ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
यं रक्ष॑न्ति॒ प्रचे॑तसो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । नू चि॒त्स द॑भ्यते॒ जनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । रक्ष॑न्ति । प्रऽचे॑तसः । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । नु । चि॒त् । सः । द॒भ्य॒ते॒ । जनः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा । नू चित्स दभ्यते जनः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । रक्षन्ति । प्रचेतसः । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । नु । चित् । सः । दभ्यते । जनः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(यम्) सभासेनेशं मनुष्यं (रक्षन्ति) पालयन्ति (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं येषान्ते (वरुणः) उत्तम गुणयोगेन श्रेष्ठत्वात्सर्वाध्यक्षत्वार्हः (मित्रः) सर्वसुहृत् (अर्यमा) पक्षपातं विहाय न्यायं कर्त्तुं समर्थः (नु) सद्यः। अत्र ऋचितुनु०। इति दीर्घः। (चित्) एव (सः) रक्षितः (दभ्यते) हिंस्यते (जनः) प्रजासेनास्थो मनुष्यः ॥१॥
अन्वयः
अनेकैः सुरक्षितोपि कदाचिच्छत्रुणापीड्यत इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
प्रचेतसो वरुणो मित्रोऽर्यमा चैते यं रक्षन्ति स चिदपि कदाचिन्नु दभ्यते ॥१॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वोत्कृष्टः सेनासभाध्यक्षः सर्वमित्रो दूतोऽध्यापक उपदेष्टा धार्मिको न्यायाधीशश्च कर्त्तव्यः। तेषां सकाशाद्रक्षणादीनि प्राप्य सर्वान् शत्रून् शीघ्रं हत्वा चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशास्य सर्वहितं संपादनीयम्। नात्र केनचिन्मृत्युना भेतव्यं कुतः सर्वेषां जातानां पदार्थानां ध्रुवो मृत्युरित्यतः ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अनेक वीरों से रक्षित भी राजा कभी शत्रु से पीड़ित होता ही है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
(प्रचेतसः) उत्तमज्ञानवान् (वरुणः) उत्तम गुण वा श्रेष्ठपन होने से सभाध्यक्ष होने योग्य (मित्रः) सबका मित्र (अर्यमा) पक्षपात छोड़कर न्याय करने को समर्थ ये सब (यम्) जिस मनुष्य वा राज्य तथा देश की (रक्षन्ति) रक्षा करते हों (सः) (चित्) वह भी (जनः) मनुष्य आदि (नु) जल्दी सब शत्रुओं से कदाचित् (दभ्यते) मारा जाता है ॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि सबसे उत्कृष्ट सेना सभाध्यक्ष सबका मित्र दूत पढ़ाने वा उपदेश करनेवाले धार्मिक मनुष्य को न्यायाधीश करें तथा उन विद्वानों के सकाश से रक्षा आदि को प्राप्त हो सब शत्रुओं को शीघ्र मार और चक्रवर्त्तिराज्य का पालन करके सबके हित को संपादन करें किसी को भी मृत्यु से भय करना योग्य नहीं है क्योंकि जिनका जन्म हुआ है उनका मृत्यु अवश्य होता है। इसलिये मृत्यु से डरना मूर्खों का काम है ॥१॥
विषय
वरुण - मित्र अर्यमा
पदार्थ
१. (यम्) - जिसको (प्रचेतसः) - प्रकृष्ट ज्ञानवाले (वरुणः) - वरुण, (मित्रः) - मित्र और (अर्यमा) - अर्यमा (रक्षन्ति) - रक्षित करते हैं, (सः) - वह (जनः) मनुष्य (नूचित्) - शीघ्र ही (दभ्यते) - शत्रुओं की हिंसा कर पाता है [दभ्नोति, सा०] ।
२. मन्त्र का सरलार्थ स्पष्ट है कि वरुण, मित्र, अर्यमा से रक्षित होने पर हम हिंसित नहीं होते, प्रत्युत शत्रुओं का हिंसन करनेवाले होते हैं । इनमें 'वरुण' द्वेषनिवारण का देवता है, द्वेष को समाप्त करके ही हम 'वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः' श्रेष्ठ बनते हैं । द्वेष - निवारण के बाद 'मित्र' - सबके साथ स्नेह करने का देवता है । हम किसी से द्वेष तो करते ही नहीं, अधिक - से - अधिक व्यक्तियों का हित करने के लिए यत्नशील होते हैं [प्रमीतेः त्रायते] । यह अधिक - से - अधिक प्राणियों का हित करना ही 'सत्य' है "यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा" । इस हित को करने के लिए हम कुछ - न - कुछ देनेवाले बनते हैं । यह 'अर्यमा' देने की देवता है । 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति' [तै० १/१/२/४] । इस लोकहित के कार्य में काम - क्रोध को जीतना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है [अरीन् नियच्छति, निरु० ११/२३] । एवं हम द्वेष को दूर करते हैं, सबके साथ स्नेह से चलते हैं, कुछ - न - कुछ देते हैं और क्रोधादि को काबू में रखते हैं । इस प्रकार 'प्रचेतस्' - प्रकृष्ट ज्ञान से अपने को युक्त करके अपना रक्षण कर पाते हैं ।
३. इन वरुण, मित्र व अर्यमा से रक्षित होकर हम कभी हिंसित नहीं होते, न रोगों से आक्रान्त होते हैं और न ही मानस आधियों से ।
भावार्थ
भावार्थ - हम निर्द्वेष, सस्नेह, देनेवाले बनकर अपना रक्षण करें, आधि - व्याधियों का शिकार होने से बचें ।
विषय
वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ
(यम्) जिस प्रमुख पुरुष को (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ सभापति या दुष्टों के वारणकारी, (मित्रः) सबका मित्र, विद्वान्, उपदेशक, आचार्य, (अर्यमा) पक्षपात रहित, न्यायकारी, धर्माध्यक्ष, ये सब (प्रचेतसः) उत्तम ज्ञान से सम्पन्न जन सुचित्त सावधान होकर (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं (जनः) वह पुरुष (नू चित्) कभी ही (दभ्यते) किसी से मारा जा सके, या पीड़ित हो सके?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अनेक वीरों से रक्षित भी राजा कभी शत्रु से पीड़ित होता ही है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
प्रचेतसः वरुणः मित्रः अर्यमा च एते यं रक्षन्ति स चित् अपि कदाचित् नु दभ्यते जनः ॥१॥
पदार्थ
(प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं येषान्ते=प्रकृष्ट विशेष ज्ञानवाले, (वरुणः) उत्तम गुणयोगेन श्रेष्ठत्वात्सर्वाध्यक्षत्वार्हः=उत्तम गुणों, श्रेष्ठता और सबकी अध्यक्षता के योग्य, (मित्रः) सर्वसुहृत्=सबके प्रतिसुहृदयता रखनेवाले मित्र, (च)=और, (अर्यमा) पक्षपातं विहाय न्यायं कर्त्तुं समर्थः=पक्षपात छोड़कर न्याय करने में समर्थ, (एते)=ये, (यम्) सभासेनेशं मनुष्यं=सभा और सेना के स्वामी मनुष्यों की, (रक्षन्ति) पालयन्ति=रक्षा करते हैं, (सः) रक्षितः=रक्षा किया हुआ, (चित्) एव=ही, (जनः) प्रजासेनास्थो मनुष्यः=प्रजा और सेना में स्थित मनुष्यों [शत्रुओं को] (अपि)=भी, (कदाचित्)= कभी-कभी, (नु) सद्यः=तुरन्त ही, (दभ्यते) हिंस्यते=मार देता है॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा सबसे उत्कृष्ट सेनापति और सभाध्यक्ष सबके मित्र, दूत, अध्यापक और उपदेश करनेवाले धार्मिक मनुष्य को न्यायाधीश बनाना चाहिए। उनसे समीपता से रक्षण आदि को प्राप्त करके सब शत्रुओं को शीघ्र मारकर चक्रवर्त्ति राज्य का शासन करते हुए, सबके हित का संपादन करना चाहिए। यहाँ किसी की भी मृत्यु से भय नहीं करना चाहिए, क्योंकि समस्त उत्पन्न हुए पदार्थों की मृत्यु होती है, ऐसा निश्चित है ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(प्रचेतसः) प्रकृष्ट विशेष ज्ञानवाले, (वरुणः) उत्तम गुणों, श्रेष्ठता और सबकी अध्यक्षता के योग्य, (मित्रः) सबके प्रतिसुहृदयता रखनेवाले मित्र (च) और (अर्यमा) पक्षपात छोड़कर न्याय करने में समर्थ (एते) ये (यम्) सभा और सेना के स्वामी मनुष्यों की (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं। (सः) रक्षा किया हुआ (चित्) ही (जनः) प्रजा और सेना में स्थित मनुष्यों [अर्थात् शत्रुओं को] (अपि) भी (कदाचित्) कभी-कभी (नु) तुरन्त ही (दभ्यते) मार देता है॥१॥
संस्कृत भाग
अनेकैः सुरक्षितोपि कदाचिच्छत्रुणापीड्यत इत्युपदिश्यते। (महर्षिकृत)- (यम्) सभासेनेशं मनुष्यं (रक्षन्ति) पालयन्ति (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं येषान्ते (वरुणः) उत्तम गुणयोगेन श्रेष्ठत्वात्सर्वाध्यक्षत्वार्हः (मित्रः) सर्वसुहृत् (अर्यमा) पक्षपातं विहाय न्यायं कर्त्तुं समर्थः (नु) सद्यः। अत्र ऋचितुनु०। इति दीर्घः। (चित्) एव (सः) रक्षितः (दभ्यते) हिंस्यते (जनः) प्रजासेनास्थो मनुष्यः ॥१॥ (महर्षिकृत)- मनुष्यैः सर्वोत्कृष्टः सेनासभाध्यक्षः सर्वमित्रो दूतोऽध्यापक उपदेष्टा धार्मिको न्यायाधीशश्च कर्त्तव्यः। तेषां सकाशाद्रक्षणादीनि प्राप्य सर्वान् शत्रून् शीघ्रं हत्वा चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशास्य सर्वहितं संपादनीयम्। नात्र केनचिन्मृत्युना भेतव्यं कुतः सर्वेषां जातानां पदार्थानां ध्रुवो मृत्युरित्यतः ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात प्रजेचे रक्षण, शत्रूंना जिंकणे, मार्ग शोधणे, यानाची रचना निर्मिती व त्यांना चालविणे, द्रव्यांची वाढ, श्रेष्ठांबरोबर मैत्री, दुष्टांवर विश्वास न ठेवणे, अधर्माचरणाला सदैव घाबरणे या प्रकारे पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
माणसांनी सर्वांत उत्कृष्ट सेना सभाध्यक्ष, सर्वांचा मित्र, दूत, शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्या धार्मिक माणसाला न्यायाधीश करावे व त्या विद्वानाजवळ राहून रक्षण करून घ्यावे. सर्व शत्रूंना नष्ट करून चक्रवर्ती राज्याचे पालन करावे व सर्वांचे हित करावे. कुणालाही मृत्यूचे भय वाटता कामा नये. कारण ज्यांचा जन्म झालेला आहे त्याचा मृत्यू अवश्य होतो. त्यासाठी मृत्यूला घाबरणे मूर्खांचे काम आहे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The man whom Prachetas, men of knowledge and wisdom, Varuna, distinguished and meritorious man, Mitra, friend of all, Aryama, man of justice, all these protect and advance (is really strong). Can he ever be hurt, bullied or suppressed? No!
Subject of the mantra
Even a king protected by many heroes sometimes suffers from the enemy, this topic has been preached in this verse.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(pracetasaḥ)= expert in knowledge, (varuṇaḥ)= Worthy of good qualities, excellence and presiding over all, (mitraḥ)= kind hearted friend to all, (ca)=and (aryamā)=capable of doing justice without partiality (ete)=these, (yam)=of master of assembly and army, (rakṣanti)=protect, (saḥ)=protected, (cit) =only, (janaḥ)=men in the army [arthāt śatruoṃ ko]= i.e. to the enemies, (api)=also, (kadācit)=sometimes,(nu) =immediately, (dabhyate)=kills.
English Translation (K.K.V.)
Possessing excellent special knowledge, excellent qualities, excellence and capable of presiding over all, friendly towards all and able to do justice leaving partiality, these lords of assembly and army protect humans. The protected one sometimes kills the subjects and the men in the army i.e. the enemies immediately. Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- The most excellent commander and President of the Assembly among human beings, a friend of all, a messenger, a teacher and a righteous person who preaches should be made the judge. By being close to them and getting protection etc., one should quickly kill all the enemies and rule the Chakravarti kingdom and serve everyone's welfare. Here one should not be afraid of anyone's death, because it is certain that all created things die.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Never is he injured or harmed, whom excellently wise, noble, friendly and just people protect.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Never is he injured or harmed, whom excellently wise, noble, friendly and just people protect.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[ वरुण: ] उत्तमगुणयोगेन श्रेष्ठत्वात् सर्वाध्यक्षत्वार्हः: = The best person qualified to be the President of all assemblies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should elect the best person as the President of the Assembly or Commander-in-Chief of the Army, one who is friendly to all as ambassador, teacher and preacher and a righteous person as dispenser of justice. Having obtained protection from them, they should kill all their enemies, properly administer a vast Government and bring about the welfare of all. None should be afraid of death, as death inevitable to all living beings.
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