्वं यथा इह अस्मे वृद्धा असन् तथा अर्किणं त्वेषं पनस्युं मारुतं गणं वन्दस्व ॥१५॥

    पदार्थ

    हे (विद्वंन्)=विद्वान्! (त्वम्)=तुम, (यथा)=जैसे, (इह) अस्मिन् सर्वव्यवहारे=इस सब व्यवहार में, (अस्मे) अस्माकम्=हम लोगों के बीच में, (वृद्धाः) दीर्घविद्यायुक्ताः=अधिक विद्या से युक्त, (असन्) भवेयुः=होवें।  (तथा)=वैसे ही, (अर्किणम्) प्रशस्तोऽर्कोऽर्चनं विद्यते यस्मिंस्तम्=प्रशंसनीय स्तुतियां जिसमें हैं, ऐसे, (त्वेषम्) अग्न्यादिप्रकाशवद्द्रव्ययुक्तम्=अग्नि आदि के प्रकाश के समान द्रव्य से युक्त, (पनस्युम्) पनायति व्यवहरति येन तदात्मन इच्छुम्=जिससे व्यवहार  करता है, उस अपनी इच्छा के लिये, (मारुतम्) मरुतमिमम्=इस पवन के, (गणम्) समूहम्=समूह की, (वन्दस्व) कामय=कामना करो॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे पवन कार्यों को सिद्ध करने के साधन होने से सुख देनेवाले होते हैं वैसे विद्या और अपने पुरुषार्थ से सुख किया करें ॥१५॥ 

    विशेष

    सूक्त का भावार्थ- इस सूक्त में वायु के दृष्टान्त से विद्वानों के गुण वर्णन करने से पूर्व सूक्त के साथ इस सूक्त की संगति जाननी चाहिये यह सत्रहवां वर्ग और अड़तीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वंन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (यथा) जैसे, (इह) इस सब व्यवहार में (अस्मे) हम लोगों के बीच में, (वृद्धाः) अधिक विद्या से युक्त वृद्ध (असन्) होवें।  (तथा) वैसे ही (अर्किणम्) प्रशंसनीय स्तुतियां जिनमें हैं, ऐसे (त्वेषम्) अग्नि आदि के प्रकाश के समान द्रव्य से युक्त (पनस्युम्) जिससे व्यवहार  करता है, उसकी अपनी इच्छा के लिये (मारुतम्) इस पवन के (गणम्) समूह की (वन्दस्व) कामना करो॥१५॥
     

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वन्दस्व) कामय (मारुतम्) मरुतमिमम् (गणम्) समूहम् (त्वेषम्) अग्न्यादिप्रकाशवद्द्रव्ययुक्तम् (पनस्युम्) पनायति व्यवहरति येन तदात्मन इच्छुम् #क्याच्छन्दासि इत्युः प्रत्ययः। (अर्किणम्) प्रशस्तोऽर्कोऽर्चनं विद्यते यस्मिंस्तम्। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (अस्मे) अस्माकम्। अत्र सुपांसुलुक् इत्यामः स्थाने शे। (वृद्धाः) दीर्घविद्यायुक्ताः (असन्) भवेयुः। लेट्प्रयोगः। (इह) अस्मिन् सर्वव्यवहारे ॥१५॥ #[अ० ३।२।१७०। सं०।] 
    विषयः- पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे विद्वंस्त्वं यथेहास्मे वृद्धा असन् तथाऽर्किणम् त्वेषं पनस्युं मारुतं गणं वन्दस्व ॥१५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा वायवः कार्याणि साधकत्वेन सुखप्रदा भवेयुस्तथा विद्यापुरुषार्थाभ्यां प्रयतितव्यम् ॥१५॥
    सूक्तस्य भावार्थः- अथास्मिन् वायु दृष्टान्तेन विद्वद्गुणवर्णितेनातीतेन सूक्तेन सहास्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इति सप्तदशो वर्गोऽष्टात्रिशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३८॥

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    विषय

    प्राण - वन्दना

    पदार्थ

    १. हे साधक ! तू (मारुतं गणम्) - इन प्राणों के गण की (वन्दस्व) - स्तुति कर । इनकी महिमा को तू वेदमन्त्रों द्वारा उच्चारित कर ताकि इनकी साधना की ओर तेरी प्रवृत्ति हो । 
    २. यह मारुतगण कैसा है ? [क] (त्वेषम्) - दीप्तिवाला है । प्राणसाधना जहाँ बुद्धि को सूक्ष्म बनाती है, वहाँ शरीर को भी तेजोमय बनाकर हमें चमका देती है और तीव्र बुद्धि सें ज्ञान का प्रकाश भी दीप्त होता है । [ख] (पनस्युम्) - [स्तुतियोग्यम्] यह प्राणसमूह स्तुति के साथ हमारा योग करता है, हमें प्रभु - स्तवन की ओर प्रवण करता है तथा साथ में ही हमें संसार के व्यवहार में भी उत्तम बनाता है [पन व्यवहारे स्तुतौ च] । [ग] (अर्किणम्) - [अर्को मन्त्रः] यह मन्त्रोंवाला है । प्राणसाधना से बुद्धि की सूक्ष्मता होकर हमें वेदमन्त्रों का दर्शन होता है, एवं वेदार्थ के दर्शन के लिए भी यह प्राणसाधना नितान्त आवश्यक है, 
    ३. इसलिए हम यही चाहते हैं कि (इह) - इस मानव - जीवन में ये प्राण (अस्मे) - हमारे लिए (वृद्धाः) - खुब बढ़े हुए (असन्) - हों । इन प्राणों की उन्नति पर अन्य सब उन्नतियाँ निर्भर करती हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें प्राणों का स्तवन व आराधन करके 'ज्ञानदीप्त, स्तुतिकर्ता व मन्त्रोंवाला' बनना है, अर्थात् मन्त्रार्थ साक्षात् करना है । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि प्राण हमारा धारण उसी प्रकार करते हैं जैसे पिता पुत्र का [१] । प्राणसाधना होने पर न्यूनता नहीं रहती [२] । इस साधना से 'सुम्न - सुवित - सौभग' का लाभ होता है [३] । प्राणों का स्तोता 'अमृत' बन जाता है [४] । वह कर्तव्यपरायण होता है [५] । 'निर्ऋति व तृष्णा से दूर होना' भी प्राणसाधना का ही परिणाम है [६] प्राण का निरोध होने पर अद्भुत आनन्द की वृष्टि होती है [७] । प्रभु - प्राप्ति के आनन्द के सामने पार्थिव भोग तुच्छ हो जाते हैं [९] । हमारे प्राण इडादि नाड़ियों में विचरण करके हमें अद्भुत ज्ञानज्योति देते हैं । शरीररूप रथ सुन्दर बन जाता है [१२] । हम प्रभुस्तवन करते हुए वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ करें व गाएँ [१३ - १४] । हम 'त्वेष, पनस्यु व अर्की' बनने के लिए इस प्राणगण की वन्दना करें [१५] । इन्हीं मरुतों - रणभूमि में मरनेवालों का वर्णन करते हुए कहते हैं -
     

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    विषय

    मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे मनुष्य! तू (त्वेषं) अति तेजस्वी (पनस्युम्) व्यवहार कुशल, (अर्किणम्) उत्तम ज्ञानसम्पन्न, (मारुतम् गणम्) प्राणों और वायुगणों के समान उपकारी वीरों और विद्वानों के समूह को (वन्दस्व) अभिवादन और स्तुति कर। वे (अस्मे) हमारे (वृद्धाः) ज्ञान और आयु वृद्ध होकर (इह) इस लोक में (असन्) हितकारी हों। वायुगण—विद्युत् से दीप्तियुक्त हैं, वे सूर्य से युक्त होने से 'अर्को' हैं। इति सप्तदशो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू कार्य सिद्ध करण्याचे साधन असल्यामुळे सुख देणारे असतात तसे माणसांनी विद्या व आपल्या पुरुषार्थाने सुख मिळवावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Honour the powers of the winds and Marut- group of nature and prana, brilliant, admirable and awful source of light and energy. Reverence the brilliant, dynamic scholars of light and energy rich in possibilities of growth and nourishment. Honour and respect power and these people so that great men may arise among us here.

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    Subject of the mantra

    Then, what should that scholar do, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvaṃn)=scholar! (tvam)=you, (yathā)=like,(iha)=in all this conduct, (asme)=between us, (vṛddhāḥ)= learned elders, (asan)=be, (tathā)=in the same way, (arkiṇam)=praiseworthy pryers are in which, such (tveṣam)=with substances like fire and light, (panasyum)=for one's own will by which behave, (mārutam)=of this wind, (gaṇam)=of the group, (vandasva)=desire.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! In all this conduct like your, there should be more learned elders among us. In the same way, praiseworthy prayers are there. Wish for this group of airs for your desire of the one, who behaves like the light of fire et cetera.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn, before describing the virtues of scholars with the example of air, the association of this hymn with the previous hymn should be known.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. Human beings should give happiness through learning and their efforts, just as the wind gives happiness by being the means of accomplishing tasks.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What else should he do is taught in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Sing glory to the host of the maruts (learned priests ) brilliant, praise-worthy, musicians heroes, active like the winds. Here let them be well with us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( त्वेषम् ) अग्न्यादिप्रकाशवद्रव्ययुक्तम् = Brilliant. (अकिणम् ) प्रशस्त: अर्क: अर्चनं विद्यते यस्मिन् तम् । अत्र प्रशंसार्थ इनिः । = Praise worthy.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    "Men should endeavor with knowledge and exertion in such a way that the wind may always be source of happiness. accomplishing their works when properly utilized.

    Translator's Notes

    In this 38th, Hymn also the attributes of learned persons have been described by the illustration of the air so it has connection with the previous hymn. इति सप्तदशो वर्ग: भ्रष्टात्रिशं सूक्तं च समाप्तम् । Here ends the seventeenth Verga and thirty-eighth hymn of the 1st Mandala of the Rigveda.

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