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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - पूषा छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    सं पू॑ष॒न्नध्व॑नस्तिर॒ व्यंहो॑ विमुचो नपात् । सक्ष्वा॑ देव॒ प्र ण॑स्पु॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । पू॒ष॒न् । अध्व॑नः । ति॒र॒ । वि । अंहः॑ । वि॒ऽमु॒चः॒ । न॒पा॒त् । सक्ष्व॑ । दे॒व॒ । प्र । नः॒ । पु॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं पूषन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात् । सक्ष्वा देव प्र णस्पुरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । पूषन् । अध्वनः । तिर । वि । अंहः । विमुचः । नपात् । सक्ष्व । देव । प्र । नः । पुरः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (सम्) सम्यगर्थे (पूषन्) पोषकविद्यया पुष्टिकारक विद्वन्। पूषेति पदना०। निघं० ५।६। (अध्वनः) मार्गात् (तिर) पारं गच्छ (वि) विशेषार्थे (अंहः) दुःखरोगवेगम्। अत्र अमेर्हुक्च। उ० ४।२२०। चादसुन्। अनेन वेगो गृह्यते (विमुंचः) विमुंच (नपात्) न विद्यते पातो यस्य तत्सुंबुद्धो (सक्ष्व) सक्तो भव। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः इति दीर्घः। (देवः) दिव्यगुणसम्पन्न (प्र) प्रकृष्टार्थे (नः) अस्मान्। अत्र उपसर्गा#दनोत्परः। अ० ८।४।२७। अनेन णत्वम् (पुरः) पूर्वम् ॥१॥ #[उपसर्गाद्बहुल। सं०]

    अन्वयः

    प्रवसन्मार्गे किं किमेष्टव्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे पूषन्नपाद्देव विद्वंस्त्वं दुःखस्याध्वनः पारं वितिर विशिष्टतया प्रापयांहो रोगदुःखवेगं विमुचो दूरीकुरु पुरः पूर्वं नोऽस्मान्प्रसक्ष्व सद्गुणेषु प्रसक्तान् कुरु ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यथा परमेश्वरस्योपासनेन तदाज्ञापालनेन च सर्वदुःखपारं गत्वा सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यान्येवं धार्मिकसर्वमित्रपरोपकर्तुर्विदुषः सान्निध्योपदेशाभ्यामविद्याजालमार्गस्य पारं गत्वा विद्याऽर्कः संप्राप्तव्यः ॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब बयालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मंत्र में प्रवास करते हुए मनुष्य मार्ग में किस-२ पदार्थ की इच्छा करें इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (पूषन्) सब जगत् का पोषण करनेवाले (नपात्) नाश रहित (देव) दिव्य गुण संपन्न विद्वन् दुःख के (अध्वनः) मार्ग से (वितिर) पार होकर हमको भी पार कीजिये (अहं) रोगरूपी दुःखों के वेग को (विमुचः) दूर कीजिये (पुरः) पहिले (नः) हम लोगों को (प्रसक्ष्व) उत्तम-२ गुणों में प्रसक्त कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य, जैसे परमेश्वर की उपासना वा उसकी आज्ञा के पालन से सब दुःखों के पार प्राप्त होकर सब सुखों को प्राप्त करें इसी प्रकार धर्म्मात्मा सबके मित्र परोपकार करनेवाले विद्वानों के समीप वा उनके उपदेश से अविद्या जालरूपी मार्ग से पार होकर विद्यारूपी सूर्य्य को प्राप्त करें ॥१॥

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    विषय

    पार पहुँचना

    पदार्थ

    १. हे (पूषन्) - सबका पोषण करनेवाले प्रभो ! आप कृपया हमें (अध्वनः) - मार्ग से (संतिर) - इष्ट स्थान पर सम्यक् प्राप्त कराइए । मार्ग पर चलते हुए, कभी भी मार्ग से विचलित न होते हुए हम लक्ष्य तक पहुँचनेवाले बनें । संसार के प्रलोभन कभी भी हमें मार्ग - भ्रष्ट न कर पाएँ । प्रकृति की चमक हमसे लक्ष्य को ओझल न कर दे । 
    २. (अंहः) - विघ्न के हेतुभूत पाप को वि [तिर] आप विनष्ट कीजिए । आपकी कृपा से हमारे पाप नष्ट हों और पापों के नाश के साथ हमारी पीड़ाएँ भी नष्ट हो जाएँ । 
    ३. (विमुचः नपात्) - पाप को छोड़ देनेवाले को न गिरने देनेवाले (देव) - दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो ! (नः) - हमारे (पुरः) - आगे (प्रसक्ष्व) - चलिए । आप हमारे मार्गदर्शक होइए । आपकी कृपा से मार्ग पर चलते हुए हम पाप से बचे रहेंगे और आपकी कृपा के पात्र बनेंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमें मार्ग से लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं, पाप से बचाते हैं । हमारे आगे - चलते हैं, अर्थात् मार्गदर्शन करते हैं । 
     

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    विषय

    पूषा, पृथ्वी के समान प्रजापालक राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (पूषन्) सबके पालनपोषण करनेहारे सूर्य और पृथिवी के समान और रक्षा से सबके पोषक! तू (अध्वनः) मार्गों को (सं तिर) अच्छी प्रकार पार पहुंचा दे। हे (विमुचः नपात्) विविध पदार्थों और सुखों को प्रजा पर न्यौछावर करनेवाले, मेघ के समान उदार पुरुषों को न नष्ट होने देनेवाले राजन्! तू (अंहः वि तिरः) पाप और रोगपीड़ा से मुक्त कर। हे (देव) प्रकाशवन्! दानशील ! तू (नः पुरः) हमारे आगे (प्र सक्ष्व) मार्गदर्शक रूप में रह। अथवा—(अध्वनः सं वि तिर) मार्ग के पार कर। और हे (नपात् अंहः विमुचः) प्रजा को न गिरने देनेवाले! तू पाप और दुःख से मुक्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः - १, ९—निचृद्गायत्री। २, ३, ५-८, १० गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अब बयालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मंत्र में प्रवास करते हुए मनुष्य मार्ग में किस-किस पदार्थ की इच्छा करें इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे पूषन् नपात् देव विद्वन् त्वं दुःखस्य अध्वनः पारं वि तिर विशिष्टतया प्रापय अंहः रोग दुःखवेगं विमुचः दूरीकुरु पुरः पूर्वं नःअस्मान् प्र सक्ष्व सद्गुणेषु प्रसक्तान् कुरु ॥१॥

    पदार्थ

    हे (पूषन्) पोषकविद्यया पुष्टिकारक विद्वान्= पोषक विद्या के द्वारा पोषण करनेवाले विद्वान्! (नपात्) न विद्यते पातो यस्य तत्सुंबुद्धो=जिसकी विद्या में गिरावट नहीं होती, ऐसे, (देवः) दिव्यगुणसम्पन्न= दिव्य गुणों से सम्पन्न, (विद्वन्)= विद्वन्, (त्वम्)=तुम, (दुःखस्य)= दुःख के (अध्वनः) मार्गात्=मार्ग से, (पारम्)= पार, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (तिर) पारं गच्छ= पार चले जाओ [और], (अंहः) दुःखरोगवेगम्= दुःख और रोग के वेग से, (विमुचः)=मुक्ति पाओ, (दूरीकुरु)=अर्थात् दूर हो जाओ, (पुरः) पूर्वम्=पहले, (नः) अस्मान्=हमें, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (सक्ष्व) सक्तो भव=समर्थ बनाओ, (सद्गुणेषु)= सद्गुणों में, (प्रसक्तान्)=समर्पित, (कुरु)= कराओ ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा, जैसे परमेश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा के पालन से सब दुःखों के पार जाकर सब सुखों को प्राप्त करके ही धार्मिक, सबके मित्र परोपकार करनेवाले विद्वानों की समीपता और उनके उपदेशों से अविद्या के जालरूपी मार्ग से पार होकर विद्यारूपी सूर्य को अच्छी तरह से प्राप्त करना चाहिए ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (पूषन्) पोषक विद्या के द्वारा पोषण करनेवाले विद्वन्! (नपात्) जिसकी विद्या में गिरावट नहीं होती, ऐसे (देवः) दिव्य गुणों से सम्पन्न (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (दुःखस्य) दुःख के, (अध्वनः) मार्ग से (वि) विशेष रूप से (तिर) पार चले जाओ [और] (अंहः) दुःख और रोग के वेग से (विमुचः) मुक्ति पा जाओ, (दूरीकुरु) अर्थात् दूर हो जाओ। (पुरः) पहले (नः) हमें (प्र) प्रकृष्ट रूप से (सक्ष्व) समर्थ बनाओ [और] (सद्गुणेषु) सद्गुणों में (प्रसक्तान्) समर्पित (कुरु) कराओ ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (सम्) सम्यगर्थे (पूषन्) पोषकविद्यया पुष्टिकारक विद्वन्। पूषेति पदना०। निघं० ५।६। (अध्वनः) मार्गात् (तिर) पारं गच्छ (वि) विशेषार्थे (अंहः) दुःखरोगवेगम्। अत्र अमेर्हुक्च। उ० ४।२२०। चादसुन्। अनेन वेगो गृह्यते (विमुंचः) विमुंच (नपात्) न विद्यते पातो यस्य तत्सुंबुद्धो (सक्ष्व) सक्तो भव। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः इति दीर्घः। (देवः) दिव्यगुणसम्पन्न (प्र) प्रकृष्टार्थे (नः) अस्मान्। अत्र (पुरः) पूर्वम् ॥१॥ विषयः- प्रवसन्मार्गे किं किमेष्टव्यमित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे पूषन्नपाद्देव विद्वंस्त्वं दुःखस्याध्वनः पारं वितिर विशिष्टतया प्रापयांहो रोगदुःखवेगं विमुचो दूरीकुरु पुरः पूर्वं नोऽस्मान्प्रसक्ष्व सद्गुणेषु प्रसक्तान् कुरु ॥१॥ भावार्थः (महर्षिकृत)- मनुष्यैर्यथा परमेश्वरस्योपासनेन तदाज्ञापालनेन च सर्वदुःखपारं गत्वा सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यान्येवं धार्मिकसर्वमित्रपरोपकर्तुर्विदुषः सान्निध्योपदेशाभ्यामविद्याजालमार्गस्य पारं गत्वा विद्याऽर्कः संप्राप्तव्यः ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात पूषन शब्दाचे वर्णन, शक्ती वाढविणे, दुष्ट शत्रूंचे निवारण, संपूर्ण ऐश्वर्याची प्राप्ती, सुमार्गाने चालणे, बुद्धी, कर्माची वृद्धी असे केलेले आहे. यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची संगती पूर्व सूक्तार्थाबरोबर जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    माणसांनी जशी परमेश्वराची उपासना व त्याच्या आज्ञेचे पालन करून सर्व दुःखातून पार पडावे व सुख प्राप्त करावे. तसेच धर्मात्मा, सर्वांचे मित्र, परोपकार करणाऱ्या विद्वानाजवळ जाऊन त्याच्या उपदेशाने अविद्यारूपी जाळे पसरलेल्या मार्गातून पार पडून विद्यारूपी सूर्याला प्राप्त करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, lord giver of nourishment and growth, lord imperishable, brilliant and generous, cross over through the paths of life and help us cross. Free us from sin and evil, join us and guide us to move forward.

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    Subject of the mantra

    Now is the beginning of the forty-second hymn. In its first mantra, what kind of things should a man desire while traveling on the way, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (pūṣan)=Scholars who nurture through cherishing knowledge, (napāt)=One whose knowledge does not decline, aise (devaḥ)=endowed with divine virtues, (vidvan)=scholar, (tvam)=you, (duḥkhasya)=of sorrow, (adhvanaḥ)=by way of, (vi)=especially, (tira)=go across, [aura]=and, (aṃhaḥ)=from the impetus of sorrow and disease, (vimucaḥ)=get rid of, (dūrīkuru)=means go away, (puraḥ)=firstly, (naḥ)=us, (pra)=excellently, (sakṣva)=enable, [aura]=and, (sadguṇeṣu)=in virtues, (prasaktān)=dedicated, (kuru)=make it.01

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar who nurtures through cherishing knowledge! A scholar endowed with such divine virtues, whose knowledge does not decline! You specially go beyond the path of sorrow and get rid of the impetus of sorrow and disease, that is, get away. Firstly make us powerful and dedicate us to virtues.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as humans overcome all sorrows and attain all happiness by worshiping God or obeying His commandments, in the same way pious people, friends of all, benevolent scholars in the presence of or by their teachings crossing the mesh like path of nescience get to knowledge form Sun.

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