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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृदुपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः

    उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते देव॒यन्त॑स्त्वेमहे । उप॒ प्र य॑न्तु म॒रुतः॑ सु॒दान॑व॒ इन्द्र॑ प्रा॒शूर्भ॑वा॒ सचा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒ । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । त्वा॒ । ई॒म॒हे॒ । उप॑ । प्र । य॒न्तु॒ । म॒रुतः॑ । सु॒ऽदान॑वः । इन्द्र॑ । प्रा॒सूः । भ॒व॒ । सचा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठ । ब्रह्मणः । पते । देवयन्तः । त्वा । ईमहे । उप । प्र । यन्तु । मरुतः । सुदानवः । इन्द्र । प्रासूः । भव । सचा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (उत्) उत्कृष्टार्थे (तिष्ठ) (ब्रह्मणः) वेदस्य (पते) स्वामिन् (देवयन्तः) सत्यविद्याः कामयमानाः (त्वा) त्वाम् (ईमहे) जानीम (उप) समीप्ये (प्र) प्रतीतार्थे (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (मरुतः) आर्त्विजीना विद्वांसः (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां ते (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्यप्रद (प्राशूः) यः प्राश्नुते प्रकृष्टतया व्याप्नोति सः (भव) अत्र द्वचोतस्तिङ इति दीर्घः। (सचा) समवेतेन विज्ञानेन ॥१॥

    अन्वयः

    #पुनर्मनुष्यैर्वेदविदङ्कथमुपदिशेदित्युपदिश्यते। #[पुनर्मनुष्या वेदविदमुपदेशाय कथं प्रार्थयेयुरित्युपदिश्यते। सं०]

    पदार्थः

    हे ब्रह्मणस्पत इन्द्र ! यथा सचा सह देवयन्तः सुदानवो मरुतो वयं त्वेमहे यथा च सर्वे जना उपप्रयन्तु तथा त्वं प्राशूः सर्वसुखप्रापको भव सर्वस्य हितायोत्तिष्ठ ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्या यत्नतो विद्वत्सङ्गसेवाविद्यायोगधर्मसर्वोपकाराद्युपायैः सर्वविद्याधीशस्य परमेश्वरस्य विज्ञानेन प्राप्तानि सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यानि प्रापयितव्यानि च ॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को उचित है, कि वेदविद जनों को कैसे उपदेश करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है। फिर मनुष्य वेद के विद्वान् से उपदेश करने के लिए कैसे प्रार्थना करें। सं०

    पदार्थ

    हे (ब्रह्मणस्पते) वेद की रक्षा करनेवाले (इन्द्र) अखिल विद्यादि परमैश्वर्ययुक्त विद्वन् ! जैसे (सचा) विज्ञान से (देवयन्तः) सत्य विद्याओं की कामना करने (सुदानवः) उत्तम दान स्वभाववाले (मरुतः) विद्याओं के सिद्धान्तों के प्रचार के अभिलाषी हम लोग (त्वा) आपको (ईमहे) प्राप्त होते और जैसे सब धार्मिक जन (उपप्रयन्तु) समीप आवें वैसे आप (प्राशूः) सब सुखों के प्राप्त करानेवाले (भव) हूजिये और सबके हितार्थ प्रयत्न कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्य अति पुरुषार्थ से विद्वानों का संग उनकी सेवा विद्या योग धर्म और सबके उपकार करना आदि उपायों से समग्र विद्याओं के अध्येता परमात्मा के विज्ञान और प्राप्ति से सब मनुष्यों को प्राप्त हों और इसीसे अन्य सबको सुखी करें ॥१॥

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    विषय

    फिर मनुष्यों को उचित है, कि वेदविद जनों को कैसे उपदेश करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है। फिर मनुष्य वेद के विद्वान् से उपदेश करने के लिए कैसे प्रार्थना करें।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे ब्रह्मणः पते इन्द्र ! यथा सचा सह देवयन्तः सुदानवः मरुतः वयं त्वा ईमहे यथा च सर्वे जनाः उप प्र यन्तु तथा त्वं प्राशूः सर्व सुखप्रापकः भव सर्वस्य हिताय उत्तिष्ठ ॥१॥

    पदार्थ

    हे (ब्रह्मणः) वेदस्य=वेद के,  (पते) स्वामिन्=स्वामी, (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्यप्रद= विद्या आदि परम ऐश्वरर्यों प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! (यथा)=जैसे, (सचा) समवेतेन विज्ञानेन=इकट्ठा किये हुए विशेष ज्ञान के, (सह)=साथ, (देवयन्तः) सत्यविद्याः कामयमानाः= सत्यविद्या की कामना करनेवाले, (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां ते=वे जिनके शोभनीय दान हैं, (मरुतः) आर्त्विजीना विद्वांसः=यज्ञ करनेवाले पुरोहित अनुरूप विद्वान्, (वयम्)= हम लोग, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (ईमहे) जानीम=जानें। (च)=और, (यथा)=जैसे,  (सर्वे)=समस्त,  (जनाः)=लोग,  (उप)=समीपता से [और] (प्र) प्रतीतार्थे=दृढ निश्चय रूप से, (यन्तु) प्राप्नुवन्तु=प्राप्त होवें,  (तथा)=वैसे ही,  (त्वम्)=तुम, (प्राशूः) यः प्राश्नुते प्रकृष्टतया व्याप्नोति सः=अच्छी तरह से प्राप्त करता है और व्याप्त होता है, वह,  (सर्व)=सब,  (सुखप्रापकः)=सुख प्राप्त करनेवाला,  (भव)=होवे।  (सर्वस्य)=सबके,  (हिताय)=हित के लिये, (उत्) उत्कृष्टार्थे=उत्कृष्ट, (उत्तिष्ठ)=प्रयास करें ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

     इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्य अति पुरुषार्थ से विद्वानों का संग उनकी सेवा विद्या योग धर्म और सबके उपकार करना आदि उपायों से समग्र विद्याओं के अध्येता परमात्मा के विज्ञान और प्राप्ति से सब मनुष्यों को प्राप्त हों और इसीसे अन्य सबको सुखी करें ॥१॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (ब्रह्मणः) वेद के  (पते) स्वामी [और] (इन्द्र) विद्या आदि परम ऐश्वरर्यों को प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! (यथा) जैसे (सचा) इकट्ठा किये हुए विशेष ज्ञान के (सह) साथ (देवयन्तः) सत्यविद्या की कामना करनेवाले (सुदानवः) वे जिनके शोभनीय दान हैं  [और]  (मरुतः) यज्ञ करनेवाले पुरोहित के अनुरूप विद्वान् (वयम्) हम लोग (त्वा) तुमको (ईमहे) जानें। (च) और (यथा) जैसे  (सर्वे) समस्त  (जनाः) लोग  (उप) समीपता से  (प्र) दृढ निश्चय रूप से (यन्तु) प्राप्त होवें।  (तथा) वैसे ही  (त्वम्) तुम (प्राशूः) जो अच्छी तरह से प्राप्त करता है और व्याप्त होता है, ऐसे  (सर्व) सब  (सुखप्रापकः) सुख प्राप्त करनेवाले,  (भव) होओ।  (सर्वस्य) सबके  (हिताय) हित के लिये (उत्) उत्कृष्ट (उत्तिष्ठ) प्रयास करो॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत्) उत्कृष्टार्थे (तिष्ठ) (ब्रह्मणः) वेदस्य (पते) स्वामिन् (देवयन्तः) सत्यविद्याः कामयमानाः (त्वा) त्वाम् (ईमहे) जानीम (उप) समीप्ये (प्र) प्रतीतार्थे (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (मरुतः) आर्त्विजीना विद्वांसः (सुदानवः) शोभनं दानुर्दानं येषां ते (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्यप्रद (प्राशूः) यः प्राश्नुते प्रकृष्टतया व्याप्नोति सः (भव) अत्र द्वचोतस्तिङ इति दीर्घः। (सचा) समवेतेन विज्ञानेन ॥१॥ 
    विषयः- पुनर्मनुष्या वेदविदमुपदेशाय कथं प्रार्थयेयुरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे ब्रह्मणस्पत इन्द्र ! यथा सचा सह देवयन्तः सुदानवो मरुतो वयं त्वेमहे यथा च सर्वे जना उपप्रयन्तु तथा त्वं प्राशूः सर्वसुखप्रापको भव सर्वस्य हितायोत्तिष्ठ ॥१॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)-मनुष्या यत्नतो विद्वत्सङ्गसेवाविद्यायोगधर्मसर्वोपकाराद्युपायैः सर्वविद्याधीशस्य परमेश्वरस्य विज्ञानेन प्राप्तानि सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यानि प्रापयितव्यानि च ॥१॥
     

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    विषय

    आचार्य का आदेश

    पदार्थ

    १. उन्नति का आरम्भ आचार्य - कुल में आचार्य के समीप पहुँचकर ज्ञान की साधना से होता है, अतः कहते हैं कि हे (ब्रह्मणस्पते) - ज्ञान के स्वामिन् आचार्य ! उत्तिष्ठ हमारी उन्नति के लिए आप उठ खड़े होइए, अर्थात् उद्यत हो जाइए । (देवयन्तः) - सब प्रकार की वासनाओं को जीतने की कामना से [दिव् विजिगीषा] ज्ञान की ज्योति को प्राप्त करने की भावना से [दिव द्युति] (त्वा ईमहे) - आपकी प्रार्थना करते हैं । 
    २. हम यही चाहते हैं कि (सदानवः) - शोभन ज्ञान के दानवाले [दा दाने] अथवा अज्ञानान्धकार का खण्डन करनेवाले [दाप् लवणे] (मरुतः) - [मिराविणः, निरु० ११३] व्यर्थ के शब्द न बोलनेवाले [महद् द्रवन्ति, निरु० ११ । १३] खूब क्रियाशील [मरुतो रश्मयः, तां १४ । १ । ३ । ९] ज्ञान - रश्मियों के पुजभूत आचार्य (उपप्रयन्तु) - हमें समीपता से प्राप्त हों । इन आचार्यों के समीप रहकर ही हम देव बन सकेंगे । 
    ३. हे (इन्द्र) - इन्द्रियों के अधिष्ठाता आचार्य ! आप (सचा) - सदा हमारे साथ रहते हुए हमें अपना 'अन्तेवासी' बनाते हुए (प्राशः) - [प्रकर्षेणशृणाति] ज्ञान के आवरणभूत (वृत्र) - [वासना] के नाश करनेवाले (भव) - हूजिए । इस वृत्र के विनाश से ही तो आप हमारे ज्ञान को दीप्त करनेवाले होंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - आचार्य [क] (ब्रह्मणस्पति) - ज्ञान का पति [ख] (मरुत्) - मितरावी, क्रियाशील [ग] (सुदानु) - अज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाला [घ] (इन्द्र) - जितेन्द्रिय व [ङ] (सचा) - सदा विद्यार्थी के साथ रहनेवाला और [च] इस प्रकार (प्राशू) - व्यसनों को, विद्यार्थी के जीवन से, नष्ट करनेवाला हो । 
     

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    विषय

    बृहस्पति, वेदज्ञ विद्वान के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (ब्रह्मणस्पते) वेदज्ञान के परिपालक विद्वन्! ब्रह्माण्ड के पालक परमेश्वर! और बड़े सैन्यसमूह के पालक सेनापते! राजन्! हम (देवयन्तः) विद्यादि उत्तम गुणों की, और विजयशील राजा की कामना करते हुए (त्वा) तुझको (ईमहे) प्रार्थना करते हैं कि (उत् तिष्ठ) उठ, तैयार हो। (सुदानवः) उत्तम कल्याणकारी शुभ उपायन तथा प्रिय पदार्थों के दाता और प्रजाओं के रक्षक (मरुतः) विद्वान् जन और वीर पुरुष (उप प्र यन्तु) आगे बढ़ें, अपने प्रमुख पुरुष के पास विनयपूर्वक आवें और तब हे (इन्द्र) ज्ञान वाणी के दातः! आचार्य! और ऐश्वर्यवन् राजन्! सेनापते! तू (प्राशुः) अति शीघ्रता से ज्ञानमार्ग में चलने और युद्धमार्ग में ले चलनेहारा होकर (सचा) उन शिष्यों और वीरगणों के साथ (भव) रह, उनके साथ बैठ। गुरु शिक्षा दे और वीर नेता विजय करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः—२, १, ८, निचदुपरिष्टाद्बृहती । ५ पथ्याबृहती । ३, ७ आर्चीत्रिष्टुप् । ४,६ सतः पंक्तिनिचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    एकोणचाळिसाव्या सूक्तात सांगितलेल्या विद्वानांच्या कार्यरूप अर्थाबरोबर ब्रह्मणस्पती इत्यादी शब्दांच्या अर्थाच्या संबंधाने पूर्वसूक्ताची संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी अत्यंत पुरुषार्थाने विद्वानांची संगती, त्यांची सेवा, विद्या, योगधर्म, सर्वांवर उपकार इत्यादी उपायांनी संपूर्ण विद्याधीश परमेश्वराची विज्ञानाने प्राप्ती करावी व सर्व माणसांना प्राप्ती करवून सुखी करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Arise Brahmanaspati, Master of Divinity, seer blest and lord of universal knowledge. Lovers of Divinity, we approach you and pray. Let the Maruts, heroes of valour and splendour fast as winds and liberal men of yajnic charity come and march ahead. May Indra, lord of knowledge and power bless them with light and success.

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    Subject of the mantra

    Then, it is appropriate for humans, how to preach the people who are having knowledge of Vedas. Then, how can humans pray to the scholar of the Vedas to preach them, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (brahmaṇaḥ)=of Vedas (pate)=lord, [aura]=and, (indra)=God who bestows knowledge etc. ultimate majesties! (yathā)=like, (sacā)=of accumulated special knowledge, (saha)=with, (devayantaḥ)=seekers of the truthful knowledge, (sudānavaḥ)=those who have wonderful donations, [aura]=and, (marutaḥ)=scholar equal to the priest performing the sacrifice (vayam)=we, (tvā)=to you, (īmahe)=must know, (ca)=and, (yathā)=like, (sarve)=all, (janāḥ)=people, (upa)=from proximity, (pra)=resolutely, (yantu)=get obtained, (tathā)=in the same way, (tvam)=you, (prāśūḥ)=one who receives well and pervades, such (sarva)=all, (sukhaprāpakaḥ)=enjoyers, (bhava)=be, (sarvasya)=of all, (hitāya)=for the benefit, (ut)=excellent, (uttiṣṭha)=make efforts.

    English Translation (K.K.V.)

    O Lord of the Vedas and the giver of supreme majesties like knowledge! We know you, those who wish to know the truth with special knowledge of such a field, those who have admirable donations and are learned like a priest who performs yajan. And in the same way, all people are received closely and with firm determination. In the same way, you who are well received and pervaded, may you be the recipient of all such happiness. Make excellent efforts for the benefit of all.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. May all human beings attain the company of learned men by making great efforts, by means of service, education, yoga, righteousness and doing favours to all, by the knowledge and attainment of God, the student of all the knowledge and make others happy by this only.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a man say to the knower of the Vedas is taught in the 1st Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Master of the Vedic knowledge giver of the supreme wealth of wisdom, desiring true sciences with knowledge, possessing charitable disposition, we priests and other learned persons know you. Be bringer of all happiness to us and get up (be alert) for the welfare of all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ब्रह्मणः) वेदस्य = Of the Vedas. (देवयन्तः) सत्यविद्याः कामयमानाः = Desiring true sciences. ( ईमहे) जानीमः = We know. ( मरुतः ) आर्त्विजिना विद्वांसः = Learned priests. (प्राशू: ) यः प्राश्नुते प्रकृष्टतया व्याप्नोति सः = All-pervading.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should enjoy all happiness and bring the same to others by the association of and service to the learned persons, knowledge, Yoga, righteousness, doing good to others and other means. They should get happiness of all kinds by acquiring the knowledge of God-the Lord of all true wisdom.

    Translator's Notes

    (ब्रह्म ) वेदो ब्रह्म जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ४.२५.३ = Veda. इण्-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्रथमार्थ ग्रहणम् ।

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